(श्री गंगाप्रसाद जी उपाध्याय एम.ए.)
हमारे देश में जो धार्मिक सुधारक हुए हैं उनमें महात्मा बुद्ध का स्थान बहुत ऊँचा है। इनके उपदेश गिरी हुई आत्माओं को उठाने वाले हैं। नीच प्रकृति के व्यक्ति भी इनके उपदेशों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। मनुष्यों को सदाचार की शिक्षा देने के लिए जिन बातों की आवश्यकता है वे सभी महात्मा बुद्ध के उपदेशों में पाई जाती हैं।
महात्मा बुद्ध के उपदेशों की शैली बड़ी सरल और मनोरंजक है जिसे साधारण मनुष्य भी भली प्रकार समझ लेते हैं। वे अन्य कितने ही दार्शनिकों की तरह मनुष्य को शब्दों की भूल-भुलैया में नहीं डालते। वह छोटे-छोटे उदाहरणों और छोटे वाक्यों में ही बड़े से बड़े सिद्धान्तों को प्रकट कर देते हैं। उनके उपदेशों में सूखापन नहीं रहता। उनकी बात चित्त में गढ़ जाती है।
हमारे इतिहास में एक समय ऐसा आ चुका है जब बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म के अनुयायियों में बड़ा झगड़ा होता था। पर बुद्ध भगवान के उपदेशों में इस विरोध का कोई कारण नहीं मिलता। उनके उपदेश तो इतने सारगर्भित हैं कि किसी भी धर्म का अनुयायी उन पर आक्षेप नहीं कर सकता। ऐसा जान पड़ता है कि महात्मा बुद्ध ने अपने समय में वैदिक धर्मावलम्बियों को तत्वहीन और बाहरी धार्मिक रूढ़ियों में फँसा हुआ देखा। उनमें आडम्बर बहुत बढ़ गया था और सच्चे धार्मिक जीवन के चिह्न कम थे। वेद के नाम पर अनेकों प्रकार की कुप्रथाएं प्रचलित थीं। वेद मन्त्रों को पढ़-पढ़कर अत्याचार किये जा रहे थे। जिन वेद-मन्त्रों में प्राणरक्षा का वर्णन था उन्हीं को पढ़कर पशुओं का बलिदान किया जाता था। जिन वेद-मन्त्रों से उच्च जातियोँ नीच जातियों पर अत्याचार करती थीं। सच्चे ब्राह्मण तथा आत्मज्ञान के उपदेशक नहीं रहे थे, उनका स्थान झूँठे, पाखण्डी और आडम्बर-युक्त मनुष्यों ने ले लिया था। इनमें ब्राह्मणों की विद्या, उनका तप, उनका त्याग तो था नहीं, हाँ स्वार्थ, मतान्धता और अत्याचार अवश्य थे।
यज्ञ अवश्य होते थे, परन्तु ऐसे यज्ञ जिनका वेदों में विधान न था और जिनसे मनुष्य को लाभ के बदले हानि होती थी। वेदों में यज्ञ के तीन लाभ होते बताये हैं- (1) सन्तान की उत्पत्ति, (2) पशुओं की उन्नति, (3) ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति। महात्मा बुद्ध ने उस समय होने वाले यज्ञों में इनमें से एक भी बात को न पाया। यज्ञों में पशु-हिंसा देख कर उनका मन पिघल गया। उन्होंने घर-द्वार इसीलिए छोड़ा था कि संसार के प्राणियों को दुःख से छुड़ाने का मार्ग तलाश करें। पर देश भर में धर्म के नाम पर इस प्रकार की प्राणी हिंसा होती देखकर उनका हृदय व्यथित हो गया और उन्होंने इस धार्मिक पाखंड को दूर करने का निश्चय कर लिया और नये धर्म का उपदेश करने लगे। जो उपदेश बुद्ध भगवान ने किया वह प्राचीन वैदिक धर्म के प्रतिकूल न था। जिस सदाचार की ओर वेदों का संकेत था उसी की ओर महात्मा बुद्ध भी संकेत करते थे पर उस समय के आडम्बरी धर्म-धुरन्धरों को यह बात रुचिकर न थी। इससे उनके स्वार्थ साधन में अड़चन पड़ती थी और उनके पाखंड की पोल खुलती थी। अतः वह स्वभावतः बुद्ध भगवान से विरुद्ध हो गये।
