भावना का विकास आवश्यक है।

August 1954

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(श्री अशर्फीलाल मुख्तार, बिजनौर)

बुद्धि की शक्ति से दुनिया परिचित है। उसके चमत्कार भी सबने देखे हैं, बुद्धि बल से विज्ञान का आविष्कार हुआ राजनीति, कूट नीति, चिकित्सा रसायन कला कौशल, युद्ध चातुर्य, कल कारखाने यन्त्र, मशीनें आदि सभी दिशाओं में बुद्धिबल की विजय दुन्दुभी बज रही है। नेता, शासक, न्यायाधीश, लेखक, वकील, डॉक्टर, प्रभृति लोगों को तो बुद्धि जीवनी ही कहते हैं। बुद्धि के बल से ही अपनी जीविका कमाते हैं। जो जितना चतुर है वह उतना ही बड़प्पन तथा ऐश आराम उपलब्ध करता दीखता है।

बुद्धि बल ने लोगों को बहुत चमत्कार दिखाये है। पर उसके ऊपर भावना का आधिपत्य न होने से निरंकुश मदोन्मत हाथों की तरह वह अपने बल को मानव समाज के हित की अपेक्षा अहित में अधिक लगाने की लगी है। मशीनों की वृद्धि ने लाखों करोड़ों मनुष्यों के मुख का ग्रास छीन कर उन्हें भूखों मर जाने के लिए विवश कर दिया है। संगठित पार्टी बन्दी अपने वर्ग के स्वार्थ को ऊपर रखने के लिए कूटनीतिक चतुरता के द्वारा करोड़ों लोगों को प्रचार साधनों की सहायता से भ्रम में डाल देती हैं। लड़ाई के हथियारों तथा आधुनिक बमों ने मनुष्य जाति को पृथ्वी पर से नष्ट कर देने का ही बीड़ा खाया मालूम देता है। छल, ठगी, धूर्तता, चालाकी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि असंख्य अनैतिक कार्यों में बुद्धि की विशेषता ही काम करती दीखती हैं।

बुद्धि एक उत्तम वस्तु है पर वह तभी तक उत्तम है जब तक उस पर भावना का नियन्त्रण रहे। मनुष्य की आत्मा में एक ऐसा दैवी तत्व निवास करता है जो उसे आत्म नियन्त्रण एवं दूसरों के साथ उदार व्यवहार करने के लिए निरन्तर प्रेरित किया करता है। आस्तिकता, धार्मिकता, नैतिकता, संयम, सेवा उदारता पवित्रता कृतज्ञता आदि इसी के लक्षण हैं। यदि वह भावना तत्व मनुष्य में समुचित मात्रा में हो तो वह स्वल्प साधनों से, स्वल्प शिक्षा से, स्वल्प बौद्धिक विकास से भी स्वस्थ, सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं सुख शान्तिमय जीवन-यापन कर सकता है। इसके विपरीत यदि बुद्धि का विकास तो ऊंची चोटी तक पहुँच जाय पर किसी मनुष्य में सद्भावनाएं न ही तो वह नैतिक नियमों के उल्लंघन में तनिक भी संकोच न करेगा और दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी नाना प्रकार की मुसीबतें उत्पन्न कर लेता है।

देखा जाता है कि बुद्धि विकास के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न हो रहे हैं। सरकारी और गैर-सरकारी अनेक प्रकार के शिक्षालय बौद्धिक उन्नति के लिए खुले हुए हैं। लोगों को बुद्धिमान बनाने के लिए जितना चाहिए उससे अधिक प्रयत्न हो रहे हैं पर भावना की सर्वत्र उपेक्षा है। मनुष्य की अन्तरात्मा में छिपी हुई सद्भावना को जागृत, विकसित पुष्ट एवं सक्रिय करने के लिए न सरकारी प्रयत्न हो रहे हैं न गैर-सरकारी। प्राचीन काल में यह कार्य त्यागी तपस्वी, सन्त महात्मा, पुरोहित आचार्य किया करते थे पर खेद की बात यह है कि आज वे लोग भी लोकेषणा, साम्प्रदायिकता, अकर्मण्यता, एकान्तवाद में फंस कर लोक शिक्षा की जन समाज की भावनाएं विकसित करने की जिम्मेदारियों से विमुख हो रहे हैं।

