(प्रो. रामचरण जी महेन्द्र एम.ए.)
यदि आप रात्रि में दस बजे सोकर प्रातः सात बजे उठते हैं तो एक बार जरा पाँच बजे भी उठकर देखिए। अर्थात् व्यर्थ की निद्रा एवं आलस्य से दो घंटे बचा लीजिए। चालीस वर्ष की आयु तक भी यदि आप सात बजे के स्थान पर पाँच बजे उठते रहें तो निश्चय जानिए दो घंटे के इस साधारण से अन्तर से आपकी आयु के दस वर्ष और जीने के लिए मिल जायेंगे।
नित्य प्रति हमारा कितना जीवन व्यर्थ के कार्यों, गपशप, निद्रा तथा आलस्य में अनजाने ही विनष्ट हो जाता है, हम कभी इसकी गिनती नहीं करते। आजकल आप जिससे कोई कार्य करने को कहें, वही कहेगा, ‘जी, अवकाश नहीं मिलता। काम का इतना आधिक्य है कि दम मारने की फुरसत नहीं है। प्रातः से साँय तक गधे की तरह जुते रहते हैं कि स्वाध्याय, भजन, कीर्तन, पूजन, सद्ग्रन्थावलोकन इत्यादि के लिए समय ही नहीं बचता।’
इन्हीं महोदय के जीवन के क्षणों का यदि लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो उसमें कई घंटे आत्म-सुधार एवं व्यक्तित्व के विकास के हेतु निकल सकते हैं। आठ घंटे जीविका के साधन जुटाने तथा सात घंटे निद्रा-आराम इत्यादि के निकाल देने पर भी नौ घंटे शेष रहते हैं। इसमें से एक-दो घंटा मनोरंजन, व्यायाम, टहलने इत्यादि के लिए निकाल देने पर छः घंटे का समय ऐसा शेष रहता है जिसमें मनुष्य परिश्रम कर पर्याप्त आत्म-विकास कर सकता है, कहीं से कहीं पहुँच सकता है।
यदि हम सतर्कता पूर्वक यह ध्यान रक्खें कि हमारा जीवन व्यर्थ के कार्यों या आलस्य में नष्ट हो रहा है और हम उसका उचित सदुपयोग कर सकते हैं तो निश्चय जानिए हमें अनेक उपयोगी कार्यों के लिए खुला समय प्राप्त हो सकता है।
आज के मनुष्य का एक प्रधान शत्रु-आलस्य है तनिक सा कार्य करने पर ही वह ऐसी मनोभावना बना लेता है कि ‘अब मैं थक गया हूँ, मैंने बहुत काम कर लिया है। अब थोड़ी देर विश्राम या मनोरंजन कर लूँ।’ ऐसी मानसिक निर्बलता का विचार मन में आते ही वह शय्या पर लेट जाता है अथवा सिनेमा में जा पहुँचता है या सैर को निकल जाता है और मित्र-मण्डली में व्यर्थ की गपशप करता है।
यदि आधुनिक मानव अपनी कुशाग्रता, तीव्रता, कुशलता और विकास का घमंड करता है तो उसे यह भी स्मरण रखना चाहिए कि समय की इतनी बरबादी पहले कभी नहीं की गयी। कठोर एकाग्रता वाले कार्यों से वह दूर भागता है। विद्यार्थी-समुदाय कठिन और गम्भीर विषयों से भागते हैं। यह भी आलस्य-जन्य विकार का एक रूप है। वे श्रम कम करते हैं, विश्राम और मनोरंजन अधिक चाहते हैं। स्कूल-कालेज में पाँच घंटे रहेंगे तो उसकी चर्चा सर्वत्र करते फिरेंगे, किन्तु उन्नीस घंटे जो समय नष्ट करेंगे, उसका कहीं जिक्र तक न करेंगे। यह जीवन का अपव्यय है।
व्यापारियों को लीजिये। बड़े-बड़े शहरों के उन दुकानदारों को छोड़ दीजिये, जो वास्तव में व्यस्त हैं। अधिकाँश व्यापारी बैठे रहते हैं और चाहें तो सोकर समय नष्ट करने के स्थान पर कोई पुस्तक पढ़ सकते हैं और ज्ञान-वर्धन कर सकते हैं, रात्रि-स्कूलों में सम्मिलित हो सकते हैं, मन्दिरों में पूजन-भजन के लिए जा सकते हैं, सत्संग-स्वाध्याय कर सकते हैं। प्राइवेट परीक्षाओं में बैठ सकते हैं। निरर्थक कार्यों-जैसे व्यर्थ की गपशप, मित्रों के साथ इधर-उधर घूमना-फिरना, सिनेमा, अधिक सोना, देर से जागना, हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहना- से बच सकते हैं।
दिन-रात के चौबीस घंटे रोज बीतते हैं, आगे भी बीतते जायेंगे। असंख्य व्यक्तियों के जीवन बीतते जाते हैं। यदि हम मन में दृढ़तापूर्वक यह ठान लें कि हमें अपने दिन से सबसे अधिक लाभ उठाना है, प्रत्येक क्षण का सर्वाधिक सुन्दर तरीके से उपयोग करना है तो कई गुना लाभ उठा सकते हैं।
जो व्यक्ति अपनी आय का प्रारम्भिक बजट बना कर खर्च करता है, वह प्रत्येक रुपये, इकन्नी और पैसे से अधिकतम लाभ निकालता है। इसी प्रकार दैनिक कार्यक्रम बनाकर समय को व्यय करने वाला जीवन के प्रत्येक क्षण का अधिकतम लाभ उठाता है और आत्म-विकास करता है।
