श्री विष्णु और वाहन गरुड़

February 1957

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(आचार्य श्री शिवकुमार शास्त्री)

भगवान् विष्णु प्रसिद्ध वैदिक देव तो हैं ही, वे लोक में भी बहुत प्रसिद्ध हैं। वे सृष्टि स्थित और संहार इन तीन कर्मों के कारण ब्रह्मा, विष्णु, महेश नामों से कहे जाते हैं। गुणभेद एवं रुचि भेद को लेकर देवताओं के विषय में हिंदू संस्कृति ने जितना वैज्ञानिक प्रकार अपनाया है, आज तक सारे विश्व की संस्कृतियों ने उतना विचार तक नहीं किया है। भारतीय संस्कृति त्रिगुणात्मक प्रकृति को लेकर चलती है और वह अंतिम लक्ष्य रखती है- एक अद्वितीय तत्व, जिसे आत्मा कहते हैं। शरीर का संचालन करने वाली इन्द्रियों एवं अन्तःकरण की अनियंत्रित, अमर्यादित, दूषित वृत्तियों की रुकावट के लिए शास्त्रों ने उपासना, दैवी शक्ति की आराधना, मनुष्य की मनुष्यता के साथ उसे अविनाशी पद पाने के लिए लोगों के समक्ष रखी है। सारे प्राणी अपने-2 कर्मों के अनुसार सुख-दुःखादि का उपभोग करते हैं। अपनी-अपनी वासनाओं के अनुसार सारे प्राणी सात्विक, राजस, तामस भेद से विविध होते हैं। उनके कल्याण के लिए शास्त्रों ने उपासनाएँ भी वैसी ही रखी हैं- ‘यजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षाँसि राजसाः’ कहकर श्री भगवान ने सात्विक पुरुषों को देवोपासक बतलाया है। ‘यथाभिमतध्यानाद्वा’ कहकर महर्षि पतंजलि ने चित्त शुद्ध के लिए देवताओं की उपासना अपनी रुचि के अनुसार आवश्यक बतलायी है।

देवताओं में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही सर्वशक्तिमान एवं श्रेष्ठ हैं। सृष्टि, स्थिति संहार कार्यों में अभेद रूप से सर्वाधिकारी होते हुए भी विष्णु प्रसिद्ध रूप से स्थिति के अधिकारी बतलाये गये हैं। स्थिति, रक्षा सत्वगुण का कार्य है, अतः एक परमतत्व होते हुए भी वे सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं। सृष्टि की स्थितिसत्ता करने के कारण उनका सत्व गुण के आश्रय होना युक्ति युक्त भी है। वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत आदि शास्त्रों में उनका, उनके कर्मों का, उनकी उपासना का सम्मानपूर्वक विविध उल्लेख है। पाठकों के समक्ष उनके विषय कुछ उदाहरण हम यहाँ दे रहे हैं।

“सुष्ट च पात्यनुयुगं यावत्कल्पविकल्पना। सत्वभृद्भगवान्विष्णुरप्रमेयपराक्रमः॥” (विष्णुपुराण 2-62) कहकर सत्वगुण विशिष्ट भगवान विष्णु सृष्टि का प्रलयपर्यन्त पालन करते हैं यह बतलाया गया है। वेदों में श्री विष्णु की महिमा गायी गयी है। “विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा॥” अर्थात् पुरुषों! श्री विष्णु के सृष्टि-स्थिति-संहार आदि कर्मों को देखो, समझो। उन्होंने ही अपने पराक्रम से अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र आदि को अपने-अपने कार्यों में प्रमाद रहित होकर नियुक्त किया है। वे श्री विष्णु वृत्र आदि असुरों के विनाश में देवराज इन्द्र के मित्र हैं। वेदान्तशास्त्र के पारंगत विद्वान आकाश में व्याप्त नेत्र की भाँति अथवा सूर्य मण्डल के रूप में विद्यमान उन विष्णु के परम आनन्दस्वरूप पद का साक्षात्कार करते हैं -’तद्विणोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततप्त।’ (यजु. 6। 4-5)। श्री विष्णु ने वामन अवतार धारण कर इस विश्व का क्रमण (माप) कर लिया अर्थात् अग्नि, वायु, सूर्यरूप से भूमि, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग, इन तीनों में चरणन्यास किया। सब प्राणियों में व्याप्त विष्णु का शुद्ध रूप धूलिमय बालुकामय प्रदेश में रखे पैर की भाँति अज्ञानी पुरुषों की बुद्धि से परे है- ‘इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढ़मस्य। पाँसुरे स्वाहा॥’ (यजु. 5। 15)

