महत्वपूर्ण शिक्षा

August 1954

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(श्री केशवदेव शर्मा बी.ए. साहित्य रत्न)

आज हमारा समाज पतनोन्मुख हो रहा है, जिसमें आन्तरिक क्लेश होता है पर साथ ही यह विश्वास भी है कि समय-समय पर महान पुरुषों ने अपने व्यक्तित्व से मनुष्य और समाज को पतन के मुख से बचाया है और बचाते रहेंगे। संसार का इतिहास ऐसे महापुरुषों के आदर्शों में भरा पड़ा है। जब-जब मानव जाति अपने पतन की ओर द्रुत गति से बढ़ी है तभी-तभी महापुरुषों का आविर्भाव हुआ और अपने चरित्र की विशेषताओं से उनको शान्ति का मार्ग दिखाया सत पथ पर चलने वाले की प्रेरणा देकर मानव धर्म की समय-समय पर रक्षा की।

इस बात का उल्लेख श्री कृष्ण भगवान ने स्वयं गीता में किया है। कि जब-जब मानव धर्म की हानि होती है तभी मैं पृथ्वी पर आता हूँ। धर्म का सम्बन्ध संस्कृति से विशेष है। धर्म के पतन से देश की संस्कृति भी पतन को प्राप्त हो जाती है। भगवान कृष्ण ने अपने वाक्यों को स्थिर रखने के लिए मथुरा में जन्म लेकर दुष्टों का दमन किया।

ऐसे प्रयत्न समय-समय पर विभिन्न प्रकार से होते रहते हैं। सृष्टि के नैतिक सन्तुलन को ठीक करने के लिए भगवान उस समय की आवश्यकतानुसार अपने वैभव को अवतरित करता है। आज के समय की आवश्यकता इस बात की है कि भारत के नैतिक उत्कर्ष के लिए कुछ ऐसी हस्ती उत्पन्न हो, जो अपने उज्ज्वल चरित्र, विचार और कार्यों से लोगों को अपने अनुकरण के लिए प्रेरणा दे सके। केवल व्याख्यान लेख या प्रचार कार्य से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। अनेक संस्थाओं की ओर से बड़े-बड़े प्रचार समारोह एवं जलसे होते हैं, उनमें धूमधाम, भीड़ भाड़, प्रदर्शन तथा मनोरंजन तो खूब होता है पर उनका जनता पर वैसा प्रभाव नहीं पड़ता जैसा पड़ना चाहिए। कारण यही है कि नैतिक शक्ति से परिपूर्ण उज्ज्वल व्यक्तित्व जब तक सामने न आवेंगे अनुकरण करने योग्य आदर्श सामने न होंगे तब तक कोई विशेष प्रभाव जनता पर न पड़ सकेगा।

सौभाग्य से इस बार मुझे ऐसा अवसर देखने को प्राप्त हुआ है जिसका अनुभव करके ऐसा विश्वास होता है कि भगवान भारतवर्ष के चरित्र को ऊंचा उठाने वाले आदर्श व्यक्तित्व उत्पन्न कर रहे हैं। इस बार मैं साँस्कृतिक शिक्षण शिविर में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सम्मिलित हुआ। यों मैंने अनेक विषयों पर भाषण सुने हैं पर शिक्षण शिविर में जो प्राप्त था वह अब तक अन्यत्र देखने को नहीं मिला। भाषणों की अपेक्षा व्यक्तित्व और चरित्र की इस शिक्षण की विशेषता थी जिसका हम सब पर विशेष रूप से मुझ पर प्रभाव पड़ा।

