शिक्षण शिविर की सफलता

August 1954

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(श्री सत्यदेव शर्मा)

सरस्वती यज्ञ और साँस्कृतिक शिक्षण शिविर की योजना यद्यपि छोटी सी ही थी पर उसके परिणाम अतीव महत्वपूर्ण और आशाजनक हुए हैं। जो छात्र यहाँ इन थोड़े समय के कार्यक्रम में शिक्षा प्राप्त करके गये हैं। उन्होंने अपने ऊपर पड़े हुए प्रभाव की जो अभिव्यक्तियाँ लिखी हैं उनसे प्रतीत होता है कि कोई भी छात्र ऐसा नहीं गया है कि जिस पर व्यक्तिगत रूप से इस वातावरण की गहरी छाप न पड़ी हो और जिसकी विचारधारा एवं कार्यक्रम में असाधारण परिवर्तन न हुआ हो।

जलालपुर न्योरी निवासी श्री लक्ष्मीनारायण निगम ने लिखा है “मैंने अपने जीवन में से क्रोध को हटाने और मिटाने का निश्चय कर लिया अब कभी किसी घटना या व्यक्ति पर क्रोध आता है तब कुछ समय सद्बुद्धि रूप गायत्री माता का ध्यान करता हूँ। ऐसा करने से क्रोध का उबाल हट जाता है फिर शान्त चित से उस क्रोध देने वाली घटना की तह तक जाकर उसके रुधार का प्रयत्न करता हूँ। इस प्रकार व्यक्तियों पर क्रोध करके उन्हें शत्रु बनाने की अपेक्षा, समुचित प्रयत्न से उन्हें सुधारने तथा अनुकूल बनाने में सफल हो जाता हूँ। तीन चार योगासन भी नित्य-करने लगा हूँ। इससे स्वास्थ्य में सुधार दिख पड़ता है। स्वादेन्द्रिय पर काबू करना शुरू कर दिया है अब मैं स्वाद की दृष्टि से नहीं उपयोगिता की दृष्टि से ही भोजन करता हूँ। माता पिता तथा गुरुजनों का नित्य प्रातःकाल चरण स्पर्श करना अब मेरा नित्यकर्म बन गया है।

पाली इटावा के श्री प्रेम चन्द्र जी लिखते हैं-आपके शिविर से शिक्षण प्राप्त करके घर आने के बाद मुझ में बहुत परिवर्तन हो गया है। पहले मैं बड़ा क्रोधी तथा अनेक त्रुटियों का भण्डार था पर आपके पास थोड़े ही दिन रहकर खराद पर चढ़ी हुई वस्तु की तरह स्वच्छ हो गया हूँ। अब मैं प्रातः 4 बजे उठकर स्नानादि से निवृत्त होता हूँ और संध्या गायत्री जप करके तब कुछ कार्य करता हूँ। माता पिता के नित्य चरण स्पर्श करना भी अब मेरा नित्य नियम बन गया है। मीठा बोलना और अपनी कार्य शक्ति को बढ़ाना अब ये दो मेरे प्रधान कार्यक्रम हैं।

खेराबाद (सीतापुर) से श्री शुभकार नाथ कपूर लिखते हैं-”जितनी व्यवहारिक शिक्षा मैंने शिक्षण शिविर में प्राप्त की इतनी अब तक विश्व विद्यालय की बी.ए. की पढ़ाई में प्राप्त नहीं कर सका था। मेरे तीन अवगुण तो स्पष्टतः दूर हो गये हैं- (1) मैं बहुत बोलता था पर अब केवल उतना ही बोलता हूँ जितना उपयोगी तथा आवश्यक होता है। (2) हर काम में मुझे बड़ी उतावली होती हैं, जो इच्छा जिस समय उठती उसे जल्द से जल्द पूरा करने का प्रयत्न करता पर अब मैं हर बात पर विचार करना- ठहरना, सोचना, उसके हानि लाभ तथा दूरवर्ती परिणामों पर विचार करके तब उस इच्छा को चरितार्थ करने न करने का अभ्यास डाला है। (3) मेरा स्वास्थ्य बिगड़ रहा था, उसकी ओर समुचित ध्यान भी न देता था अब अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर ही आहार विहार की व्यवस्था करता हूँ और भी छोटे-मोटे परिवर्तन मैंने अपने में किये हैं, जिनके आधार पर विश्वास होता है कि मेरे व्यक्तित्व का भविष्य में अच्छा विकास हो सकता है।

