यज्ञ के साथ (Kavita)

February 1957

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सध्यज्ञाः प्रजाः सृष्टवा पुरो वाचप्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोड स्त्विष्ट कामधुक्॥ देवा भावयतानेन ते देवा भाव यन्तु चः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परम वाप्स्यथ। इष्ट न्भोगाह्लि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ भाविताः। तै दर्त्ता न प्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥

अर्थ- पुरातन काल में प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजाओं (मनुष्यों) की रचना करके कहा- इसी (यज्ञ) के द्वारा तुम लोगों की उन्नति होगी, यह (यज्ञ) ही तुम्हारे लिए कामधेनु होगा। इस (यज्ञ) के द्वारा तुम लोग देवगणों का पोषण करो और देवगण तुम लोगों का पालन करें। इस भाँति परस्पर पालन करते हुए तुम लोग श्रेय की प्राप्ति कर सकोगे। यज्ञ से भावित देवगण तुम्हारे लिए इष्ट भोग की सामग्री प्रदान करेंगे और उन की प्रदान की हुई सामग्री जो उन्हें बिना दिये ही भोग करते हैं निश्चय ही चोर हैं।

देवों के द्वारा मनुष्यों को जो इष्टभोग प्राप्त कराते हैं उस ऋण को चुकाने के लिए भी यज्ञादि कर्म करना आवश्यक और उचित ही है।

देव शक्ति के द्वारा मनुष्यों को इष्ट परमार्थ प्राप्त करने में जो सहायता मिलती है, उसे ‘स्थूल आँखों और बुद्धियों’ द्वारा नहीं देखा जा सकता। एकाग्रता और योगलब्ध दृष्टि से यह स्पष्टतया देखा जा सकता है।

मानव विकास में सर्वश्रेष्ठ ऋषियों, मुनियों, आत्म ज्ञानियों से प्राप्त होती है ये ऋषिगण स्थूल शरीर में वास करते हुए मनुष्यों के आत्मविकास, कल्याण, ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, इस शरीर को छोड़ने के उपरान्त भी अनेकों ऋषि दया द्रवित होकर उच्च लोकों के आनंद भोग का त्याग कर नीचे उतर आते हैं, और अज्ञानी भ्राँत, दुःखी मानव जाति को उत्थान कराते हैं व इससे मुक्त कराने का प्रयत्न करते रहते हैं। दूसरों की सहायता से साधारण तथा मनुष्य ब्रह्मतत्त्व की उपलब्धि कर पाता है। इस महाऋण को चुकाने के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का महान कर्त्तव्य है।

भौतिक जीवन में सुख, लाभ, उन्नति करने में प्रत्यक्ष ही अनेकों प्राणियों से हमें भिन्न-भिन्न सहायता, सहयोग एवं रंजन प्राप्त होते हैं। इन ऋणों को चुकाना भी मनुष्य का विशेष कर्त्तव्य है, क्योंकि इन प्राणियों के द्वारा जो भी सहायता हमें मिलती है, उसमें इनकी कुछ कामना नहीं रही होती है।

पांचवीं प्रत्यक्ष सहायता एक मनुष्य दूसरे की स्वभावतया, स्वार्थ वश, ममता और उपशक्ति से, प्रेम के कारण करते रहते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए भी हमें कुछ विशेष कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए।

इस भाँति प्रधान तथा पाँच प्रधान ऋण प्रत्येक मनुष्य जाति पर जिसका हिन्दू शास्त्रों में या महर्षियों द्वारा स्पष्ट निर्धारण किया गया है। इन पाँचों ऋणों को उच्च अनुक्रम से ऐसे रखते है-

1- ऋषि ऋण, 2- देव ऋण, 3- पितृ ऋण, 4- सर्वभूत ऋण और 5- नृ ऋण।

इन पाँचों ऋणों को चुकाने के लिए पाँच महायज्ञ करने का विधान है।

1- ब्रह्म यज्ञ 2- देव यज्ञ 3- पितृ तर्पण 4- भूतयज्ञ और 5- नृ यज्ञ।

1- ब्रह्म यज्ञ

ऋषियों ने हमारा जो महान उपकार किया है। उस को चुकाने के लिए हमें दो प्रक्रियाएं करनी पड़ती हैं और दोनों के द्वारा व्यक्ति, आत्म ज्ञान, ब्रह्म, सर्व ज्ञान प्राप्त करता है।

(क) ऋषियों ने मार्ग आत्म कल्याण के लिए बताया है, उसका स्वाध्याय, श्रवण, कथन एवं मनन करना।