जिस विष्णु ने पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग आदि लोकों की रचना की है और जिसने ऊपर वाले स्वर्ग को धारण किया है, अग्नि, वायु, सूर्यरूप से तीनों लोकों का आक्रमण करने वाला अर्थात् व्याप्त तीव्रगति वाला अथवा महात्मा लोग जिसके गुणों का गान करते हैं, उस विष्णु के कार्यों का मैं वर्णन करता हूँ - “विष्णोर्नुकं वीर्याणि प्रवोच यः पार्थिवानि विममे रजोसि। यो अस्कभायदुत्तरं सघस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरु- गायो निष्णवेत्वा॥” सर्वथा शुद्ध नृसिंह आदि रूप से भयंकर, पृथ्वी में मत्स्य, कच्छप आदि रूप से गतिशील, वेदवाणी अथवा शरीर में आत्मा के रूप से स्थित होने वाले विष्णु हैं। जिस विष्णु भगवान के विशालतापूर्वक तीन पैरों के रखने में ही सारे विश्व निवास कर रहे हैं, उस अद्भुत विक्रमशाली विष्णु की हम लोग स्तुति करते हैं- “प्रतद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठः। यस्योरुपु त्रियु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा।” (यजु. 5। 20)। इस मन्त्र के अन्य अर्थ भी सम्भव हैं, पर वे सब विष्णुपरक ही हैं। जगत के रक्षक अविनाशी श्री विष्णु ने अग्नि, वायु, सूर्यनामक तीन चरणन्यास किये हैं। इन तीन चरणों के रखने से ही वे धर्मों की रक्षा करते हैं पुण्यकर्मों का पालन करते हैं- “त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुगोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्॥” कामनारहित, सावधान, मेधावी, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण लोग उस यज्ञ पुरुष विष्णु के उत्तम ब्रह्मरूपी पद को प्रदीप्त करते हैं अर्थात् उसे पाने का निरन्तर उद्योग करते हैं- “तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवाँसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम॥”(यजु. 34।43।44)। इन मंत्रों में भगवान विष्णु को सत्त्वगुण विशिष्ट, रक्षक एवं ब्रह्मस्वरूप बतलाया गया है। ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में विष्णु के विषय में बहुत मंत्र हैं, जिनमें उनकी विविध महिमाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। अधिक जिज्ञासु जनों को उन्हें देखना चाहिए। वेदभगवान विष्णु को ‘विष्णुर्गोपा अदाभ्यः’ कहकर रक्षक बतलाते हैं।

श्रीमद्भागवत, विष्णुपुराण, महाभारत आदि में तो श्री विष्णु की इतनी महिमा वर्णित है कि जिसका संक्षिप्त उल्लेख तक सम्भव नहीं है। ‘सत्त्वं विशुद्धं क्षयते भवान् स्धितौ शरीरिणाँ श्रेय उपायनं वपुः’(गर्भस्तुति) कहकर ‘शरीरधारियों को कल्याण देने वाले सत्त्वगुणविशिष्ट विशुद्ध शरीर को आप स्थितिकाल में धारण करते हैं’ ऐसा कहा गया है। ‘देवक्याँ देवरुपिण्याँ विष्णुः सर्वगुहाशयः’ यहाँ देवरूपिणी भगवती देवकी में सबके हृदय में रहने वाले श्री विष्णु का ही प्रादुर्भाव बतलाया गया है। ‘मूलं हि विष्णुर्देवानाँ यत्र धर्मः सनातनः’ कहकर उन्हें सनातनधर्म का आधार एवं देवताओं का परमाश्रय बतलाकर उनकी विशिष्टता स्पष्ट कही गयी है। नारायण, बैकुण्ठ, हरि, अधोक्षज, गोविन्द, गरुड़ध्वज, कृष्ण, हृषीकेश, पद्मनाभ, मुकुन्द आदि नाम श्री विष्णु के ही हैं। निर्गुण भी परब्रह्म सृष्टि, स्थिति, संहार की इच्छा से सर्वशक्तिमान होने के कारण सत्त्व, रज, तम गुणों का आश्रय लेता है। श्री विष्णु ने ही सूकरावतार धारण कर हिरण्याक्ष का वध करके पार्थिव शक्ति का उद्धार किया है। इन्होंने ही ‘हरि’ नाम से गजेन्द्र को संकट से छुड़ाया है। महर्षि कर्दम से देवहूति में कलि नाम से उत्पन्न होकर माता को शुद्ध ज्ञान देकर साँख्य शास्त्र का विस्तार किया है। दत्त एवं सनकादि रूप से श्री विष्णु ने ही योगियों की गति प्रदर्शित की है। धर्म से दक्षपुत्री मूर्ति में नर-नारायण रूप से उत्पन्न होकर जो आज भी तप में परायण हैं मोहित करने के लिए आयी हुई अप्सराओं को जिन्होंने शान्त भाव से उर्वशी अप्सरा देकर लौट जाने का आदेश दिया। भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध के लिए उन्होंने नृसिंह रूप धारण किया। उन्होंने ही वामनावतार में बलि से समस्त लोकों का राज्य छीनकर इन्द्र को दिया। धन्वन्तरि, ऋषभ, परशुराम, मत्स्य रूप धारण कर विविध लीलाएं करने वाले ये ही हैं। इक्ष्वाकुवंश में श्री राम के रूप में अवतार लेकर वानर सेना के साथ इन्होंने ही रावण जैसे अत्याचारी दुर्दान्त राक्षसराज को परास्त किया। श्री बलराम एवं श्री कृष्ण के रूप में अनेक दुष्टों का वध करने वाले, पाण्डवों को विजय देने वाले, अलौकिक कर्म करने वाले, अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले, धर्मरक्षार्थ अवतीर्ण ये ही विष्णु हैं। वेदवृक्ष का विभाग करने वाले वेदव्यास, देवद्रोही पुरुषों को वैदिक मार्ग से पाखण्ड से प्रवृत्त होते देख उन्हें विभिन्न विचित्र उपदेशों से मोहित करने वाले बुद्ध आदि के रूप में अवतीर्ण ये विष्णु ही तो हैं। ‘विष्णोर्माया भगवती यथा सम्मोहित जगत्’ यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं की माया से मोहित हो रहा है॥