पारादान, फतेहपुर के श्री शान्ति स्वरूप वर्मा लिखते हैं- सरस्वती यज्ञ के शिक्षण शिविर में जो सज्जन आये हुए थे उनमें कठोर अनुशासन, आपसी प्रेम भावना सब काम अपने हाथ से करने का स्वावलम्बन शारीरिक परिश्रम करने में आनन्द एवं उत्साह छोटी-छोटी बातों की भी अपेक्षा न करना बड़ों का आदर सादगी आदि का जो प्रत्यक्ष वातावरण देखा उसका मेरे ऊपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन सद्गुणों ने मेरे हृदय में अपना स्थान जमा लिया। इन्हें कार्य रूप में परिणित करने और व्यवहारिक जीवन में उतारने के लिए मैं नित्य ही प्रयत्न करता हूँ। धीरे-धीरे ये गुण मेरे आचरण और व्यवहार में प्रकट होते जाते हैं। आशा यह है कि जो कुछ सीखा है उसे मन वचन और कर्म में उतार सकूँगा।

पीपलमण्डी आगरा के श्री महेशचन्द्र माथुर लिखते हैं-”इस शिविर में मैंने वे अमूल्य वस्तुएं प्राप्त की हैं उन बातों का अनुभव किया है जो मेरे लिए स्वप्न में दुर्लभ थीं। यदि ऐसी शिक्षा का अवसर सभी को मिले तो मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि संसार की स्थिति ही बदल सकती है। वहाँ की शिक्षा का ही नहीं वातावरण का भी मेरे ऊपर भारी प्रभाव पड़ा है। यहाँ से आने के बाद मैंने नित्य संध्या करने और गायत्री जप का नियम बना लिया है। अपने आपको हीनता की भावना से मुक्त कर रहा हूँ और आत्मिक महानता को पहचानने तथा आत्मबल बढ़ाने में संलग्न हूँ। भोजन की पवित्रता तथा उपयोगिता पर बारीकी से विचार करके तब उसे ग्रहण करने की आदत पड़ रही है। चार बजे जल्दी सोकर उठने लगा हूँ। अब मैं घर के बड़ों के चरणस्पर्श करके प्रणाम करता हूँ, जिसका करना मेरे लिए पहले एक लज्जा एवं संकोच की बात प्रतीत होने के कारण दुर्लभ ही था। इस शिविर से हमें जो शिक्षायें एवं प्रेरणायें मिली हैं वे इतनी अमूल्य हैं कि कीमती रत्नों से भी उनकी तुलना नहीं हो सकती है।

धौलपुर से श्री प्रकाश मोहन कौशिक लिखते हैं- शिक्षण शिविर का कार्यक्रम बहुत ही सुन्दर था, जिसको विद्वानों ने निर्मित किया था। वहाँ के वातावरण में रहकर मेरे मन एवं शरीर में बहुत परिवर्तन हुए हैं। कुछ दिनों में मेरी बुद्धि मार्क्सवाद के प्रभाव से नास्तिकता की महत्ता को स्वीकार करने लगी थी और ईश्वर के अस्तित्व पर से मेरा विश्वास हटता जा रहा था। प्राचीन भारतीय संस्कृति की प्रत्येक वस्तु मेरी विचारधारा में केवल अन्धविश्वास और पाखण्ड मात्र रह गई थी। किन्तु पूर्व सुसंस्कारों ने सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया और तपोभूमि में आने का अवसर प्राप्त करके मुझे आस्तिकता के पक्ष में ठोस तर्क, प्रभाव, कारण तथा तथ्य प्राप्त हुए, जिनके होने की मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। यदि आस्तिकता की उपयोगिता को ऐसे ही तर्क और तथ्यों समेत उपस्थित किया जाय जैसा कि इस शिविर में किया गया तो संसार में से नास्तिकता का खतरा दूर हो सकता है। अब मैं अपने जीवन को भारतीय संस्कृति के आधार पर ढालने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

