एक सफल प्रयोग

August 1954

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(डॉ. परशुराम शर्मा, फीरोजपुर)

मेरी आयु 82 वर्ष के लगभग है। जब से होश सम्भाला है, मनुष्य समाज की गतिविधियों को देखने और समझने में विशेष दिलचस्पी लेता रहा हूँ। मेरे देखते-देखते पैसा और चतुरता की दृष्टि से मनुष्य समाज ने आश्चर्यजनक उन्नति की है। सुख सामग्रियाँ बहुत बढ़ी है, विज्ञान की उन्नति ने तो जीवन क्रम को ही बदल दिया है, वाचालता और तर्क शक्ति खूब बढ़ी है, प्रचार साधनों के बढ़ जाने से अपने विचार असंख्य लोगों तक पहुँचा देना सुगम हो गया है। इस उन्नति के साथ-साथ मनुष्य का नैतिक स्तर बेहिसाब गिरा है, उनकी भावनाएं निकृष्ट कोटि की हो गई है, लक्ष्य और उद्देश्य तो इतने नीचे हो गये है। जिनके लिए पशु को भी लज्जित होना चाहिए। इसका परिणाम वही हो रहा है कि अनेक बीमारियों, परेशानियों, चिन्ताओं तथा क्लेशों से वह दिन दिन अधिक ग्रस्त होता चला जा रहा है।

जब इस अधः पतन के असंख्य उदाहरण अपने चारों ओर देखता हूँ तो मेरी आँतरिक वेदना उमड़ पड़ती है, हृदय दुख से भर जाता है। दूसरे पूर्वजों के पास आज जितने साधन न थे पर वे अपनी उत्तम बौद्धिक स्तर के कारण स्वयं ही आनन्द का अनुभव नहीं करते थे वरन् अपने निकटवर्ती दूसरे लोगों को भी चिन्ताओं और क्लेशों से छुड़ा कर आनन्दित बनाने का महान उपकार करते थे, उन्हीं शिक्षाओं आदर्शों एवं विचार धाराओं के कारण उन्हें जगद्गुरु माना जाता था। आज ज्ञान और विज्ञान के नाम पर बहुत कुछ पढ़ा और पढ़ाया जाता है, सुना और सुनाया जाता है पर उससे सुख सामग्रियाँ तो बढ़ती है पर सुख की अनुभूति में रत्ती भर भी वृद्धि नहीं होती। आज तो जो जितना ज्यादा बुद्धिमान माना जाता है वह दूसरों को भ्रमग्रस्त पीड़ित और परेशान करने में उतना ही अधिक लगा होता है।

मानव अंतःकरण की इस अवनति से दुखी होकर उसे और अधिक गिरने से रोकने तथा यथासम्भव ऊपर उठने की कामना से मैं अपनी तुच्छ सामर्थ्य के अनुसार पूरा प्रयत्न करता रहा हूँ। महात्मा गाँधी के पवित्र चरणों में कई महीने रहने का सौभाग्य प्राप्त करके तथा महामना मालवीय जी के सान्निध्य में लम्बे अर्से तक कार्य करने से मेरे यह भाव दिन दिन दृढ़ होते गए हैं कि मनुष्य का नैतिक उत्कर्ष जब तक नहीं होगा, उसके रहन सहन खान-पान भाव विचार लक्ष्य उद्देश्य तथा करने और कमाने के तरीके जब तक ठीक न होंगे तब तक सुख सामग्रियों का पहाड़ भी उसके लिए उपयोगी सिद्ध न होगा। जीवनयापन की आन्तरिक मान्यताएं और बाह्य पद्धतियाँ ही वह मर्मस्थल है। जिनका सुधार या बिगाड़ होना संसार के भविष्य को बनाता और बिगाड़ता है। इन्हीं तथ्यों को जनता को जताने के लिए मैंने भारतवर्ष के विभिन्न भागों में तथा विदेशों में यथा संभव कार्य किया है, और इसी प्रयत्न में अनेक सत्पुरुषों का परिचय प्रेम तथा सहयोग प्राप्त करने का अवसर मिला है।

इसी दौरान में जब मैं बम्बई था तब एक सज्जन के यहाँ अखण्ड-ज्योति कार्यालय की कुछ पुस्तकें देखीं। उन्हें पढ़ा। पढ़ने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरी ही जैसी भावना और वेदना इन पुस्तकों के लेखक की भी है। मुझे अपने हृदय की ही बातें इन पुस्तकों में अभिव्यक्त मिलीं। पर आज के इस बनावटी युग में वास्तविकता का पता लगाना बहुत कठिन होता है। इसलिए मैं उन पुस्तकों के लेखक श्री आचार्य जी से मिलने मथुरा पहुँचा। जो कुछ प्रयत्न मैंने वहाँ देखा उनसे मैं असाधारण रूप से प्रभावित हुआ और तब से मेरा लगाव उनसे निरन्तर बढ़ता ही गया है। जो भी लोग मेरे संपर्क में आते हैं उनको अखण्ड-ज्योति तथा वहाँ की विविध पुस्तकें पढ़ने के लिए बलपूर्वक प्रेरणा करता रहा और मैं देखता हूँ कि उनसे, उन लोगों को वस्तुतः बहुत लाभ पहुँचता है, इससे मेरे मन को बड़ा सन्तोष होता है और अधिक लोगों को अधिक बलपूर्वक प्रेरणा करने का उत्साह बढ़ता रहता है।

पिछले मई मास के अंक में जब आचार्य जी ने साँस्कृतिक शिक्षण शिविर की योजना प्रकाशित की तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो मेरी अपनी आन्तरिक भावना तथा योजना को ही कोई चरितार्थ कर रहा हो। ऐसे कार्य में मुझे योग देना ही था। अनेक अड़चनों के रहते हुए भी मैं मथुरा में एक दो दिन पहले ही पहुँच गया था और शिविर पूर्ण होने तक लगभग दो सप्ताह वहाँ रहा। इस प्रारम्भिक प्रयोग को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह परिचय पूर्ण सफल रहा। अनुभव और साधनों का अभाव होते हुए भी कार्य हुआ। वह वस्तु बहुत ठोस और प्रभावशाली था। प्राचीन गुरुकुल पद्धति से लम्बे समय तक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र मिलना तो अब कठिन है पर ऐसे छोटे-छोटे शिविरों की शृंखला देशभर में फैल जाय तो निस्सन्देह बहुत अधिक लोग जीवन निर्माण का वास्तविक ज्ञान सुविधापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं, यह योजना नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए अपने ढंग की अनोखी योजना है।


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