यज्ञोपवीत एवं गुरु दीक्षा का स्वर्ण सुअवसर

April 1958

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(श्री. शम्भूसिंह हाड़ा, कोटा)

संस्कार विहीन मनुष्य प्राणी एक प्रकार का पशु ही है। जहाँ मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की कोई व्यवस्था नहीं, उन वन्य प्रदेशों के निवासी देह से मनुष्य होते हुए भी गुण, कर्म और स्वभाव की दृष्टि से पशु ही होते हैं। इस पशु मनोभूमि को समुन्नत करने, मानवी एवं दैवी भूमिका में परिणित करने का कार्यक्रम, उपचार आध्यात्मिक भाषा में ‘संस्कार’ कहलाता है। भारतीय धर्म में संस्कारों का बड़ा महत्व है। 16 संस्कारों के द्वारा भारतीय तत्व वेत्ताओं ने साधारण मानव प्राणियों को महान पुरुष बनाने का चिरकाल से सफल प्रयत्न किया है।

नाम-करण, जात-कर्म, चूड़ा, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में यज्ञोपवीत संस्कार का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य की मनोभूमि एवं विचारधारा का परिवर्तन होता है। यज्ञोपवीत धारी ‘द्विज’ कहलाते हैं। द्विज वे हैं जिनका जन्म दो बार हो। एक साँसारिक जन्म माता-पिता के रजवीर्य से होता है, जिसकी व्यवस्था ‘दाई’ कराती है। दूसरा आध्यात्मिक जन्म गायत्री माता और यज्ञ पिता के द्वारा होता है, जिसकी उपचार व्यवस्था आचार्य करते हैं।

यज्ञोपवीत यों देखने में एक सूत का धागा मात्र है और उसे मल-मूत्र त्याग के समय कान पर चढ़ा कर यह मान लिया जाता है कि यज्ञोपवीत के नियम की पूर्ति हो गई। कई लोग चौके में बैठे रोटी खाने या कुछ और ऐसे ही विषयों के साथ सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, पर वास्तविकता यह है कि जनेऊ के प्रत्येक धागे के साथ अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शिक्षाओं और जिम्मेदारियों का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है जिनका स्मरण रखने से मनुष्य सहज ही सन्मार्गगामी बन सकता है और सच्ची सुख शान्ति का अधिकारी बन सकता है।

जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ देने की एक महान प्रक्रिया उपनयन है। इस संस्कार के समय वेद के बड़े ही शक्तिशाली मंत्रों का प्रयोग किया जाता है। जो कर्मकाण्ड एवं संस्कार विधान उस अवसर पर प्रयुक्त होते हैं उनका एक रहस्य पूर्ण वैज्ञानिक रहस्य है। उस रहस्यपूर्ण प्रक्रिया का असर यज्ञोपवीत धारण करने वाले की मनोभूमि पर पड़ता है जिससे उसके स्वभाव और गुणों के सुधार में ही नहीं, मानसिक शक्तियों के विकास में भी बड़ी सहायता मिलती है। यज्ञोपवीत के समय ही वेदारंभ एवं गुरुदीक्षा का कार्य सम्पन्न होता है जिसमें आचार्य अपने निजी तप, पुण्य, प्राण एवं आत्मबल का एक बड़ा भाग शिष्य की आत्मा गुह्यस्थल में प्रतिष्ठापित करता है। और यही चिंगारी आगे बढ़कर शिष्य के जीवन में ओत-प्रोत हो जाती है।

उपनिषदों में शिष्य की मनोभूमि को क्षेत्र और गुरु के शक्ति प्रयास को बीज बताया गया है। यज्ञोपवीत संस्कार का कर्मकाण्ड एक प्रकार से खेत को भली प्रकार जोत बोकर उसमें छंटा हुआ बढ़िया बीज बोने के समान है। यह आध्यात्मिक बीजारोपण होने के बाद जब शिष्य के संस्कारों की खेती बढ़िया फसल के रूप में पकती है तो उसकी मोहक सुगंधि एवं मधुर मिठास से अन्तरात्मा का रोम-रोम खिल पड़ता है। यदि शिष्य श्रद्धावान और गुरु प्राणवान हो और विधिवत् उपनयन संस्कार किया जाय यों यह तीनों प्रक्रियाएं मिलने का परिणाम वैसा ही होता है जैसा (1) उपजाऊ खेत (2) बढ़िया बीज और (3) आवश्यक खाद पानी प्राप्त होने पर बढ़िया फसल प्राप्त होने का होता है।