चंदवाड़ होशंगाबाद के श्री गौरी शंकर द्विवेदी लिखते हैं- शिक्षण शिविर में मैं भी गया था। तपोभूमि के वातावरण का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं उसे जीवन भर छोड़ना न चाहता था, परिस्थितियों वश घर लौटना पड़ा पर मेरा मन अब भी वहीं है और सोचता हूँ कि प्रतिवर्ष इस वातावरण में कुछ दिन रहने का सुयोग मिल जाया करे तो कितना उत्तम हो। आगे के लिए मैं ऐसा ही कार्यक्रम बनाने भी वाला हूँ। इन थोड़े से दिनों में जो पढ़ा गया वह इतना अधिक था यदि कोई निरन्तर केवल पढ़े ही तो छः महीने में भी इतना पढ़ नहीं सकता, कम से कम समय में अधिक से अधिक जानकारी देना यहाँ की शिक्षा की एक मौलिक विशेषता थी।

तपोभूमि के पवित्र वातावरण में रहने से वहाँ के अमृतोपम जलवायु सेवन से मेरा स्वास्थ्य निखर आया। पाचन शक्ति इतनी तीव्र हो उठी कि भोजन के समय से बहुत पहले ही कड़ाके की भूख लगती है ऐसा उससे पहले कभी सम्भव न हुआ था। वहाँ से आने के साथ मैं सुविस्तृत विचारों का कार्यक्रम साथ लेकर लौटा हूँ और उसे इस क्षेत्र में विचरण करने जा रहा हूँ। घर रहता हूँ। पर बहुधा रात को गायत्री तपोभूमि स्वप्नों में दिखा करती है।

पानीपत से श्री रामलाला जी लिखते हैं- शिक्षण शिविर में आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से मैं गया था, जो मुझे भली प्रकार प्राप्त हुई। दुर्वासनाओं को हटाने का प्रत्यक्ष लाभ अध्यात्म ज्ञान में है वह जिसे प्राप्त हो जाता है वह कठिनाइयों में भी हंसते रहने की आन्तरिक दृढ़ता प्राप्त कर लेता है। यहाँ की शिक्षा में ऐसे ही उपदेशों की प्रधानता थी। जैसे बर्तन पर कलई करने वाला बर्तन को रगड़ कर उसका मैल छुड़ाता और उसे कलई करके चमकाता है। वैसे ही मेरे मन और अन्तःकरण के मैल और विकार दूर होकर दैवी गुणों और ज्ञान रूपी कलई से मेरा हृदय ऐसा चमका दिया है। मानो मेरी दुनिया ही बदल गई हो। मुझे मनोवाँछित शान्ति प्राप्त हुई है। मैं तो अपने को ऐसा कृत्य-कृत्य मानता हूँ कि यदि अपने प्राणों की भेंट भी दे दूँ तो भी उस उपकार से कभी उऋण न हो सकूँगा।

मेरे घर में बहुधा पारिवारिक कलह बना रहता था, जिसके कारण धर्मपत्नी बहुधा बड़ी क्रुद्ध असन्तुष्ट और चिन्ताग्रस्त रहती थी। अब मथुरा से शिक्षा ग्रहण करके वापिस आने के बाद मैंने ऐसी योजना तथा व्यवस्था बनाई है जिस पर सबको चलना पड़ता है। तदनुसार सभी प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं। धर्मपत्नी अक्सर कहती रहती हैं कि “अच्छा हुआ जो आप मथुरा चले गये जिससे हमारा जीवन आनन्दमय बन गया। मथुरा से आने के बाद मैंने अपने जीवन क्रम में कुछ सुधार और संकल्प किये हैं। आशा है कि प्रभु उन्हें सफल बनाने में सहायता करेगा।

