धर्म जागृति के महान् केन्द्र-देव मन्दिर

April 1958

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इनकी स्थापना और सदुपयोग की ओर ध्यान दिया जाय।

(श्रीराम शर्मा आचार्य)

भारतीय धर्म की मान्यताओं के अनुसार देव मंदिरों की स्थापना को एक बहुत बड़ा पुण्य माना गया है। कारण यह है कि देव मंदिरों में प्रवेश करने से ही नहीं, उनके दर्शन मात्र से आस्तिक मस्तिष्कों में धर्म भावना का विकास होता है। जिन लोगों के जीवन में नियमित पूजा-उपासना का स्थान नहीं है, वे भी देव-मंदिर में जाने का अवसर आने पर भगवान का स्मरण करते हैं, उन्हें मस्तक झुकाते हैं, इस प्रकार इस बहाने उन्हें उपासना का थोड़ा बहुत अवसर मिलता है।

साधारण जनता का आकर्षण सदा दृश्य वस्तुओं पर केन्द्रित रहता है। बुद्धिजीवी और सुविकसित दार्शनिक अभिरुचि के व्यक्ति बहुत थोड़े होते हैं। प्रबुद्ध मानस की जनता निराकार उपासना से ध्यान, मनन, चिन्तन से काम चला सकती है, पर जिनकी वह भूमिका जागृत नहीं है, उस कोटि-कोटि जन समूह के लिये दृश्य आकर्षण युक्त देव-मंदिरों की आवश्यकता रहती है। लोग उन देवस्थानों की शोभा, विशालता, विचित्रता, विशेषता तथा समय-समय पर होते रहने वाले उत्सव आयोजनों को देखने कौतूहलवश जाते हैं, पर अन्ततः धर्म-बुद्धि के विकास का, भगवत् स्मरण का न्यूनाधिक अवसर वहाँ मिल ही जाता है।

आज देव मंदिर कुछ पंडे पुजारियों का पेट पालने मात्र के माध्यम रह गये हैं, पर प्राचीन काल में धर्म-प्रचार एवं सामाजिक संगठन के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। जो पुरोहित पुजारी वहाँ रहते थे, उनके भोजन निर्वाह की व्यवस्था भगवान का भोग लगने के नाम पर जनता कर देती थी और वे उपार्जन की चिंता से निवृत्त होकर अपना सारा समय जनता की धर्म बुद्धि जागृत रखने में लगाते थे। लोगों के परस्पर मिलते-जुलते रहने और विद्यालय, चिकित्सालय, व्यायामशाला, सत्संग, पुस्तकालय, न्याय व्यवस्था आदि अनेकों सत्प्रवृत्तियों का वहाँ से संचालन होता था। परिव्राजक संत-महात्मा, धर्म प्रचारक इन देवस्थानों में आश्रय पाते थे और गाँव-गाँव पाये जाने वाले इन मंदिरों में रहने वाले भोजन, ठहरने आदि की व्यवस्था के द्वारा अपना धर्म प्रचार भ्रमण बड़ी आसानी से जारी रखते थे। मंदिरों में अन्न क्षेत्र खुले रहने का यही कारण था।

मंदिरों को आध्यात्मिक एवं धार्मिक सत्प्रवृत्तियों का, नैतिकता एवं भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के केन्द्र बनाया जाना चाहिये। इतनी विशाल इमारतों में अनेक लोकोपयोगी प्रवृत्तियों का संचालन बड़ी आसानी से हो सकता है। भगवान का भोग जो वहाँ लगता है, उससे कई लोक सेवी अपना निर्वाह करके सारा समय रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं और समाज को सुसंगठित करके प्राचीन काल के ऋषि युग का दृश्य उपस्थित कर सकते हैं। बड़ी-बड़ी जायदादें जो मंदिरों से लगी हुई हैं या जो दैनिक चढ़ावा वहाँ आता है, उस प्रचुर धन का उपयोग यदि मुरझाये हुए हिन्दु धर्म को सींचने में किया जाने लगे तो वह पुनः हरा-भरा हो सकता है, सुगन्धित पुष्पों और मधुर फलों से लद सकता है, उसकी छाया में भारत ही नहीं सारा संसार सुख शाँति प्राप्त कर सकता है। नव-जागरण और पुनर्निर्माण के इस युग में हमें अपने महत्वपूर्ण प्रेरणा केन्द्र देवालयों की ओर समुचित ध्यान देना होगा। उपेक्षा करने से तो यह धर्म शक्ति व्यर्थ ही नहीं जायेगी, अनैतिक और दुष्प्रवृत्तियों का केन्द्र भी बनती चली जायेगी।

