नरमेध के लिए आत्मदान का संकल्प

August 1954

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(पं. तारकेश्वर झा ममई, मुँगेर)

आचार्य जी की लिखित पुस्तकें मैंने इलाहाबाद में देखी थीं, उन्हें पढ़कर मेरे ऊपर असाधारण प्रभाव पड़ा और सब काम छोड़कर उन पुस्तकों के प्रचार के लिए घर-घर घूमने लगा, उस ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए दिन-दिन भर भ्रमण करने लगा।

मैंने जीवन के आरम्भ से ही एक बात सीखी है कि किसी बात के गुण दोष पर पूरे विवेक के साथ विचार करना चाहिए। यदि वह वस्तु त्याज्य है तो उससे सर्वथा अलग हो जाना चाहिए और यदि उपयोगी है तो आगे बढ़ाने के लिए शक्ति भर सहयोग देना चाहिए। राष्ट्रीय काँग्रेस के स्वाधीनता आन्दोलन में भी मैंने अपने जीवन के सर्वोत्तम 10 वर्ष लगाये। अन्तरात्मा ने कहा स्वराज्य आवश्यक है इसके लिए प्रयत्न करना हर भारतीय का कर्त्तव्य है। इसी आन्तरिक पुकार कर मैंने कदम आगे बढ़ाये और अनेक कष्टों को उस उद्देश्य के लिए निरन्तर लम्बे अर्से तक सहन करता रहा।

यों घर की अच्छी स्थिति है, कई बड़े प्रतिष्ठित स्थानों, पदों पर काम कर चुका हूँ पर भौतिक उन्नति तथा स्थिरता इसीलिए नहीं हो सकती कि जब अन्तरात्मा ने किसी कर्त्तव्य पालन के लिए पुकारा तो अपने भावना-मय हृदय को रोक न सका। सत्य और कर्त्तव्य यही दो रस्सियाँ ऐसी हैं जिनके द्वारा अपने को बंधा हुआ मैं मानता हूँ और ये रस्सियाँ जिधर खींचती है उधर ही पाशबद्ध पशु की तरह खिंचता चला जाता हूँ। यही गतिविधि अब तक मेरे जीवन की रही है।

अखण्ड-ज्योति का गायत्री साहित्य पढ़ कर मेरी अन्तरात्मा ने कहा- आत्मा की पवित्रता में व्यक्ति के सच्चे विकास की सारी योजनाएं सन्निहित है, वह वह पवित्र गायत्री महामंत्र की शिक्षा एवं साधना को अपनाकर प्राप्त की जा सकती है। ऋषियों ने इसी आधार को अपना प्रथम लक्ष्य माना था और वे अपना तथा संसार का बहुत कुछ कल्याण करने में समर्थ हो सके थे। मुझे लगा कि उस प्राचीन गौरव को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक आधार है इस मान्यता के आधार पर मैं गायत्री उपासक बन गया। गायत्री ज्ञान की अधिक पिपासा मुझे मथुरा खींच लाई। यहाँ केवल दर्शनों को आया था पर दर्शनों के बाद वापिस लौटना सम्भव नहीं हो सका।

आचार्य जी ने नरमेध की योजना समझाई। उन्होंने बताया कि संसार में धार्मिक वातावरण उत्पन्न करने के लिए सच्चे आत्मत्यागी मनुष्य चाहिए। यों त्यागी कहलाने वाले, 56 लाख की सेना घर-घर भीख माँगती फिरती है। अनेक लोक सेवक कहलाने वाले व्यक्ति लोकेषणा-कीर्ति, प्रतिष्ठा, नेतागिरी, पदवी के भूखे हैं। अनेक ऐसे सनकी हैं जो त्यागी तो हैं पर अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग ही पकाते फिरते हैं, योजना बद्ध संगठित एवं ऋषि प्रणीत मार्ग पर चलाने में उनकी अपनी सनक प्रधान रूप से बाधक रहती है। कितनों ने तो कठिन परिश्रम करने पर भी भर पेट भोजन न पाने के कारण जन्मजात त्यागी है। ऐसे तो लाखों करोड़ों त्यागी इस देश में सर्वत्र मिल जायेंगे, पर उच्च भावनाओं से प्रेरित, आन्तरिक दुर्बलताओं से मुक्त, स्थिर मन से एक लक्ष्य में जुट जाने वाले निष्ठावान व्यक्तियों की बड़ी भारी कमी है। महात्मा गाँधी ऐसे केवल 100 मनुष्य ढूँढ़ते रहे पर उन्हें हजारों लाखों नेताओं और स्वयं सेवकों में से केवल 100 व्यक्ति ऐसे न मिल सके जो उपरोक्त कसौटी पर खरे उतरते। ऐसे व्यक्ति जो उपरोक्त कसौटी पर खरे उतरे कोई वातावरण बनाने में समर्थ हो सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ढूँढ़ने के लिए आचार्य जी का मन बहुत ही तड़प रहा है। वे अपनी जैसी लगन और तड़पन के कुछ और साथी चाहते हैं जिनको साथ लेकर व महान कार्यक्रम को पूर्ण कर सकें। ऐसी आत्माओं का आह्वान करने के लिए उन्होंने नरमेध का आयोजन सोचा है। आध्यात्मिक पुनरुत्थान के लिए सच्चे कार्यकर्ताओं को मिलजुल कर उन्होंने यह एक सार्वजनिक चुनौती उपस्थित की है।

