(श्री आनन्द टीका पट्टी)
यद्यपि पाँचों ऋण समान रूप से सारी मानव जाति पर हैं, फिर भी इस को ठीक-ठीक पहचान कर जिस प्रकार हिन्दू जाति ने इसे पंच महायज्ञ के रूप में चुकाने का प्रयत्न किया, वह संसार के किसी भी धर्म और सम्प्रदाय ने नहीं किया अतः यह, इस धर्म में एक विशेष दृष्टि, कर्म और प्रसाधन है।
प्रारम्भ में खेती−बाड़ी, भोजन, वस्त्र, मकान, सहन कल मशीन आदि हमारी आवश्यकताओं एवं सुविधाओं की कोई वस्तु नहीं थी। हमारे पूर्वजों ने कठिन परिश्रमों द्वारा बड़ी-बड़ी मुसीबतों को झेलकर पृथ्वी और समाज को इस रूप तक पहुँचाया है, जैसा हम आज इसे पा रहे हैं। यदि उन लोगों ने ऐसा नहीं किया होता तो न हमें आज की सुख सुविधाएं ही मिली होतीं और न हमारा इतना विकास ही हुआ होता। इसके लिए हमें अपने पूर्वजों का ऋणी होना आवश्यक है। इसे ही हिंदू धर्म में पितृऋण कहा है। पितृऋण केवल व्यक्ति के बाप-दादों तक सीमित नहीं है। हिंदू लोग पितृ-तर्पण करते समय ऋषि, मुनि, देव, पितर, आदिकों का आह्वान करते हैं।
मनुष्य केवल स्थूल भूत शरीर नहीं है। अनेक सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तत्वों के समुदाय से मनुष्य बना है। स्थूल के बाद सूक्ष्म स्तरों की अनेक शक्तियाँ मनुष्य को अपना विकास करने में सहायता पहुँचाती है, उसे ही देवता कहा जाता है इन्हीं के उपकारों से लाभाँवित होने का निर्देश करते हुए भगवान ने गीता में कहा है-