(स्वामी विवेकानन्द)
हमें यह विदित है कि हिन्दू जाति कभी भी धन के पीछे नहीं पड़ी। धन उन्हें खूब प्राप्त हुआ यह बात अलग है- अनेकों राष्ट्रों से कहीं अधिक धन-पर हिन्दू जाति धन के पीछे तो कभी भी न लगी। युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उस का आदर्श नहीं बनी। कभी उसने अपनी शक्ति का उपयोग अपने देश के बाहर या किसी पर विजय प्राप्त करने में नहीं किया, कभी साम्राज्य शाही की यश-लोलुपता का वह शिकार नहीं हुआ, धन और शक्ति उस जाति की कभी भी प्रेरणा न बन सकी।
तो फिर? उसका मार्ग उचित था या अनुचित- यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है- वरन् बात यह है कि यही एक ऐसा राष्ट्र है, मानव वंशों में यही एक ऐसी जाति है, जिसने श्रद्धापूर्वक सदैव यही विश्वास किया कि यह जीवन वास्तविक नहीं-यह जीवन सत्य नहीं। सत्य तो परमात्मा है, वास्तविक तो प्रभु हैं और इसलिए दुःख और सुख में उसी से हमारी लगन बढ़े। अपने ह्रास के इतिहास में भी उसने धर्म को प्रथम स्थान दिया है। हिन्दू का खाना धार्मिक, पीना धार्मिक, उसकी नींद धार्मिक, उसकी चाल-ढाल धार्मिक, उस के विवाहादि धार्मिक, यहाँ तक कि उसकी चोरी करने की प्रेरणा भी धार्मिक है।
अन्यत्र भी देखा है क्या आपने ऐसा देश? आपको यदि जरूरत है एक डाकू के गिरोह की, तो उसके नेता को आप देखें-कैसे वह एक धार्मिक तत्व लेकर उसका प्रचार करता है, उसकी कुछ खोखली सी आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि रचता है और फिर उद्घोष करता है कि परमात्मा तक पहुँचने का यही सुस्पष्ट और शीघ्रगामी मार्ग है। तब उसके अनुचर बन जाते हैं- अन्यथा नहीं। इसका बस एक ही कारण है और यह है कि इस जाति की सजीवता, इस देश की प्रेरणा धर्म है और क्योंकि धर्म पर अभी आघात नहीं हुआ, यह जाति जीवित है, यह देश निष्प्राण नहीं है।
एक हिन्दू यदि किसी व्यक्ति या राष्ट्र को सहायता पहुँचाना चाहता है तो वह पूर्ण निरपेक्ष, सम्पूर्ण निःस्वार्थ बनकर ही अग्रसर होगा। मैंने दिया और बस बात खत्म हो गयी वहीं। मुझ से चली गयी दूर- मेरा दिमाग, मेरी शक्ति, मेरा सर्वस्व, अथवा जो कुछ भी दे सकूँ वह सब कुछ दे दिया सब खत्म किया यह है उसका स्वाभाविक धर्म।