गायत्री उपासना में उत्कीलन और शाप मोचन का जो उल्लेख मिलता है उसमें गुरुदीक्षा की आवश्यकता का प्रतिपादन है और कहा गया है कि यदि अधिकारी गुरु द्वारा दीक्षा प्राप्त हो जावे तो साधना सफल होने में कोई सन्देह नहीं रहता। प्राचीन काल में यज्ञोपवीत संस्कार कराने और गुरुदीक्षा देने के लिए अधिकारी आचार्य बड़ी खोज के साथ ढूँढ़े जाते थे। आज तो कोई भी अधिकारी-अनाधिकारी, योग्य-अयोग्य पंडित यज्ञोपवीत संस्कार जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को कराने का दुस्साहस कर बैठते हैं, और इस जीवन परिवर्तन करने जैसी महान प्रक्रिया को एक खिलवाड़ जैसा बना देते हैं। देखा जाता है कि यज्ञोपवीत संस्कार या गुरु दीक्षा करने वाले पंडितों को दान-दक्षिणा खूब मिल जाती है और उधर जिनके बच्चे का संस्कार हुआ हैं उनका खर्च भी बहुत पड़ जाता है। इतना होने पर भी जिसने यज्ञोपवीत धारण किया उसके जीवन में कोई परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि आवश्यक परिणाम न हो तो यह संस्कार कराना एक प्रकार से चिन्ह पूजा मात्र ही कहा जा सकता है।

यज्ञोपवीत संस्कार यज्ञ के द्वारा ही होता है उपवीत को, जनेऊ को यज्ञ के द्वारा पवित्र एवं संस्कारित किये जाने के कारण ही उसका नाम यज्ञोपवीत पड़ा है। यज्ञोपवीत धारण के समय जितने बड़े यज्ञ का प्रयोजन होता है उतनी ही उसकी महत्ता एवं सत्परिणाम की संभावना बढ़ जाती है। आजकल जनेऊ कराते समय पंडित लोग अपनी दान-दक्षिणा का यज्ञोपवीत धारण करने वाले से भिक्षा मंगवाना जैसे लाभदायक कर्मकाण्डों का तो पूरा ध्यान रख कर देते हैं। जिस प्रकार बहुत थोड़ी अग्नि में पकाया हुआ मिट्टी का बर्तन कच्चा रह जाता है, उसी प्रकार नाम मात्र के यज्ञ के साथ कराया हुआ यज्ञोपवीत भी कच्चा ही माना जाता है। यज्ञोपवीत संस्कार का जो सत्परिणाम शास्त्रों में लिखा हुआ है, यदि उसके प्रत्यक्ष देखना हो तो उपनयन के साथ बड़े यज्ञ की व्यवस्था करना आवश्यक है।

वर्तमान परिस्थितियों में एक तो जनेऊ पहनने जैसे धार्मिक कार्यों की ओर जनता की वैसे भी अभिरुचि नहीं है, इस पर भी यदि आवश्यक सत्परिणाम प्राप्त करने के लिये बड़े यज्ञों की खर्चीली व्यवस्था भी करनी पड़े तो स्वभावतः जनेऊ पहनने वालों का उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा। इसलिये गायत्री संस्था द्वारा यह प्रयत्न किया जाता है कि जहाँ भी सामूहिक यज्ञ हो वहाँ यज्ञोपवीत धारण करने की इच्छा करने वालों के संस्कार कराये जायं। हर छोटे-बड़े यज्ञ में अनेकों व्यक्ति यज्ञोपवीत धारणा करते एवं गुरु-दीक्षा लेते हैं। किसी से भी कोई बाधित दान-दक्षिणा या अमुक सामान लाने की शर्त नहीं रहती। यज्ञ के लिये कोई कुछ उस समय देना चाहे तो उसे रोका भी नहीं जाता। यह सरल, बिना खर्च का एवं शक्ति संपन्न विधान सबके लिये सुविधाजनक एवं उत्साहवर्धक है। सहस्रों नर-नारी हर वर्ष गायत्री यज्ञों में इस व्यवस्था से लाभ उठाते रहते हैं।