देव मन्दिरों की महान उपयोगिता का सदुपयोग करना जितना आवश्यक है उतना ही कठिन भी है, क्योंकि जिन लोगों के व्यक्तिगत आर्थिक स्वार्थ उन सम्पत्तियों तथा आमदनियों से जुड़े हुए हैं वे यह बात सहज ही स्वीकार न करेंगे कि वे अब तक जो मनमानी सुविधा, प्रतिष्ठा एवं आर्थिक लाभ उठाते रहे हैं उसमें किसी प्रकार का घाटा पड़े, मन्दिरों के निर्माता एवं संचालक भी अधिकतर ऐसे ही मिलते हैं जो सेवा एवं लोकहित का महत्व नहीं समझते और देखते हैं कि पुजारीजी को बदला या नाराज किया या अब तक की परम्पराओं में कोई हेर-फेर किया तो देवता उनसे नाराज हो जायेंगे, ऐसी दशा में कार्य काफी जटिल हो जाता है। कानूनी दावपेंच भी इन्हीं लोगों के पक्ष में पड़ते हैं जो मन्दिरों के स्थान तथा धन को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उपयोग करते रहे हैं।

इस दिशा में पहला कदम उठाना होगा कि जन साधारण को देव मन्दिरों के सदुपयोग की बात समझाई जाय। जब तक यह उपयोगिता समझ में न आ जाय तब तक सत्ताधिकारियों का स्वामित्व जमाये हुए लोगों की कुछ हेर-फेर करने के लिए तैयार करना कठिन हैं। जनता का विवेक सर्वथा एवं सर्वदा अन्धविश्वास पर ही आधारित नहीं रहता। यदि समझदारी की बात ढंग से लोगों को लगातार समझाई जाती रहे तो वह वस्तु स्थिति को देर सवेर में समझ भी सकती है।

दूसरा कार्य जो करना है वह यह है कि आदर्श देवालय स्थापित किये जायं। जिनके कार्यकर्त्ताओं और कार्यक्रमों को देखकर हर कोई यह अनुभव करे कि देवस्थानों का वास्तविक आदर्श यही होना चाहिए और इसी प्रक्रिया का सर्वत्र अनुकरण किया जाना चाहिए। एक आदर्श नमूना उपस्थित करा देने से लोग उसकी सार्थकता और उपयोगिता से प्रभावित होते हैं। गायत्री तपोभूमि का निर्माण इसी आधार पर हुआ है। यहाँ गायत्री माता की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा मानवता, पवित्रता, सात्विकता, आस्तिकता, सद्बुद्धि, सेवा, श्रद्धा आदि दैवी सत्प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि के रूप में किया गया है। नारी की श्रेष्ठता, मातृभाव की महानता एवं सत्प्रेरणा के रूप में ईश्वर की झाँकी करने के लिए गायत्री माता का प्रतीक सर्वोत्तम है। अन्यान्य देवताओं के गुण, स्वभाव, कार्य एवं चरित्रों के सम्बन्ध में पुराणों में काफी घोटाला मिलता है और उससे साधारण बुद्धि के साधकों में अश्रद्धा भी बढ़ती है। ऐसी परिस्थितियों में मानवी चरित्र दुर्बलता के इतिहास से सर्वथा रहित गायत्री माता की प्रतिमा को सर्वथा निर्दोष एवं साम्प्रदायिक प्रतिद्वंद्विता से रहित एक परम पवित्र माध्यम माना जा सकता है।

