सफल तीर्थ यात्रा

August 1954

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(श्री ओंकार लाला जी महाजन, खरगोन)

भारतवर्ष में अनेक तीर्थ हैं इनमें असंख्यों यात्री प्रतिवर्ष बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ जाते हैं। इन स्थानों में जाने से पुण्य फल प्राप्त होता है। ऐसी प्रायः सभी आस्तिक जनों की आस्था होती है। इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर असंख्य जनता तीर्थ यात्रा करती है।

प्राचीन काल में तीर्थ स्थानों की स्थापना की गई थी, तब वहाँ पुण्य फल प्रदान करने वाली अनेक बातें भी रखी गई थीं। उन ऐतिहासिक स्थानों में जो महापुरुष उत्पन्न हुए थे या उन्होंने जो आदर्श कार्यों से प्रेरणा ग्रहण करके तीर्थ यात्री लोग इसी ढांचे में अपने जीवन को ढालें यह उद्देश्य प्रधान था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र के वचन और कार्य ऐसे हैं जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं और उनके बताये हुए मार्ग पर चल कर जीवन को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त इन भूमियों में कुछ ऐसा विशेष आध्यात्मिक प्रभाव भी होता है। जिनके कारण वहाँ के सूक्ष्म परमाणु आगन्तुकों के अन्तःकरण पर सतोगुण प्रभाव डालते हैं। जिसके कारण अनायास ही पापों से दूर रहने और धर्म संयत मार्ग पर चलने की भावना जागृत होती है।

तीर्थ स्थानों की उस आध्यात्मिक विशेषता को स्थिर रखने तथा बढ़ाने के लिए वहाँ निरन्तर धार्मिक आयोजन होते रहते हैं। ऐसे आयोजनों में यज्ञ प्रधान थे। यज्ञ भारतीय विज्ञान का एक अतीव महत्वपूर्ण रहस्यमय आविष्कार हैं। यज्ञ द्वारा मनुष्य प्रकृति के सूक्ष्म तत्वों पर अधिकार प्राप्त करके सूक्ष्म जगत की परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना सकता है। यज्ञ द्वारा जहाँ अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र बन सकते हैं, सृष्टि में पर्याप्त वर्षा, धान्य, दूध, पशु वनस्पति, औषधि, निरोगता आदि की वृद्धि हो सकती है, व्यक्तिगत तथा सामूहिक कठिनाइयों को हल कर सकते हैं। वहाँ किसी स्थान विशेष को अमुक प्रकार की शक्ति से सम्पन्न भी बनाया जा सकता है। प्राचीन काल से तीर्थ स्थानों में अनेक महत्वपूर्ण यज्ञ इस आयोजन से भी होते रहते थे कि वहाँ की पापनाशिनी तथा धर्म भावना प्रेरक शक्ति अक्षुण्य बनी रहे। काशी और प्रयाग के दशाश्वमेध घाट प्रसिद्ध है। इन घाटों पर एक-एक करके दस-दस बार अश्वमेध विभिन्न राजाओं ने कराये थे। उस समय अपने घर में यज्ञ कराने की अपेक्षा ऐसे महत्वपूर्ण पुण्य स्थानों पर बड़े-बड़े यज्ञ कराना अधिक उपयोगी समझा जाता था। आज एक तो बड़े यज्ञ होते ही नहीं हैं यदि होते तो प्रशंसा के लोभी उन्हें अपने घरों तक ही सीमित रखते हैं। तीर्थों की शक्ति बढ़ाने के लिए वहाँ बड़े यज्ञ आज तो बन्द से ही हो गये हैं।

यज्ञों के अतिरिक्त प्राचीन काल में तीर्थ स्थानों में अनेक त्यागी, तपस्वी, विद्वान, महात्मा और पुरोहित रहते थे, अनेक गुरुकुल थे जहाँ सत्संग करके मनुष्य अपनी बुद्धि को शुद्ध करते थे, जीवन की अनेक कठिनाइयों को पार करने की कला सीखते थे। पापों का प्रायश्चित करते थे और आत्मबल बढ़ाने के लिए विशेष साधनाएं की जाती थी। इन लाभों से भी तीर्थ यात्रा का बड़ा महत्व था। देवालयों की दर्शन झाँकी, पवित्र नदी सरोवरों का स्नान तो एक गौण लाभ था मूल लाभ तो उन स्थानों की आध्यात्मिक विशेषताएं ही थीं।