संक्षेप से श्रीविष्णु के विषय को सामने रखकर अब हम उनके वाहन श्री गरुड़ के विषय में पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति ने देवताओं के कार्यों के अनुसार ही उनके वाहनों की वैज्ञानिक सत्य-कल्पना की है। वेदमय गरुड़ पर आसीन चक्रधारी श्री हरि गजेन्द्र के पास पहुँचे- “छन्दोमयेन गरुड़ेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः” (भागवत) श्री गरुड़ के कंधे पर हाथ रखे श्री भगवान से पृथु बोले- ‘पदास्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नते विन्यस्तहस्ताग्रमुरंगविद्विषः।’ वेदस्वरूप गरुड़ भगवान विष्णु को वहन करते हैं- ‘त्रिबृद् वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम्’ (श्रीमद्भागवत 10।11।19)। ‘पद्मपुराण’ आदि में भी गरुड़ को श्री विष्णु का वाहन बतलाया गया है। ‘अथो दिव्यः स सुपर्णों गरुत्मान्’ ऋग्वेद के इस मन्त्र का अभिप्राय भी यही है। यह ऊपर बतलाया जा चुका है कि श्री विष्णु ब्रह्माण्ड का पालन करने वाले हैं। रक्षा में आने वाली बाधाओं तथा विघ्नों को उन्हें हटाना होता है। दूषित वासनाओं वाली, देहात्मवाद मानकर केवल अपना ही स्वार्थ देखने वाली, मिथ्या अभिमानी, दूसरों को दुःख देने में सुख मानने वाली, हिंसा, असत्य, इन्द्रिय-परायणता में रुचि रखने वाली आसुरी शक्ति से साधु वृत्ति वाले, सर्वहित परायण महात्माओं की रक्षा उनका प्रमुख कार्य है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥” (गीता) की घोषणा करने वाले, जगत में अव्यवस्था एवं लूटपाट, अनाचार, व्यभिचार, असत्य, नास्तिकता, स्वेच्छाचार को फैलाने वाले दूषित कीटाणुओं का विनाश, जगत की व्यवस्था एवं शान्ति के लिए परम आवश्यक है। भगवान विष्णु के इसी कार्य का सर्वत्र उल्लेख है। ‘गृ निगरणे ‘ धातु से सिद्ध गरुड़ शब्द वस्तुतः दूषित जीवों के निगलने वाले अर्थ में प्रयुक्त हो सकता है। वेदमय पक्षों से सम्पन्न यह गरुड़ जहाँ वेदोक्त कर्म-ज्ञानरूपी वायु का संचार करता है। वहाँ वह अपने तीक्ष्ण पैरों से बड़े-बड़े दुष्ट जीवों का भी विनाश कर देता है। ‘नागान्तको विष्णु रथः सुपर्णः पन्नगाशनः’ गरुड़ के इन नामों में जहाँ उन्हें वेदमय पक्ष होने के कारण सुपर्ण, विष्णु वाहन होने से ‘विष्णुरथ’ कहा गया है, वहाँ उन्हें ‘नागान्तक’ एवं ‘पन्नगाशन’ भी कहा गया है। कुटिल गति वाले विषधर जीवों को पन्नग, सर्प आदि कहा जाता है। हृदय में विष रखने वाले कुटिल स्वभाव वाले जीवों से क्या कभी सृष्टि का कल्याण सम्भव है? ऐसे जीव संसार की सुव्यवस्था एवं शान्ति में बाधक हैं। यही समझकर महात्मा प्रह्लाद ने ‘मोदेत साधुरपि बृश्चिक सर्पहत्या’ कहा है। दूसरों को पीड़ा देना ही धर्म मानने वाले जीवों का विनाश आवश्यक ही नहीं लोक कल्याणकारी भी है। दूषित वासनाओं तथा संस्कारों, आचार-विचारों को हटाकर शुद्ध वासनाओं, आचार-विचारों की रक्षा इसका मुख्य प्रयोजन है, अतः विषैले सर्प के समान साँसारिक विषयों में दौड़ लगाने से ही संसार में शान्ति संभव नहीं है। विषयविष के वासनारूपी दाँतों को तोड़ दो ‘विषयान विषवत् त्यज’ का यही तात्पर्य है। विषयों के अमर्यादित उपभोग में विष भरा हुआ है। उसमें शरीर की भी रक्षा संभव नहीं, शरीरी आत्मा की तो क्या बात? विषयविष एवं इन्द्रियादि का जितना आवश्यक तथा कम सम्बन्ध होगा, मनुष्य उतना ही बहिर्मुखी वृत्तियों से रहित एवं अन्तर्मुख होकर आसक्तियों से रहित हो जायेगा। विषयासक्ति का स्वार्थ न होने से उसकी सारी प्रवृत्तियाँ कल्याणमय होंगी। ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्’ का उपदेश तब उसके त्यागमय जीवन से चरितार्थ होगा। विषयासक्ति रूपी विष हट जाने पर प्राणी शाँत एवं स्वस्थ हो जाता है। साँसारिक विषयों को समझने के बदले वह अपने को समझ जाता है। महात्मा गरुड़ उन विषय, रूपी कुटिल गति सर्पों के नाशक हैं, भक्षण करने वाले हैं स्पष्ट है कि वाहन श्री गरुड़ के द्वारा किये जा रहे कार्य से श्री विष्णु के कार्यों में समता है। उन्हें भी क्या सृष्टि की रक्षा में विषैले जीवों का हटाना आवश्यक नहीं? अतः श्री गरुड़ का भगवान विष्णु का वाहन होना सर्वथा युक्तिसंगत है।