गायत्री तपोभूमि में देव प्रतिमा पर बहुत थोड़ा खर्च होता है। सारी इमारत एवं उपलब्ध एक-एक पाई का उपयोग सार्वजनिक धर्म सेवा के लिए होता है। पूजा उपासना के नियत समय के अतिरिक्त यहाँ के निवासियों का पूरा समय जनहित के, धर्म सेवा के कार्यों में लगता है। अनेकों सत्प्रवृत्तियों का संचालन यहाँ से होता रहता है। जो एक बार इस मन्दिर को ध्यानपूर्वक देख लेता है उसे मन्दिरों की उपयोगिता समझने में देर नहीं लगती और वह सोचने को विवश होता हैं कि- “काश, ऐसे ही प्रेरणाप्रद अन्य मन्दिर भी होते।”

गायत्री तपोभूमि के आदर्शों के आधार पर छोटे-बड़े गायत्री मन्दिर जगह-जगह स्थापित होने चाहिए। गरीब लोग भी थोड़े थोड़े पैसे इकट्ठे करके, श्रमदान करके, कच्चे पक्के मन्दिर बना सकते हैं। जहाँ मूर्तियों की सुविधा नहीं वहाँ बड़े चित्र सुन्दर चौंकी पर सुसज्जित रीति से स्थापित कर लिए जाएं। सच पूछा जाय तो मूर्तियों की अपेक्षा चित्र स्थापना अधिक सुविधाजनक है क्योंकि उनमें नियमित भोग, प्रसाद एवं पूजा अर्चा का कठिन प्रतिबन्ध नहीं हैं। जहाँ सम्भव हो वहाँ अखण्ड-ज्योति भी स्थापित करनी चाहिए और नित्य अग्निहोत्र का प्रबन्ध करना चाहिए। ऐसे मन्दिरों से धर्म सेवा की, समाज सेवा की अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ संचालित की जा सकती हैं। जहाँ नया मन्दिर बनाना सम्भव न हो वहाँ एक कमरा माँगकर या किराये पर लेकर गायत्री मन्दिर के रूप में सुसज्जित किया जा सकता है।

स्मरण रहे यह गायत्री मन्दिर ऐसे स्थान पर स्थापित किये जायं, जहाँ जनता का आवागमन अधिक संख्या में एवं अधिक सरलता से हो सके। नगर से दूर कहीं जंगल बगीचे में ऐसे मन्दिर बनाना बेकार है। जमीन सस्ती या मुफ्त में मिलने के लोभ में कई बार गाँव से दूर ऐसे स्थान बना लिए जाते हैं तो पीछे उनकी रखवाली भी नहीं हो पाती, चोर सामान उठा ले जाते हैं, आलसी जनता वहाँ पहुँच नहीं पाती, स्त्रियाँ दूर जाने में संकोच करती हैं। ऐसी दशा में वह प्रयत्न बेकार चला जाता है। मन्दिर भले ही माँगे या किराये के कमरे में हों पर होना ऐसे स्थान पर चाहिए जहाँ सबकी निगाह पड़े और जनता को वहाँ पहुँचने में सुविधा हो। ऐसे मन्दिर का एक छोटा नमूना अखण्ड ज्योति प्रेस में स्थापित उपासना गृह देखा जा सकता है। नया मन्दिर बनाने में भी श्रमदान से, मामूली कच्चे मन्दिर बनाये जा सकते हैं जो कम खर्च में बन जाएं। बहुत बड़ी, अत्यन्त विशाल काय इमारत बनाने की अब जरूरत नहीं, वह धन तो धर्म जागृति के कार्यों में व्यय किया जाना चाहिए। धनीमानी लोग अपने पैसे का सदुपयोग इस प्रकार के मन्दिरों की स्थापना में करें तो कम खर्च में अधिक कीर्ति और अधिक पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। गायत्री परिवार की हर शाखा को यह प्रयत्न करना चाहिये कि उसका एक गायत्री मन्दिर भी अवश्य हो।

समाजिक जीवन में आध्यात्मिकता एवं धर्म भावना को प्रवेश कराने के लिये जिस प्रकार सार्वजनिक देव मन्दिरों की आवश्यकता है उसी प्रकार पारिवारिक जीवन में सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों को सुरक्षित रखने तथा बढ़ाने के लिये पारिवारिक देव मन्दिरों की आवश्यकता होती है। भारतीय संस्कृति से प्रेम रखने वाले सद्गृहस्थों के घरों में अभी भी जहाँ-तहाँ छोटी देव पूजा की स्थापना दिखाई देती है। जिन घरों में नियमित पूजा, उपासना होती है, इसके लिये नियत कक्ष बने होते हैं वहाँ अपेक्षाकृत बुराइयां घटती और अच्छाइयाँ बढ़ती जाती हैं। पाप, द्वेष, दुराचार, रोना शोक, दुख दारिद्रय घटते हैं और श्री, समृद्धि, उन्नति, सफलता एवं प्रसन्नता के कारण बढ़ते हैं। उपासना से उत्पन्न होने वाले शक्ति कम्पनों से ऐसा परिणाम होना सहज एवं स्वाभाविक है।