बुद्धि को अत्याधिक महत्व मिलना और भावना की अत्यधिक उपेक्षा देखकर मेरे मन में बड़ी निराशा उपजती थी और सोचा करता था कि यदि संसार का हर कोना-आज के अमेरिका से भी अधिक धनी हो जाय तो भी मानव समाज की सुख शान्ति में रत्ती भर भी वृद्धि न होगी। बड़ी-बड़ी विकास योजनाएं बनना उचित है उनको सफल बनाने में हमें सहयोग भी देना चाहिए पर केवल आर्थिक उन्नति की योजनाएं-भावना विकास पर कार्य उपेक्षित रहे तो मानव जाति के लिए सुख शान्ति का कोई ठोस आधार उपस्थित न करेंगे। जातीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, क्लेश कलह की दावानल ऐसी चिर संचित उन्नतियों को कुछ ही दिनों में भूमिसात् कर सकती है। उन्नति और समृद्धि की स्थिरता की गारण्टी तो केवल सद्भावना की सुस्थिरता के साथ ही हो सकती है।

हमारे देश के साथ ही संसार का सच्चा उत्कर्ष कैसे होगा? इस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है वह है मानवीय भावना की अभिवृद्धि। हमारा देश, जिसकी कि सदा से इस दिशा में नेतृत्व करने की जिम्मेदारी रही है। जो आपको जगद्गुरु कहला रहा है इस दशा में कुछ विशेष प्रयत्न न करना सचमुच ही एक बड़े खेद की बात थी।

जिन लोगों ने आचार्य को बहुत निकट से देखा, समझा और खोजा है उन्हीं मैं में एक मैं भी हूँ। लम्बे अर्से से मेरा उनसे परिचय है, जितना अधिक समय बीतता गया है उतनी ही मेरी श्रद्धा बढ़ती गई है। मैं जानता हूँ कि आचार्य जी असाधारण विद्वान होते हुए भी बुद्धि प्रधान नहीं, भावना प्रधान है। उन्हें भावना की साक्षात् प्रतिमूर्ति ही कहना चाहिए। जब मैंने अखण्ड-ज्योति में शिक्षण शिविर की योजना पढ़ी तो हृदय हर्ष से भर गया। वकालत के व्यस्त कार्यक्रम को छोड़कर मथुरा पहुँचा। और इस महत्वपूर्ण शिविर में सम्मिलित होकर इस भावना प्रसार के शिक्षा परीक्षण में सहयोग देता रहा।

लगभग 50 सुशिक्षित छात्र इस शिविर में शिक्षा प्राप्त करते थे। प्राचीन काल में गुरु कुलों की शिक्षा पद्धति कैसी होती रहेगी इसका एक छोटा सा दृश्य प्रत्यक्ष रूप से आँखों के सामने आ जाता था। आश्रम की सफाई, पौधों की सिंचाई, जल भरना आदि सब काम शिक्षार्थी श्रमदान करके स्वयं अपने हाथों ही करते थे। किसी नौकर की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। सभी छात्रों का भारतीय वेश भूषा में कंधे पर पीले दुपट्टे डाल कर ब्रह्मचारी के रूप में रहना बहुत ही सुन्दर प्रतीत होता था।