(ख) निदिध्यासन द्वारा, उन मार्गों को अनुभवगम्य बनाकर उसे प्रकाशित करना। ऐसा करने से ऋषि ऋण सम्पूर्णतया चुक जाता है तथा चुकाने वाला स्वयं ऋषि बन जाता है।

2- देव ऋण

अग्नि प्रज्वलित कर विशिष्ट मन्त्रों एवं विभिन्न पुष्टि, शक्तिकारी पदार्थों से आहुति प्रदान करना ही देव यज्ञ है। इससे देवगण सन्तुष्ट होकर मनुष्यों को अपनी उच्च शक्ति से ऐसी ऐसी सहायताएं प्रदान करते हैं जो मनुष्य अपने निजी पुरुषार्थों, प्रयत्नों और विचारों के द्वारा भी नहीं कर सकते यद्यपि देवों को सन्तुष्ट करने के लिए हम शुद्ध भाव से अनेकों विध प्रक्रियाओं सहित उन्हें हवि प्रदान करते हैं, पर इनका कई गुणा अधिक लाभ उलट कर हम करने वालों को ही प्राप्त हो जाता है।

3- पितृ तर्पण

जिन आत्माओं ने मनुष्य जाति की सुख सम्पत्ति की समृद्धि के लिए अनेकों प्रयत्न किये थे तथा अपने सम्बन्धित व्यक्तियों के हित के लिए प्रयत्न किये थे, वे आत्माएँ चाहे ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में निवास करती हों, हम उन्हें जल-तिलादि से तर्पण कर भाव सहित तृप्त करने का प्रयत्न करते हैं। हमारी श्रद्धा से अर्पित तर्पण द्वारा उनको अवश्य ही तृप्ति मिलती है और देवताओं की भाँति पितृ गण भी अपनी शक्ति से मानव को सुखी समृद्ध उन्नत होने में सहायता प्रदान करते हैं। इस भाँति पितृ तर्पण करने की सेवा करके उलट कर हम स्वयं ही उन्नति करने में सहायता प्राप्त करते हैं।

व्यक्ति, देश, समाज और विश्व के सुख और कल्याण के लिए उद्योग करने वालों की सेवा और सम्मान करना भी पितृ तर्पण ही है। दोनों मिलकर ही पूरा पितृ तर्पण है।

4- भूत यज्ञ

इस यज्ञ के दो रूप हैं। एक तो हम प्रत्यक्ष तथा जिन पशु-पक्षी, प्राणियों से सहायता लेते हैं, उनके खाने, रहने आदि की सुव्यवस्था रखकर उन्हें सुखी रखना। दूसरा भूलोक एवं भुवलोक से सम्बन्धित अनेक प्राणी जो अनेक प्रकार अभावों, कष्टों से त्राण पाने के लिए मनुष्य की सहायता की अपेक्षा करते हैं। उन्हें गार्हपत्याग्नि में आहुति प्रदान कर हम अपने सत्संकल्पों से लाभ पहुँचाते हैं, इस भाँति उन दुःखी असहाय प्राणियों को सहायता देकर हम स्वयं पुण्य या कल्याण के भागीदार बनते हैं।

5- नृ यज्ञ

मनुष्य ईश्वरीय सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यदि मनुष्य अकेला ही रहे तो वह पशु से कुछ विशेष शायद ही हो सके। अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य ज्ञात या अज्ञात रूप से एक दूसरे की सहायता लेकर ही आत्म विकास करता है। इसीलिए प्रत्येक समर्थ योग्य मनुष्य को प्रतिदिन किसी प्रकार की सहायता, सेवा, भलाई कर देना ही नृ यज्ञ है। जीवन धारण में भोजन का महत्वपूर्ण स्थान है इसीलिए किन्हीं अचानक आए मनुष्यों का देव की भाँति पूजा अर्चना-सेवा करके उसे भोजनादि से सुख पहुँचाना (अतिथि सेवा) एक महायज्ञ है। ऐसा संयोग उपस्थित नहीं होने पर अपनी तैयार रसोई किसी अनपेक्षित व्यक्ति जिससे अपना कोई स्वार्थ नहीं-को खिलाना भी नृ यज्ञ ही है।

जब तक हिंदू जाति में ये पाँचों महायज्ञ होते रहे तब तक उनके जीवन का उत्कर्ष होता रहा। इसका परित्याग ही इसके पतन, दुःख, कष्ट एवं पराधीनता के कारण बने। आज इसे ग्रहण कर पुनः उत्थान साधित किया जा सकता है।


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