पारिवारिक देव-मन्दिरों की नितान्त आवश्यकता है। यह तो हिन्दू परिवार में होने ही चाहिएं। गायत्री उपासक कहलाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के घर में तो ऐसे देवालय अवश्य ही रहें। जिन घरों की एक स्वच्छ, हवादार कोठरी गायत्री मन्दिर स्थापना के लिए स्वतन्त्र रूप से मिल सके वहाँ उसे बहुत ही नयनाभिराम ढंग से बनाकर उपासना गृह बनाना चाहिए। दीवारों पर आदर्श वाक्य एवं महापुरुषों के चित्र लगे हों। चौकी पर गायत्री माता एवं यज्ञ पिता के चित्र शरीर में मढ़े हुये रखे हों। स्थापना की चौकी, पीले वस्त्र से ढकी हो, उस पर पूजा उपकरण शंख, पंच पात्र, आरती, धूपदानी, गंगाजली आदि सजी हुई हों। कुशाओं के आसन बिछे हों। घर के सभी लोग एक साथ या बारी-बारी अपनी उपासना किया करें। प्रातः सायं दोनों समय आरती हुआ करे, जहाँ अलग स्वतन्त्र कोठरी की व्यवस्था न हो वहाँ ऐसे कमरे की अलमारी में या कोने में उपासना चौकी स्थापित करनी चाहिये जिनमें बहुत सामान न भरा हुआ हो और जहाँ अधिक आवागमन या कोलाहल न होता हो।

उपासना गृहों में स्वाध्याय की व्यवस्था अनिवार्य हैं। गायत्री सद्बुद्धि की देवी हैं। सद्बुद्धि का प्रधान मार्ग स्वाध्याय है। जप, ध्यान, पूजा, वन्दन के अतिरिक्त हर धर्म प्रेमी को नियमित रूप से स्वाध्याय भी करना चाहिये। बुद्धि की देवी केवल रोली, अक्षत, धूप, दीप से प्रसन्न नहीं हो सकती, उसे प्रसन्न करने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। इसलिये प्रत्येक उपासना गृह के साथ सत्साहित्य की एक अलमारी या सन्दूक भी अवश्य रखनी चाहिए। स्वाध्याय के लिये विचारोत्तेजक एवं जीवन की, समाज की गुत्थियों पर प्रकाश डालने वाला साहित्य होना चाहिये। बुद्धि विकास के लिये यह व्यवस्था आवश्यक है। अमुक महापुरुष, अवतार या देवता के चरित्रों को रोज-रोज पढ़ते रहना ही आजकल स्वाध्याय माना जाता है, पर वस्तुतः सच्चा स्वाध्याय वही माना जायगा जो हमारी व्यक्तिगत एवं सामूहिक गुत्थियों के सुलझाने में सहायक हो सके। इस कसौटी पर खरी उतरने वाली चुनी हुई पुस्तकें ही इन ज्ञान मन्दिरों में रहें, जिनसे बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री, पुरुष सभी उन्नति एवं कठिनाई निवारण में व्यावहारिक सफलता प्राप्त कर सकें।