धौलपुर से श्री जगदीश चन्द मिश्र लिखते हैं- तपोभूमि में जितनी तथा जैसी शिक्षा की आशा करता था वास्तव में उससे कहीं अधिक उच्चकोटि की शिक्षा मुझे मिली। मनुष्य के चरित्र का निर्माण करने के लिए जिन बातों की आवश्यकता है उन सबका आयोजन किया गया था। समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग किया जाता था और बताया जाता है कि समय ही जीवन है। समय का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही जीवन को सफल बनाने की कला है। उन थोड़े दिनों में समय के महत्व को मैंने समझा और जरा सा भी समय व्यर्थ बर्बाद न हो उसका ध्यान रखता हूँ। अनेक बातों में मेरा चरित्र बन रहा है। मानसिक लाभ के साथ-साथ शारीरिक लाभ भी हो रहा है। पहले मैं सुस्त रहता था, श्रम से बचता था आलस्य भी करता था पर अब यह बात नहीं रही। व्यायाम रोज करने लगा हूँ। मधुर व्यवहार करना, मीठा बोलना, हिलमिल कर चलना, मिल बाँट कर खाना ऐसे ऐसे गुण मुझ में नये सिरे से पैदा हो रहे हैं। जो भावनाएं मथुरा से लेकर लौटा हूँ वे यदि कार्य रूप में आ गईं तो निश्चय ही हमारे भाग्य का एक नवीन पथ प्रशस्त हो सकता है।

डबरा (ग्वालियर) से श्री जमुना प्रसाद बड़ौरिया लिखते हैं- शिक्षण शिविर में केवल 11 दिन मैं रहा पर इतनी छोटी अवधि में ही बहुत कुछ प्राप्त किया। ऐसी कोई शिक्षा बाकी नहीं रही जो जीवन का उत्तम निर्माण करने में सहायक होती है। जो कुछ 11 दिन में भी उतना नहीं सीख सकते। भाषण अनेक जगह सुने हैं पर यहाँ के प्रवचनों में यह विशेषता थी कि वे तीर की तरह हृदय के भीतर कौने तक घुस जाते थे और अपना प्रभाव स्थायी रूप से छोड़ते थे। ऐसे उत्तम आयोजन में सम्मिलित होकर मैं अपने को धन्य मानता हूँ। मेरे ऊपर भी अन्य छात्रों की भाँति बड़ा उपयोगी प्रभाव इस शिक्षा का पड़ा है।

फतेहपुर जिला के पारादान निवासी श्री रामशंकर वर्मा लिखते हैं- तपोभूमि में शिक्षा पाकर आने के बाद मेरा जीवन क्रम ही बदल गया है। वहाँ के सत्संग में मुझे जो लाभ प्राप्त हुआ है उसे मैं कभी भी भूल नहीं सकता वास्तव में जीवन को उत्तम प्रकार से जीने के लिए ऐसी ही शिक्षा की आवश्यकता है, मुझ में जो भी बुरी आदतें थीं वे इसी शिक्षा के प्रभाव से जाती रहीं। पहले मेरा जीवनक्रम बहुत ही अव्यवस्थित था। दिन के 8 बजे सोकर उठना 10 बजे तक टट्टी जाना, नाश्ता करना फिर बिस्तर बिछाकर सो जाना। दोपहर को दो बजे उठना फिर स्नान करके भोजन करना, तमाखू खाना, एक दो घण्टे आराम करना, शाम को थोड़ा घूमने जाना, खाना खा पीकर सो जाना। घर का कोई आदमी काम धन्धा करने के लिए कहे तो उससे लड़ने को तैयार रहना यही मेरा दैनिक कार्यक्रम था। प्रायः बिल्कुल ही निट्ठला रह कर जीवन नष्ट कर रहा था। पूर्वजों की जायदाद और घर वालों के प्रयत्न से रोटी चैन से मिल जाती थी। फिर मैं कोई काम करता भी क्यों? पर अब यह क्रम बदल गया है। समय पर पूरा उपयोग करने का कार्यक्रम बना लिया है, जिसके कारण घर भर मुझ से प्रसन्न रहते हैं, पहले जो लोग निन्दा किया करते थे अब प्रशंसक बनते जा रहे हैं।