इस वर्ष इस युग का महानतम गायत्री यज्ञ गायत्री तपोभूमि में हो रहा है। उससे बड़ी प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति का उद्भव होगा। उस समय यज्ञोपवीत संस्कार कराने एवं गुरु-दीक्षा लेने का भी सुवर्ण सुअवसर रहेगा। जिनके यज्ञोपवीत अभी बिलकुल ही नहीं हुये हैं या तो विधिवत् नहीं हुए हैं, इनके लिये यह यज्ञ एक ऐसा अवसर है जैसा पुनः किसी को मिल सकना कठिन है। गुरु दीक्षा के नाम पर आजकल अनेक पण्डित देव मंत्र की शिक्षा साधना बताते हैं। पर वस्तुतः सच्चा गुरु-मंत्र यह गायत्री-महामन्त्र ही है। अन्य मंत्रों की गुरुदीक्षा लेने पर भी गायत्री-मंत्र की विधिवत् दुबारा भी गुरुदीक्षा ली जा सकती है। दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाये थे, इसी प्रकार एक व्यक्ति कई मंत्र प्राप्त करने के लिये कई बार गुरुदीक्षा ले सकता है और उन सब मंत्रों की साधना उसी प्रकार करता रह सकता है जिस प्रकार एक विद्यार्थी अनेक विषयों को पढ़ने के लिये पृथक-पृथक अध्यापकों की सहायता लेता है और उन सभी अध्यापकों को अपना गुरु मानता है।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की पूर्णाहुति के अवसर पर गायत्री परिवार के सदस्यों को उनके घर वालों को यज्ञोपवीत एवं गुरु-दीक्षा प्राप्त करने का लाभ प्राप्त करना चाहिये। इतने विशाल यज्ञ से उत्पन्न शक्ति का एक महत्वपूर्ण भाग अपनी अन्तरात्मा में धारण करने का यह एक बड़ा ही सरल एवं प्रभावशाली उपाय है। हम लोगों का सौभाग्य ही है कि यह संस्कार कराने के लिये इस युग के महान तपस्वी श्री आचार्यजी मौजूद हैं। उनके रहते, उनकी प्राण शक्ति एवं तपस्या की चिंगारी हम या हमारे स्वजन-संबंधी प्राप्त न कर सके तो इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिये।

महायज्ञ का यह आध्यात्मिक प्रसाद अधिकाधिक लोग उठा सकें उसके लिये हम सबको पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिये। गायत्री परिवार की हर शाखा दूसरी शाखाओं से होड़ लगावे कि देखें किसके यहाँ से अधिक व्यक्ति दीक्षित होने, उपवीत धारण करने, द्विज बनने को तैयार होते हैं। जो शाखायें इस दिशा में अधिक उत्साह प्रदर्शित करें, अधिक सफलता प्राप्त करें उनके लिये मेरा सुझाव है उन्हें गायत्री संस्था विशेष सम्मान महायज्ञ के अवसर पर प्रदान करे। लोग अपने प्रदेश में, अपने गाँव में, अपनी जाति में इस बात की कोशिश करे कि उनका क्षेत्र इस लाभ से अधिक लाभान्वित हो। संस्था के संगठन एवं गायत्री प्रचार की दृष्टि से भी यह प्रयत्न महत्वपूर्ण है क्योंकि दीक्षित व्यक्तियों से संस्था के कार्यक्रमों में सम्मिलित होते रहने, सहयोग देते रहने और सहानुभूति रखने की आशा की जा सकती है। जिस क्षेत्र में इस प्रकार के सहयोगी जितने अधिक होंगे उस क्षेत्र में धर्म-योजनाओं को पल्लवित करने में उतनी ही संभावना अधिक रहेगी।

गायत्री परिवार की प्रत्येक शाखा से तथा सभी परिजनों से मेरी विशेष रूप से प्रार्थना है कि महायज्ञ को सफल बनाने की अन्यान्य तैयारियों के साथ-साथ यह भी प्रयत्न करें कि उस पुनीत अवसर पर अधिकाधिक लोग उपनयन एवं गुरु-दीक्षा के लिये तैयार होकर आ आएं।


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