उपासना में इस दृष्टिकोण को लेकर ही चलने से कल्याण हो सकता है। संक्षेप से यह विषय पाठको के समक्ष उपस्थित किया गया है। आवश्यकता होने पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किये जा सकते हैं। गरुड़वाहन श्री भगवान विष्णु हम सब की रक्षा करें। ‘विष्णुगोपा अदाभ्यः।’ भगवान विष्णु की प्रसन्नता तथा सद्बुद्धि वैभव आदि की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन अपने अपने वर्णधर्म का पालन करते हुए ऋग्वेद अथवा यजुर्वेद के सहस्रशीर्षा आदि मंत्रों वाले पुरुषसूक्त तथा श्री विष्णु -सहस्रनाम का पाठ परम कल्याणकारी है। पाठक इसका अनुभव करें। रक्षा एवं संहार में ही शस्त्र धारण की आवश्यकता है। श्रीविष्णु के द्वारा कौस्तुभ, श्रीवत्स, विविधगुणशालिनी वनमाला, वेदमय पादाम्बर, धर्म-आदि से युक्त ज्ञान कमल तथा ओजबल आदि से युक्त गदा, जलतत्व, शंख, अग्नितत्व, सुदर्शन, तमोमय खड्ग, कालरूपी शाँर्ग धनुष तथा कर्ममय बाणों को धारण उन्हें स्थिति, सृष्टिरक्षा का अधिकारी बतला रहा है। वेद−शास्त्रों के गूढ़ रहस्यपूर्ण विषय या सत्य कही गयी घटनाएँ सामान्य बुद्धि द्वारा दुर्ज्ञेय हैं। भगवान विष्णु की कृपा से ही उनका ज्ञान सम्भव है। -सिद्धाँत


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