सवेरे सब लोग सोकर 4 बजे उठ बैठते थे। शौच, स्नान, श्रमदान आदि से 6 बजे तक निवृत्त हो जाते थे। 6 से 8 बजे तक सरस्वती यज्ञ होता जिसमें छात्रों के बुद्धि विकास के लिए कमलपुष्प, ब्राह्मी, वच, शतावरी, शंखपुष्पी, गोरखमुण्डी आदि बुद्धिपूर्वक सामग्रियों का शास्त्रोक्त विधि से हवन किया जाता। यज्ञ के बाद शिक्षण कार्य आरम्भ होता। आचार्य जी तथा महेन्द्र जी के भाषण नियमित रूप से प्रातःकाल दस बजे तक होते। दस बजे भोजन करने के बाद छात्रगण विश्राम के अतिरिक्त निर्धारित स्वाध्याय करते, डायरी लिखते, बताये हुए विकारों पर नोट तैयार करते जिनको जाँच करके उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण के नम्बर दिये जाते थे। प्रतिदिन के दैनिक व्यवहारों तथा कार्यों पर भी नम्बर दिये जाते थे। इसमें छात्रों को अपने आचरण को अधिक उत्तम बनाने में उत्साहपूर्ण होड़ लगी रहती। उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को शिविर के अन्त में जो प्रमाण पत्र दिया जाने वाला था वह इतना सुन्दर और आकर्षक था इसे छोड़ने के लिए कोई भी तैयार न था, इसलिए शिविर की शिक्षा परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए प्रयत्न करने में छात्रों में प्रतिस्पर्धा सी बनी रहती थी।

शाम को तीन से छः बजे तक फिर शिक्षा क्रम चलता जिसमें शिविर में पधारे हुए विद्वानों के अतिरिक्त मथुरा वृन्दावन के उच्च कोटि के गणमान्य व्यक्तियों के भी भाषण होते। इस प्रकार कुल 43 भाषण हुए जो एक से एक अनुभव पूर्ण एवं सारगर्भित थे। शाम को एक घण्टा लाठी चलाने की शिक्षा दी जाती। शौच स्नान से निवृत्त होकर भोजन होता और प्रार्थना करके रात को 6 बजे तक सब लोग सो जाते। एक दिन मथुरा के और एक दिन वृन्दावन के प्रमुख स्थान देखने के लिए यात्रा का भी आयोजन रखा गया था। भोजन व्यय किसी पर बाधित न था फिर भी अधिक निर्धन छात्रों को छोड़कर शेष सबने अपना भोजन जो लगभग एक रुपया प्रतिदिन के करीब पड़ता था पूरा या आँशिक जमा करा दिया था। जयपुर के दो छात्रों ने अपने खर्च से दूना जमा कराया। खरगोन के एक छात्र ने अपने सहपाठियों को अन्तिम दिन प्रीतिभोज दिया।

बाह्य दृष्टि से कार्यक्रम छोटा ही था। देखने में कोई बहुत बड़ी असाधारण बात वहाँ न थी, पर उसके मूल में जो वस्तु काम कर रही थी वह ऐसी है कि संसार का भाग्य निर्माण उसी के ऊपर टिका हुआ है। मनुष्य का सुख बुद्धि पर नहीं भावना पर निर्भर है। भावना को प्रधानता देना, भावना को आदर मिलना, भावना की रक्षा के लिए तप और त्याग करने को प्रस्तुत रहना यह वह बात है जो मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाती है। सच्ची सम्पत्ति भी भावना ही में है। माल की मस्ती से ख्याल की मस्ती कहीं अधिक वास्तविक है। सच तो यह है कि जो लोग माल पैदा करके मस्ती उठा रहे है। उनमें भी एक प्रकार के ख्याल की ही मस्ती है, अन्यथा वे अपने सोने चाँदी, जर जवाहरात को हर घड़ी सिर पर थोड़े ही लादे फिरते हैं। यदि मनुष्य उच्च विचारों एवं कार्यों के महत्व को समझने और उनके उपलब्ध करने पर माल मस्त की तरह प्रसन्न रहना सीख ले तो हर व्यक्ति कुबेर सा धनी और इन्द्र सा सम्पन्न बन सकता है।

इस शिक्षा आयोजन में सद्भावनाओं को जागृत करना ही प्रधान उद्देश्य था, उसी के आधार पर सारी योजना तथा कार्य पद्धति बनाई गई थी। शिविर में जाने के बाद तो मेरा और भी दृढ़ विश्वास हो गया कि भावना प्रधान शिक्षा से ही मान व अन्तः करण का उत्कर्ष हो सकेगा और उसके लिए आचार्य जी का आयोजन एक सही कदम है। सोचता हूँ कि वकालत के पेशे से छुटकारा पाकर अपना शेष जीवन इसी पुनीत कार्यक्रम को पूर्ण करने में क्यों न लगा दूँ?


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