प्रत्येक क्षण जो आप व्यय करते हैं, अन्तिम रूप से व्यय कर डालते हैं, वह वापस लौटकर आने वाला नहीं है। जब मृत्यु समीप आती है तो हमें जीवन के दो चार क्षणों का ही बड़ा मूल्य लगता है। यदि हम विवेकपूर्ण रीति से अपने उत्तरदायित्व और जिम्मेदारियों को धीरे-धीरे समाप्त करते चलें तो हम जीवन में इतना कार्य कर सकते हैं कि हमें उस पर गर्व हो।
क्या आप ‘जौन जेक रूसो’ नामक विद्वान के जीवन के सदुपयोग की कहानी जानते हैं। वह कहार का कार्य करते-करते फालतू समय के परिश्रम से विद्वान बना था। दिन भर रोटी के लिए परिश्रम करता और रात्रि में पढ़ता था। एक व्यक्ति ने उससे पूछा- ‘आपने किस स्कूल से शिक्षा पायी है?’ रूसो ने कहा-’मैंने विपत्ति की पाठशाला में सब कुछ सीखा है।’ यह कहार दिन-भर सख्त मेहनत की रोटी कमाता और बचे हुए समय में पढ़कर धुरन्धर शास्त्रकार हुआ है। हम भी यह कर सकते हैं।
समय के अपव्यय के पश्चात् भाव, विचार, वासना, उत्तेजना आदि अनेक रूपों से जीवन का अपव्यय किया करते हैं। दुर्भाव न केवल दूसरों के लिये हानिकर है वरन् ‘स्वयं’ हमें बड़ी हानि पहुँचा जाते हैं। एक बार का किया हुआ क्रोध दूसरों पर तो बाद में प्रभाव डालता है, पहले तो हमारे रक्त को विषैला और स्वभाव को चिड़चिड़ा बना डालता है पाचन-क्रिया को शिथिल कर डालता है, बहुत देर तक सम्पूर्ण शरीर थरथराता रहता है। यदि हम वासना को नियंत्रण में रखकर वीर्य संचय करें, तो जीवन में जीवाणुओं, पौरुष, बल की, बुद्धि की, वृद्धि हो सकती है। व्यर्थ जो वीर्य नष्ट किया जाता है, वह जीवन का अपव्यय ही है।
घृणित विचार, क्षणिक, उत्तेजना, आवेश हमारी जीवनी शक्ति के अपव्यय के अनेक रूप हैं। जिस प्रकार काले धुएँ से मकान काला पड़ जाता है, उसी प्रकार स्वार्थ, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर के कुत्सित विचारों से मनो मन्दिर काला पड़ जाता है। हमें चाहिए कि इन घातक मनोविकारों से अपने को सदा सुरक्षित रक्खें। गंदे, ओछे विचार रखने वाले व्यक्ति से बचते रहें। वासना को उत्तेजित करने वाले स्थानों पर कदापि न जायं, गन्दा साहित्य कदापि न पढ़े। अभय पदार्थों का उपयोग सर्वथा त्याग दें।
शान्त चित्त से बैठकर ब्रह्म-चिन्तन, प्रार्थना, पूजा इत्यादि नियमपूर्वक किया करें, आत्मा के गुणों का विकास करें। सच्चे आध्यात्मिक व्यक्ति में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, दया, श्रद्धा, भक्ति और उत्साह आदि स्थाई रूप से होने चाहिए। दीर्घकालीन अभ्यास तथा सतत शुभचिंतन एवं सत्संग से इन दिव्य गुणों की अभिवृद्धि होती है।
अपने जीवन का सदुपयोग कीजिए। स्वयं विकसित होइये तथा दूसरों को अपनी सेवा, प्रेम, ज्ञान से आत्म-पथ पर अग्रसर कीजिए। दूसरों को देने से आपके ज्ञान की संचित पूँजी में अभिवृद्धि होती है।
हमारे जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति या मुक्ति है। परमेश्वर बीजरूप से हमारे अन्तरात्मा में स्थित हैं। हृदय को राग, द्वेष आदि मानसिक शत्रुओं, सांसारिक प्रपंचों, व्यर्थ के वितंडावाद, उद्वेगकारक बातों से बचाकर ईश्वर-चिन्तन में लगाना चाहिए। दैनिक जीवन का उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरान्त भी हममें से प्रायः सभी ईश्वर को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द लूट सकते हैं।
एषा बुद्धिमताँ बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्। यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति माऽमृतम्॥
मानव की कुशलता, बुद्धिमत्ता साँसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत-स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति में है।
सब ओर से समय बचाइए; व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमूल्य निधि को नष्ट न कीजिए, वरन् उच्च चिन्तन, मनन, ईशपूजन में लगाइए, सदैव परोपकार में निरत रहिए। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हम परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।