खण्डवा सी.पी. से श्री माँगीलाला जुगनाला केसनिया लिखते हैं- सरस्वती यज्ञ में मैंने आदि से अन्त तक भाग लिया वहाँ की कार्य पद्धति एवं कार्यक्रम देख कर अतीत काल का गुरुकुल प्रतीत होता था। इस शिक्षा सत्र के दिनों मथुरा रह कर जो अनुभव मैंने प्राप्त किये हैं भुलाए नहीं भूलते। बार-बार वे स्वर्गीय दृश्य हमारे आँखों के आगे घूमते रहते हैं। मेरे ऊपर इस शिक्षा का बहुत भारी प्रभाव पड़ा है। मेरा भोजन अब सात्विक होता है। चाय, पान, बीड़ी, तमाखू आदि व्यसन जो बहुत समय से लगे हुए थे अब बिल्कुल छूट गये हैं। प्रतिदिन के कार्यक्रम में उद्देश्यों तथा आदर्शों के पालन का बड़ी सावधानी से ध्यान रखता हूँ।

राँक गतौरा से श्री रमाशंकर गुर्दवान लिखते हैं- मैं अपने को अत्यधिक भाग्यवान समझता हूँ कि मैं साँस्कृतिक शिक्षा सत्र में शामिल हुआ। मैं जन्मजात चाय का आदी था सुबह बिना चाय के मुझे पाखाना नहीं होता था। मथुरा में मुझे न चाय की जरूरत पड़ी न किसी और चीज की। पान का तो मैं पूर्ण आदी था पर मैंने वहीं से पान न खाने का संकल्प किया। मैं अक्सर भाँग पिया करता था पर अब मैंने वह भी बिल्कुल त्याग दी है। मथुरा से घर लौटा तो शरीर का वजन कई पौण्ड बढ़ा और स्वास्थ्य सुधरा। मानसिक और आत्मिक दृष्टि से जो परिवर्तन मेरे में हुए हैं वे ऐसे हैं जिनकी कल्पना तक करना मेरे लिए कठिन था। घर आने पर मुझ में अनेक परिवर्तन हो चुके है तथा धीरे-धीरे और भी होते जा रहे हैं।

मथुरा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का वायस चेयरमैन, अनेक शिक्षा संस्थानों का जन्मदाता तथा जीवन भर सार्वजनिक सेवाओं में लगाने वाली तपस्विनी द्रोपदी देवी शर्मा के हाथों में शिक्षण शिविर में भोजन का प्रबन्ध था। जो उन्होंने बड़े ही सुचारु रूप से पूर्ण किया। वे शिक्षण शिविर में भी सम्मिलित रहीं। लिखती हैं कि श्री गायत्री तपोभूमि द्वारा आयोजित जीवन निर्माण की व्यवहारिक शिक्षा देने वाले शिविर में आदि से अन्त तक मैं सम्मिलित रही। इससे मेरे हृदय की चिर पिपासा तृप्त हुई। आज जबकि संसार का नैतिक स्तर गिर कर रसातल की ओर जा रहा है तब ऐसे ही ऋषियों के आश्रमों द्वारा भटकते समाज, डूबते राष्ट्र, डगमगाते विश्व के उद्धार की आशा की जा सकती है। भौतिक उन्नतियों के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति की भी अतीव आवश्यकता है। इस आवश्यकता को पूरी करने से ही सच्ची उन्नति सम्भव है। जैसा आयोजन यह हुआ था वैसे ही शिविरों की आज प्रत्येक स्थान पर करने की नितान्त आवश्यकता है। पूज्य आचार्य जी की सद्भावनाओं और सत्प्रयत्नों को धन्यवाद करते हुए मैं यही आशा करती हूँ कि वे ऐसे शिविरों द्वारा राष्ट्र निर्माण की एक महती आवश्यकता को पूर्ण करने में अपने प्रभाव का उपयोग करेंगे।