अन्य अनेक धार्मिक भावना वाले व्यक्तियों की भाँति मेरी भी बहुत दिनों से तीर्थ यात्रा की इच्छा थी। बार-बार उत्साह उठता योजनाएं बनतीं, पर जब आज कल तीर्थ स्नानों में जो बुरा वातावरण है उसका स्मरण करता तो हृदय क्षोभ और ग्लानि से भर जाता। पण्डे यात्रियों के साथ जो ठगी धोखाधड़ी तथा दुर्व्यवहार करते हैं, उससे एक बार तीर्थ हो जाने के बाद वहाँ दुबारा जाने की इच्छा नहीं होती। इसी प्रकार सदुपदेश तथा आध्यात्मिक शिक्षा के लिए भी कोई सच्चे आयोजन वहाँ नहीं रहते, यज्ञ आदि आयोजनों के अभाव में वहाँ की सूक्ष्म प्रेरक शक्ति भी शिथिल पड़ गई है, यह कारण उत्साह को ठण्डा कर देने के लिए भी कम वजनदार नहीं है। फिर आर्थिक संकट भी तो हर आदमी को परेशान किये रहता है। इसी उधेड़ बुन में तीर्थ यात्रा की अभिलाषा बहुत दिनों से अधूरी पड़ी हुई थी।

अखण्ड-ज्योति में सरस्वती यज्ञ और साँस्कृतिक शिक्षण शिविर की योजना पढ़ी तो वह पिछली अभिलाषाएं अचानक जागृत हो गई और नियम समय पर मथुरा के लिए चल पड़ा और गायत्री तपोभूमि में जा पहुँचा। स्थान की दृष्टि से यह इमारत कोई इतनी बड़ी या प्रभावशाली नहीं है जैसी अन्यत्र कहीं नाप हो। इससे हजारों नहीं तो सैकड़ों गुनी कीमत के मन्दिर मैंने अपनी आँखों देखे हैं पर इस स्थान में जो विशेषताएं मैंने देखी वे निश्चित रुप से आज तक मैंने कहीं नहीं देखी है।

जिस कारण आग के निकट जाने पर स्वयमेव गर्मी अनुभव होती है, बर्फखाने में घुसने पर स्वयं ठण्डक लगने लगती है। उसी प्रकार इस तपोभूमि में घुसते ही ऐसा लगता है कि सारी मथुरा नगरी तीन लोक से न्यारी न सही उसकी यह एक उप नगरी यह तपोभूमि तीन लोक से न्यारी अवश्य है। यहाँ शिविर में शिक्षा व्यवस्था कैसी थी? किस वक्ता ने क्या कहा? क्या कार्य किस प्रकार होता था? आदि बातों पर मेरा ध्यान उतना नहीं था, क्योंकि वह सब बातें ऐसी नहीं थी जो अन्यत्र कहीं न होती हों या न हो सकती हों। इससे अधिक बड़े महत्वपूर्ण और सुव्यवस्थित आयोजन भी अनेक बार होते हैं।

यहाँ की प्रधान विशेषता यहाँ का वह वातावरण था जिसकी तुलना प्राचीन काल के उन ऋषि आश्रमों से की जा सकती है जहाँ गाय और सिंह एक साथ पानी पीते और रहते सुने जाते हैं। यहाँ वैसा कुछ मैंने प्रत्यक्ष देखा। हम लोग 50-60 शिविरार्थी इस थोड़ी सी जगह में घूमते फिरते रहते थे इतने अधिक लोगों के बीच यहाँ के पक्षी निर्भय होकर इस प्रकार क्रीड़ा करते रहते थे मानो वे हमारे ही सहयोगी हों। प्रातःकाल जब वेद मंत्रों की ध्वनि के साथ यज्ञ आरम्भ होता तो आस-पास के वृक्षों पर से तोता, कबूतर, गोरैया, कोयल, मोर आदि पक्षी उतर आते और यज्ञ वेदी के चारों ओर कलरव करने लगते। मोरों के तो मनोहर नृत्य आरम्भ हो जाते और वह बहुत देर तक चलते रहते। वह दृश्य देखते ही बनता। यह मोर मनुष्यों पर तनिक भी अविश्वास नहीं करते। उनके साथ भोजन तक करने को तैयार रहते हैं। बालकों की थाली में से भी उनके हाथ से रोटी लेकर यह खाते हैं, भोजन की तलाश में आश्रम की कोठरियों तक में यह घुस जाते हैं।