निश्चित रूप से व्रतधारी, आत्मदान करने वाले, जीवन को एक लक्ष्य विशेष के लिए संकल्प कर देने वाले व्यक्ति ही किसी कार्यक्रम को निष्ठापूर्वक अब तक निबाहने में समर्थ हो सकते हैं। अन्यथा मानसिक उचाटें उन्हें इधर से उधर डुलाती रहती है। आज यह तो कल वह वे सोचते और करते रहते हैं संकल्पपूर्वक आत्मदान करने वाले व्रतधारी इस प्रकार की उचाटों से बच जाते हैं, और एक ही दिशा में उनका मन वचन और कर्म लगा रहता है। तदनुसार कार्य भी बहुत होता है और परिणाम भी महान ही होते हैं। यह सब बातें आचार्य जी ने मुझे विस्तारपूर्वक बताई और ऐसे व्यक्ति ढूँढ़ने पर भी न मिलने की अपने वेदना को रुंधे गले से अभिव्यक्त किया। उन्होंने भरे हुए कण्ठ से कहा एक समय में लोग परमार्थ के लिए अपनी हड्डियाँ देते थे शरीर का माँस देकर पक्षी के प्राण बचाते थे लोक कल्याण के लिए रचे हुए नरमेधों में अपनी आहुति देते हुए प्रसन्नता अनुभव करते थे, पर आज तो वैसे लोग रह नहीं गये हैं। ग्राही विरागी सभी एक से एक बढ़कर स्वार्थी हैं। कोई धन के लिए, कोई वंश के लिए, स्वर्ग के लिए, स्वार्थ साधन में लगे हुए हैं पर धर्म, आध्यात्म, संस्कृति एवं सार्वजनिक उत्कर्ष की परमार्थ भावनायें जिनमें हों ऐसे व्यक्ति ढूँढ़े नहीं मिल रहे हैं।

जिस प्रकार आचार्य जी अपने साथी ढूँढ़ने में निराश आँखों से चारों ओर ताकते हैं उस प्रकार प्राचीन काल में ऋषियों को नहीं ताकना पड़ता था। याचना पर अनेक प्राणवानों के प्राण उन्हें मिल जाते थे पर आज कौन इतना त्याग करेगा? इस निराशा पर मुझे अतीव खेद हुआ और आन्तरिक चोट लगी। भीतर से पुकार उठी ऐसे उपयोग कार्य के लिए क्या तू अपना जीवन नहीं दे सकता? कुछ देर सोचने पर यही उत्तर अन्तरात्मा ने दिया-अवश्य ही ऐसे पुनीत कार्य के लिए एक क्षण भंगुर शरीर को दिया जा सकता है। काल के गाल में क्रीड़ा करने वाले हम गूलर फल के कीड़े यदि ऐसे पुनीत कार्य में अपना जीवन लगा दें तो यह त्याग नहीं सौभाग्य ही है। यह हमारा दान नहीं वरन् जीवन को धन्य बनाने वाला दैवी वरदान ही है। कई दिन अनेक दृष्टियों से विचार करने के पश्चात् मैंने निश्चय कर लिया कि मैं अपने का इस नरमेध के लिए पेश कर दूँ। अपने संकल्प की सूचना आचार्य जी को दे दी और अपनी मानसिक स्थिति की परीक्षा देने के लिए अब मैं गायत्री तपोभूमि में ही एकनिष्ठ भाव से निवास कर रहा हूँ।

प्राचीन परम्पराओं का लोप न होने देने के लिए मुझे अपना जीवन देना ही चाहिए लोग अपना सर्वस्व परमार्थ के लिए दान करते रहे हैं। ऐसे असंख्य उदाहरण प्राचीन काल से उपलब्ध हैं। इस परम्परा को समाप्त न होने देना हमारा कर्त्तव्य है। मैं सत्य और कर्त्तव्य की रस्सियों से बंधा हुआ -इन्हीं के खिंचाव से खिंचता हुआ पशु अपने को मानता रहा हूँ। यज्ञ पशु बनने में मुझे और सोच विचार नहीं करना है। माता गायत्री और पिता यज्ञ से निर्मित इस शरीर और मन को दे डालने का संकल्प लेकर वस्तुतः आज मैं अपने भीतर एक प्रसन्नता भरा आत्मसंतोष अनुभव करता हूँ। और प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कब यज्ञ भगवान के सम्मुख इस नश्वर शरीर को शास्त्रोक्त रीति से समर्पण करके कब अपने को धन्य मानूँगा। पर अपने दाएं, बाँये ओर देखता हूँ कि और कोई मेरे साथी न बनेंगे? क्या अकेला मैं ही? नहीं भीतर से कोई कहता है मेरी जैसी अन्तरात्मा औरों में भी होगी और ऐसा नहीं हो सकता कि किसी और का कदम इस मार्ग पर न बढ़े। और भी लोग आगे आवेंगे और गायत्री माता तथा यज्ञ पिता की विजय ध्वजा फहराने के लिए एक प्रभावशाली टुकड़ी प्रस्तुत होगी कार्य की महत्ता और लक्ष्य की उपयोगिता को देखते हुए औरों की अन्तरात्माएं भी ऐसी भी प्रेरणा तथा पुकार करेंगी और निकट भविष्य ही बता देगा कि वीर विहीन मही अभी नहीं हुई है।


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