साधारणतः सभी गायत्री उपासकों को और विशेषतया ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के होता, यजमानों का संकल्प लेने वालों को अपने घरों पर गायत्री ज्ञान मन्दिर की स्थापना करनी है। गायत्री पुस्तकालय और ब्रह्म विद्यालय चलाने हैं। ज्ञान मन्दिर साहित्य की आर्ट पेपर तिरंगे कवर एवं 26 पौण्ड बढ़िया ग्लेज कागज पर छपी हुई सर्वांग सुन्दर चार-चार आना मूल्य की 52 पुस्तकें छप गई हैं तथा ज्ञान मन्दिर की दीवारों पर लगाने के लिये एक-एक आना मूल्य के 16 कार्ड बोर्ड पर छपे आदर्श वाक्य भी तैयार हो गये हैं। इन्हें शीघ्र ही मंगा कर उपासना गृह को सुव्यवस्थित करके अपना ज्ञान मन्दिर स्थापित कर लेना चाहिए। गायत्री जयन्ती जेष्ठ सुदी 10 तक यह कार्य सभी सदस्य पूरा कर लेंगे ऐसी आशा है। 13 रु. की पुस्तक 1 रु. के वाक्य यह 14 रु. का देव मन्दिर किसी सद्गृहस्थ को भार रूप न होना चाहिये। इसके द्वारा उत्पन्न होने वाले सत्परिणाम और प्राप्त होने वाले पुण्य की तुलना में यह खर्च ऐसा नहीं जिसे बहुत भारी माना जाय। जहाँ यह कठिन दिखाई पड़े वहाँ कई व्यक्ति मिलकर एक ज्ञान मन्दिर की स्थापना कर सकते हैं।

ज्ञान मन्दिर संस्थापकों का कर्तव्य है कि इस साहित्य को अपने परिचित लोगों को पढ़ाने के लिए प्रेरणा करना आरम्भ कर दें। उनके घर जाकर यह साहित्य देने और वापिस लाने का कष्ट उठावें। इस बहाने लोगों से संपर्क स्थापित करने का और उन्हें अपने विचारों का बनाने का अवसर मिलेगा। यह धर्म फेरी का श्रमदान ही ‘ब्रह्म विद्यालय’ का संचालन है।

प्रयत्न यह करना चाहिए कि कम से कम 10 व्यक्तियों को यह साहित्य ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान पूर्णाहुति तक पढ़वा दिया जाय। इतना कार्य कर लेने वाले और इस ज्ञान प्रसार सेवा प्रक्रिया को आगे भी जारी रखने का व्रत लेने वाले गायत्री परिवार में ‘धर्म प्रचारक’ उपाध्याय गिने जावेंगे। इन उपाध्यायों को पूर्णाहुति के अवसर पर लाखों जन समूह के सामने उनके सत्प्रयत्न की प्रशंसा एवं प्रतिज्ञा का प्रदर्शन करते हुए ‘उपाध्याय’ की उपाधि से विभूषित किया जायेगा।

जहाँ हजारों रुपये की लागत से बड़े-बड़े मंदिर बनते हैं, वहाँ इस थोड़ी सी लागत से बनने वाले यह छोटे ज्ञान मन्दिर देखने में मामूली से प्रतीत होंगे पर निश्चय ही इनके द्वारा कार्य इतना बड़ा होगा, जितना अनेकों मन्दिर नहीं कर पाते। घर में पूजा उपासना होती रहे इतना ही नहीं, वरन् अपने समीपवर्ती क्षेत्र में यह ज्ञान मन्दिर सद्बुद्धि का प्रकाश भी करते रहेंगे और इन्हीं के आधार पर लाखों करोड़ों जनता को सद्विचारों की, सत्कार्यों की, सत्मार्ग की, आत्म कल्याण की, नैतिकता एवं मानवता की एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की शिक्षा दे सकना संभव होगा। यह बौद्धिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक क्रान्ति का महान् आयोजन है। ज्ञान-मंदिर योजना के अंतर्गत हजारों उपाध्याय जब अपने-अपने विद्यालयों को चलाने के लिए समय दान करने लगेंगे तो कोटि-कोटि भारतीयों को धर्म भावनाओं से प्रगति करके प्राचीन काल जैसे गौरवपूर्ण शुभ युग की प्रतिष्ठापना का स्वप्न अवश्य ही सार्थक हो सकेगा।