महात्मा बुद्ध ने लोगों से कहा कि संसार अनित्य है। वर्तमान काल थोड़ी ही देर बाद भूत काल में परिणित हो जायगा। इसलिये संसार में लिप्त न हो और हमेशा सावधान रहो। महात्मा बुद्ध के उपदेशों ने सहस्रों और लाखों सदाचारी भिक्षु उत्पन्न कर दिये, जिन्होंने अहिंसा, दया, शुद्ध आचार और पवित्र जीवन के सिद्धान्तों का प्रचार लंका, ब्रह्मदेश, चीन, जापान, पश्चिमी एशिया आदि दूर-दूर के देशों तक कर दिया। स्वार्थ त्याग तथा विचारों और जीवन की पवित्रता हर एक भिक्षु का मुख्य उद्देश्य था। इस बात का छोटा सा उदाहरण यह है कि एक बार एक भिक्षु ने भिक्षा माँगते समय एक युवती लड़की को देखा, जो उसे भीख देने को आई थी। लड़की के सौंदर्य ने भिक्षु के मन को विचलित कर दिया। भिक्षु ने इसके प्रायश्चित स्वरूप चाकू से अपनी आँख निकाल ली। यह सदाचार की पराकाष्ठा थी। यह भाव बुद्ध भगवान के उपदेशों ने ही उत्पन्न किये थे।
बुद्ध भगवान के उपदेशों में कुछ शोकवाद की झलक पाई जाती है। संसार की असारता पर आवश्यकता से अधिक बल दिया गया है। जीवन के दुःखों का वर्णन करने में अत्युक्ति से काम लिया गया है। जीवन के सुखों के साथ न्याय नहीं किया गया है। इन सुखों के कारण मनुष्यों की कितने अंशों में उन्नति भी होती है इस पर पूरा विचार नहीं किया गया है। परन्तु सम्भवतः ये सब बातें उस समय आवश्यक थीं। बुद्ध भगवान के अधिकतर उपदेश भिक्षुओं के प्रति थे। भिक्षुओं का मार्ग मुख्य रूप से निवृत्ति का हैं। गृहस्थों को प्रवृत्ति उपदेश करना चाहिए। इसलिए कुछ आश्चर्य नहीं यदि बुद्ध ने निवृत्ति मार्ग पर जोर दिया। सम्भवतः इसी से त्यागी बौद्ध भिक्षुओं का प्रबल दल तैयार हो सका।
महात्मा बुद्ध का उपदेश केवल सुधार करना था। वैदिक सभ्यता के स्थान पर कोई नई सभ्यता के लाना उनका प्रयोजन न था। इसलिये यद्यपि बौद्धों ने वेदों का अप्रमाणिक माना, पर वैदिक संस्कृति या सभ्यता से उन्होंने नाता न तोड़ा। सामाजिक संगठन का ढाँचा बौद्धों के समय में भी ज्यों का त्यों कायम था। बुद्ध के उपदेश ग्रन्थ ‘धम्मपद’ के ‘ब्राह्मण वर्ग’ के पढ़ने से विदित होता है कि जिसको ‘ब्राह्म धर्म’ कहते हैं उसका विरोध करना बुद्ध को अभीष्ट न था। वह उस धर्म की बुराइयों को दूर करना चाहते थे। महात्मा बुद्ध ने यह नहीं कहा कि ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं। उन्होंने केवल यह बताया है कि ब्राह्मण कौन हैं? प्रतीत होता है कि आजकल की भाँति बुद्ध के जमाने में भी पाखण्डी ब्राह्मणों की प्रबलता हो गई थी। लोग केवल जन्म से ही अपने को ब्राह्मण कहते थे, गुणों पर कुछ ध्यान न था। इसीलिए बुद्ध को कहना पड़ा-
“जटा, गोत्र और जाति से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता। सच्चा ब्राह्मण वह है जिसमें सत्य और धर्म पाये जावें।”
“जो ध्यानी, दोष रहित, कृतकार्य, विषय रहित और ऊंचे उद्देश्यों का पालन करता है उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।”
“जो शरीर, वाणी और मन से बुरा काम नहीं करता उसको मैं ब्राह्मण कहता हूँ।”
“मैं किसी को उसकी योनि अथवा माता के कारण ब्राह्मण नहीं कहता, चाहे लोग उसका सम्मान ही क्यों न करें और चाहे वह धनवान ही क्यों न हों। मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जो निर्धन और बन्धनों से मुक्त है।”
“मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जिसने कुछ अपराध नहीं किया, फिर भी गाली, हानि तथा दण्ड के शक्ति के साथ सह लेता है। जिसमें शान्ति का बल है और सेना के समान शक्ति है।”
“मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जो सुखों में लिप्त नहीं होता जैसे कमल पानी में लिप्त नहीं होता।”
इस प्रकार महात्मा बुद्ध के उपदेश अधिकाँश में वैदिक धर्म ग्रन्थों से मिलते हैं। बहुत से तो महाभारत गीता, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।