श्री जगदीश प्रसाद भारती बी. ए. लिखते हैं- इस शिविर में रहकर मुझे अनिर्वचनीय मानसिक आनन्द की उपलब्धि हुई। मस्तिष्क में नये विचार आये और पुराने विचारों का परिष्कार हुआ। घोर तमाच्छादित जीवन पथ पर आलोक छा गया। संकीर्णता को त्यागने और सद्गुणों को अभ्यास में लाने के लिए यह हृदय उन्मुख हुआ है। जो शिक्षाएं यहाँ प्राप्त हुई उनकी मेरे मन पर स्थायी छाप लगी है। अब मैं अपने उपकारों एवं सद्व्यवहारों के लिए किसी से कृतज्ञता एवं प्रत्युपकार की आशा न रखकर कर्त्तव्य पालन की दृष्टि ही प्रत्येक कार्य में रखता हूँ फलस्वरूप पहले मुझे जो अपने मित्रों या स्वजनों से खिन्नता रहती थी। वह अब नहीं रहती। सरलता और सादगी के महत्व का समझकर अपने भोजन और वस्त्रों में मैंने बहुत हेरफेर किये हैं। निराशा और चिन्ता छोड़कर अब मैं उत्तम भविष्य बनाने की योजनाएं प्रस्तुत करने में संलग्न रहता हूँ। ऐसा लगता है मानो विचारों की दिशा ही पलट गई हो। प्रातःकाल उठकर माता-पिता के चरण स्पर्श करने चाहिए। इन उपदेशों को मैंने कार्य रूप में परिणित कर दिया है। इससे मुझे अपने ऊपर उनके आशीर्वाद की पुण्य वर्षा होती दिखती है।

श्री सुभाष चन्द्र माथुर लिखते हैं- मैं विद्यार्थी हूँ। स्कूली शिक्षा प्राप्त कर रहा हूँ। जून की छुट्टियों में शिक्षण शिविर का लाभ लिया। अनेक उपदेश वहाँ सुने। उनमें से एक उपदेश मैंने गिरह बाँध लिया है और वह है ब्रह्मचर्य। विद्यार्थी के लिए तो इसे जीवन प्राण ही बताया गया है। स्वास्थ्य, शिक्षा, चरित्र, दीर्घजीवन तथा आत्म कल्याण के लिए ब्रह्मचर्य प्रथम सोपान है। पर खेद है कि आज के दूषित वातावरण का प्रभाव विद्यार्थियों को इस मार्ग से विचलित कर देता है और को विचार जीवन भर दुख भोगते है। शिक्षण शिविर में मैंने ब्रह्मचर्य के लाभ को भली प्रकार समझ लिया है और इस कर्त्तव्य को निष्ठापूर्वक पालन करते रहने का व्रत लिया है।

इसी प्रकार के पत्र प्रायः उन सभी महानुभावों के आये हैं जो इस शिविर में सम्मिलित हुए थे। आमतौर से लोग अपनी वाचालता की छाप दूसरों पर जमाने के लिए भाषण देते हैं और मनोरंजन तथा कौतुहल के लिए लोग उन्हें सुनते हैं। यदि वही बात यहाँ भी रही होती तो निश्चय ही अन्य मनोरंजक आयोजनों की भाँति वह भी एक समय काटने का उपकरण बन जाता। पर वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं। इस सत्र में सम्मिलित होने वाला हर व्यक्ति अपने मन में उथल-पुथल लेकर गया है और जो कुछ उसने सुना समझा है, देख पाया है उसे कार्य रूप में लाने के लिए ईमानदारी के साथ संलग्न है। उस व्यक्ति का मनोबल वातावरण संस्कार, अवसर आदि किस दिशा में उपलब्ध होते हैं। इन बातों के ऊपर यह निर्भर है कि वह इन शिक्षाओं से कितना लाभ उठा सकेगा।

ब्रह्मचर्य, सदाचार तथा नर−नारी के बीच पवित्रतम रखने के सम्बन्ध में यह शिक्षा बहुत ही उपयुक्त पथ प्रदर्शन करती हैं।