इस तपोभूमि में भारतवर्ष के प्रायः समस्त तीर्थों का जल रज सुसज्जित रखा हुआ है। देश भर के गायत्री उपासकों द्वारा मन्त्र लेखन में किया हुआ जप बहुत ही आदरपूर्वक स्थापित है। प्रायः 80 करोड़ हस्त लिखित गायत्री मन्त्र अब तक संग्रह हो चुके हैं। इतने लोगों ने इतने समय तक जो मन्त्र लेख जप किया है वह कापियों के माध्यम से मूर्तिमान होकर यहाँ विराजता है उस तप का प्रचण्ड तेज इस स्थान में श्रद्धापूर्वक बैठते ही प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। गायत्री माता की मूर्ति का भार तथा अंक प्रत्यंकों का माप, शास्त्रोक्त प्रमाणों के आधार पर हुआ है। इसकी प्राण प्रतिष्ठा भी असाधारण रीति से हुई है। आचार्य जी 24 दिन तक केवल गंगाजल लेकर दुस्साहसीय उपवास के साथ मूर्ति की प्रतिष्ठापना कराई, शास्त्रीय विधानों का तो प्रतिष्ठा में पूर्ण ध्यान रखा गया। यही करण है कि यहाँ की प्रतिमा चैतन्य प्राण जैसी प्रभावशाली परिलक्षित होती है। शान्त चित्त से श्रद्धापूर्वक थोड़ी देर इस प्रतिमा के सम्मुख खड़े होने पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम किसी निर्जीव पाषाण के सामने खड़े हैं। दर्शन मन में एक विशेष भावना तुरन्त विद्युत तरंगों की भाँति दौड़ जाती है यह प्रभाव यहाँ विशेष प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न किया गया है।

यहाँ नित्य यज्ञ होता है। प्राचीन नैतिक अग्निहोत्रियों की यज्ञ शालाओं की भाँति यहाँ अखण्ड अग्नि रखी जाती है। यज्ञ वेदी के चारों ओर हरी भरी तुलसी लगी हुई हृदय में सात्विक संस्कारों को उत्पन्न कर देती है। यह भूमि तपोभूमि के लिए चुनने में दैवी पथ प्रदर्शन का ध्यान रखा गया है। यह स्थान ऐसा है जिसमें प्राचीन काल के अनेक तपस्वी आत्माएं बड़े-बड़े एवं प्रभावों से यह भूमि अभी तक प्रभावित है।

इन सब बातों के अतिरिक्त आचार्य जी की आत्मा तथा भावनाओं का इस स्थान पर प्रभाव है। वे आरम्भ से ही इस बात का प्रयत्न कर रहे हैं कि यह स्थान इतनी चैतन्य प्रेरणा से युक्त हो जाय कि बिना कुछ कहे सुने भी इस स्थान में निवास करने पर लोग बहुत कुछ पा सकें। सचमुच बहुत अंशों तक वह वैसा हो भी चुका है। यह मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव से भली प्रकार जान लिया है।

शिक्षण शिविर की शिक्षा पूर्ण थी। वृन्दावन की यात्रा की, मथुरा की परिक्रमा की, विद्वत्तापूर्ण भाषण सुने, अनेक सत्पुरुषों से परिचय हुआ, इन सब लाभों से बढ़कर लाभ यह हुआ कि मेरी तीर्थ यात्रा की फिर अभिलाषा पूरी हो गई। मेरा जो यह विचार था कि अब तीर्थों में केवल ढकोसला मात्र रह गया है, वह धारणा अब मैंने बदल दी है क्योंकि एक तीर्थ को तो मैं स्वयं अपनी आँखों देख चुका हूँ। और उसका प्रभाव भी अपने ऊपर प्रत्यक्ष अनुभव कर चुका हूँ।

मुझे चाय और सिगरेट का न मालूम कितने समय से बहुत बढ़ा-चढ़ा व्यसन था। मैं स्वप्न में भी यह आशा न करता था कि यह व्यसन छूट जायेंगे। एकाधिक कार प्रयत्न किया तो शरीर में भारी विघ्न खड़े हो गये। पर जब तपोभूमि में रहा तो बिना किसी प्रयत्न के यह दोनों व्यसन अनायास ही छूट गये और मुझे तनिक भी कोई अड़चन न हुई। अब तो ऐसा लगता है मानो यह व्यसन मुझे कभी थे नहीं। दोनों चीजों से घृणा होती है। यह तो प्रत्यक्ष लाभ है, आध्यात्मिक दृष्टि से, मानसिक दृष्टि से, शारीरिक दृष्टि से, साँसारिक दृष्टि से, मुझ में जो कुछ परिवर्तन हुए हैं उन्हें देख कर तो यही कहा जा सकता है कि मैंने बहुत कुछ पाया है। मेरी तीर्थ यात्रा पूर्ण सफल हुई है। मैं सोचता हूँ कि प्राचीन काल में भी तीर्थ ऐसे ही लाभदायक होते होंगे तभी लोग इतना कष्ट सहकर वहाँ जाने का प्रयत्न किया करते होंगे।


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