इन ज्ञान-मन्दिरों और ब्रह्म विद्यालयों की शृंखला आगे भी बराबर चलती रहे, इसके लिए मासिक बजट 2 रु. रखा जा सकता है। जिस प्रकार इस वर्ष 52 पुस्तकें 52 सप्ताहों के हिसाब से 13 रु. मूल्य की छापी गई हैं, उसी प्रकार मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालने वाली ऐसी ही सर्वांग सुन्दर पुस्तकें हर वर्ष छापी जाती रहेंगी। पुरुष समाज के लिए अखण्ड-ज्योति तथा नारी समाज के कल्याणार्थ शीघ्र ही निकलने वाली ‘गृह लक्ष्मी’ यह दो पत्रिकाएं पहुँचती रहेंगी। आदर्श वाक्य भी 16 इसी प्रकार छपते रहेंगे। 52 पुस्तकों का मूल्य 13 रु. दोनों पत्रिकाओं का मूल्य तीन-तीन रु. व 6 रु. आदर्श वाक्य 1 रु. इस प्रकार कुल मिलाकर 20 रु. हुए, शेष 4 रु. का कोई चित्र, चालीसा आदि वितरण साहित्य मँगाया जा सकता है। इस प्रकार 12 महीने का 24 रु. बजट होता है। यह साहित्य अपने घर में निरन्तर बढ़ता रहेगा और इस ज्ञान कोष अभिवृद्धि को धन सम्पत्ति बढ़ने से किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण न मानना चाहिए।

दो रुपया महीना- एक आना रोज का यह खर्च, किन्हीं अत्यन्त कृपणों को छोड़कर किसी भी सद्गृहस्थ के लिए कठिन न होना चाहिए। एक आने रोज प्रायः बच्चे ले भगते हैं। दो ढाई छटाँक आटा चूहे बिगाड़ देते हैं, एक भिखारी घर में घुसता है तो एक आने कीमत का दो ढाई छटाँक आटा ले जाता है। इतना खर्च एक मन्दिर की विद्यालय की, पुस्तकालय की स्थापना में करते रहना कोई इतना बड़ा भार नहीं है, जो मामूली स्थिति का व्यक्ति भी उठा न सके। हाँ, कार्य की उपयोगिता समझ में न आए या जो बहुत ही छोटा हो तो बात दूसरी है।

घरों में देव-मन्दिर स्थापित करने वाले एक आने रोज का भोग-प्रसाद सहज ही बाँट देते हैं, यह प्रसाद मिठाई के रूप में न होकर ज्ञान के रूप में हो तो अधिक उत्तम है। गायत्री माता निश्चय ही इस प्रकार के विवेक पूर्ण भोग प्रसाद से केवल मिठाई के भोग की अपेक्षा सहस्रों गुनी अधिक प्रसन्न होंगी। नैवेद्य में केवल श्रद्धा है, ज्ञान भोग में श्रद्धा और विवेक दोनों का समन्वय होने से यह ‘सोना सुगंधि’ जैसा सुयोग बनता है।

गायत्री ज्ञान-मन्दिरों की स्थापना ब्रह्म विद्यालयों का संचालन ही वह कार्य है, जिसके आधार पर जन-जन के मन-मन में गायत्री माता और यज्ञ पिता का सन्देश पहुँचाया जाना सम्भव है। राष्ट्र के ठोस साँस्कृतिक पुनर्निर्माण के लिए यह प्रक्रिया अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। इसे सफल बनाने और सुविस्तृत करने के लिए हमें कुछ त्याग और पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

चूँकि गायत्री-उपासना केवल उपासना मात्र तक ही सीमित नहीं है। ज्ञान वृद्धि उसका महत्वपूर्ण अंग है, इसलिए गायत्री मन्दिरों को केवल मन्दिर न कहकर इन्हें गायत्री ज्ञान-मन्दिर कहना चाहिए। अब समय आ गया है कि सामूहिक और व्यक्तिगत गायत्री ज्ञान-मन्दिरों की सर्वत्र स्थापना की जाय। गायत्री-परिवार की प्रत्येक शाखा अपनी प्रवृत्तियों का केन्द्र सामूहिक गायत्री ज्ञान-मन्दिर के रूप से स्थापित करें, इसी प्रकार गायत्री-परिवार के प्रत्येक सदस्य के घर में एक घरेलू गायत्री ज्ञान-मन्दिर हो। यह ज्ञान-मन्दिरों के शृंखला सर्वत्र फैले और वर्तमान बड़े मन्दिरों की इमारत तथा साधनों का सदुपयोग हो तो निश्चय ही भारत के साँस्कृतिक पुनरुत्थान में बड़ा योग मिल सकता है।


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