सिरसा से श्रीमती प्रेमवती देवी लिखती हैं- स्त्रियों के लिए साँस्कृतिक शिक्षण शिविर में व्यवस्था नहीं रखी गई थी फिर भी मुझे सौभाग्यवश उसमें सम्मिलित होने का अवसर मिल गया। जो शिक्षाएं यहाँ सुनीं उनमें नर और नारी के बीच पवित्र सम्बन्ध रहने पर बहुत अधिक जोर दिया जाता रहा। अवैध वासना की हानियों का जो दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता रहा यदि उस पर लोग ध्यान देने लगें तो निःसंदेह प्राचीन काल की तरह फिर भी सुदृढ़ ब्रह्मचर्य जीवन का आधार बन सकता है। नारी में माता की भावना की स्थापना गायत्री आन्दोलन का प्रमुख सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के कार्य रूप में परिणित होने पर निःसंदेह पृथ्वी पर आज ही सतयुग का अवतरण हो सकता है। जो कुछ मैंने इस शिविर में सीखा उससे आत्मा के भीतर एक बड़ी तृप्ति अनुभव होती है। क्या-क्या सीखा यह शब्दों में कहने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है।

मिश्रित रूप से गुरुकुल प्रणाली की साँस्कृतिक शिक्षा पद्धति अतीव उपयोगी हो सकती है। प्रथम परीक्षण जिस सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ उससे भविष्य की बहुत आशा बंधती है। इस शिविर की सफलता के कुछ कारण यह हैं (1) विद्यार्थियों को केवल पढ़ने लिखने तक ही शिक्षकों का सम्बन्ध न रह कर उनके पूरे दैनिक कार्यक्रम पर अध्यापकों का नियन्त्रण रहना (2) शिक्षा योजना में धार्मिक वातावरण परिपूर्ण रखना, प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को वर्तमान समय के अनुकूल सुधारे हुए रूप में प्रयुक्त करना (3) शिक्षकों का अत्यन्त चरित्रवान निस्पृह, त्यागी तथा ऐसे आदर्शवान् होना जिसके व्यक्तित्व की छाप शिक्षार्थियों के अन्तःकरण पर स्वतः ही पड़े और वे उनके प्रति गहरी श्रद्धा रखने को स्वयं ही विवश हों (4) जो कुछ शिक्षा दी जाय वह धार्मिक आधार पर तो दी जाय पर तर्क, प्रमाण, उदाहरण, कारण, परिणाम आदि का बुद्धि मंगल विवेचन करते हुए इस प्रकार समझाया जाय जिससे शिक्षार्थी उचित निष्कर्ष पर स्वयं ही पहुँचें और स्वयं ही यह निर्णय करें कि मेरे लिए किस मार्ग पर चलना कितना लाभदायक तथा हानिकारक है। (5) शिक्षा या परीक्षा आदि की कोई फीस तो ली नहीं जाय। केवल भोजन का भार ही शिक्षार्थियों पर रहे। (6) कुछ आध्यात्मिक विशेष उपचार भी ऐसे अवसरों पर किये जाएं जो शिक्षालय के वातावरण को सूक्ष्म रूप से प्रभावशाली बनावे तथा शिक्षा ऐसे स्थानों पर हो जो स्वयं ऐसे प्रभाव से परिपूर्ण हो। जैसा कि साँस्कृतिक शिक्षण शिविर के अवसर पर “सरस्वती यज्ञ” का आयोजन साथ-साथ चलता रहा। यज्ञ और वेद मंत्रों में, आध्यात्मिक विशिष्ट उपचारों में वह शक्ति सन्निहित होती है। जिसके प्रभाव से वहाँ रहने वालों की मानसिक स्थिति में स्वयमेव अनुकूल परिवर्तन होने लगे। गायत्री तपोभूमि के स्थान को भी विशेष संस्कारों के साथ ऐसा ही प्रभावशाली बनाने का प्रयास निरन्तर चल रहा है। जहाँ भी ऐसी शिक्षा हो वहाँ इस प्रकार के वातावरण बनाने का ध्यान रखा जाय।

उपरोक्त आधार पर शिक्षा देने का यह प्रथम प्रयास सफल समझा जा सकता है और आशा की जा सकती है कि इस प्रकार दी गई शिक्षा छात्रों की मनोभूमि में महत्वपूर्ण परिवर्तन करके व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक सुख शान्ति का ठोस आधार बन सकती है। विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ देने वाली शिक्षा का प्रसार सर्वत्र बहुत बढ़ रहा है। मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने की उपेक्षित शिक्षा का यह आरम्भ एक नया प्रकाश पैदा करे, ऐसी माता से प्रार्थना है।


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