आचार्य जी त्याग और तप की एक जीवित मूर्ति है। इनका बालकों जैसा स्वभाव, हृदय को मोहित कर लेता है। विद्या, ज्ञान, अनुभव की दृष्टि से ये जितने ऊंचे हैं उससे बहुत ऊंचा इनका चरित्र है। किसी व्यक्ति के बारे में उसके समीपवर्ती लोग अधिक अच्छी तरह जानते हैं। मैं मथुरा में लम्बे अर्से से रहता हूँ। इस नगर के बच्चे-बच्चे में आचार्य जी के प्रति उच्च भावना तथा अपार श्रद्धा है। उसे देखते हुए यह अनुभव सहज ही लगाया जा सकता है कि उनका व्यक्तित्व कितना निर्मल एवं छिद्ररहित है। जो जितना ही निकट से उन्हें देखता है, परखता है वह उतना ही प्रभावित होता है। मैं शिक्षण शिविर के थोड़े से दिनों ही उनके समीप रहा हूँ। पर इसकी छाप तो कलुषित हृदय पर रजत चाँदनी की भाँति पड़ी है। अनेक व्यक्तियों को देखने और परखने को मुझे अवसर मिलते रहे हैं, पर ऐसे निस्वार्थ एवं परोपकारी व्यक्ति मेरी दृष्टि से नहीं गुजरे। उनका व्यक्तित्व ही है जो इस प्रकार की योजनाओं के इस अन्धकार युग में सफल होने की आशा प्रदान करता है।

इस शिविर में मैंने जितना पढ़ा या सुना उसकी अपेक्षा संचालकों एवं अध्यापकों के व्यक्तित्वों को परखने में अधिक समय लगाया, अधिक प्रयत्न किया। सभी एक अच्छे व्यक्तित्व यहाँ मौजूद थे। श्री रामचरण महेन्द्र, श्री अशर्फीलाल जी मुख्तार, श्री परशुराम जी शर्मा, श्री गौर शंकर जी द्विवेदी सभी की अपनी-अपनी विशेषतायें थीं।

प्रो. रामचरण महेन्द्र जी जितनी उच्च शिक्षा प्राप्त है, उतने ही नम्र हैं। अभिमान आपको छू भी नहीं पाया। पहनावा उढ़ाव की सादगी देखते ही बनती है। मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार जो भाषण उन्होंने दिये उन्हें वे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी कड़ाई के साथ पालन करते हैं। यह देखकर हम लोगों को वस्तुतः बड़ी प्रेरणा प्राप्त हुई। अपनी कन्याओं को वे जो पैसे देते हैं, उन्हें फिजूलखर्च न करके जोड़ने की आदत डालने की जो विधि उन्होंने बनाई उससे मैं बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ और उसे अपने घर में भी प्रयोग करने का प्रबंध आरम्भ कर दिया है।

डॉ. परशुराम जी की आयु 82 वर्ष की थी पर वे हम में से अनेकों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ थे। उनका भाषण नहीं शरीर यह बताता था कि यदि संयम तथा प्राकृतिक आधार पर जीवन यापन किया जाय तो मनुष्य अपने स्वास्थ्य की कितनी रक्षा कर सकता है। उनकी और भी कितनी ही विशेषतायें थी।

श्री अशर्फीलाल जी वकील होते हुए भी गम्भीरता की साक्षात मूर्ति हैं। वकालत जैसा व्यवसाय उन्हें दुर्भाग्य से ही मिला है, अन्यथा उनके सभी लक्षण सन्त के हैं। जब मुझे यह बताया गया कि आप शीघ्र ही वकालत छोड़कर गायत्री तपोभूमि की साँस्कृतिक योजनाओं को पूर्ण करने में अपना शेष जीवन लगाने की तैयारी कर रहे हैं तब यह जाना कि उनके हृदय में कितनी गहराई तक त्याग भावनायें प्रवेश कर चुकी है।

द्विवेदी जी की प्रसन्न मुद्रा देखते हुए बनती थी वे स्वयं प्रसन्न रहते और अपने प्रसन्न स्वभाव के कारण शिविर के सभी शिक्षणार्थियों में प्रसन्नता भरे रहते नरमेध के लिए अपने को बलि देने की तैयारी में लगाये हुए। पं. तारकेश्वर जी भी बहुत ही कम बोलते देखे गये पर संस्था की जिम्मेदारियों को उन्होंने अपने ऊपर ओढ़ सा रखा था। उनके समृद्ध विशाल हृदय में कितनी भावनायें लहरें ले रही हैं उसे कोई कवि या अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति ही माप सकता है। गंगा तुल्य परम साध्वी वयोवृद्ध माता द्रौपदी देवी जी अन्नपूर्णा की साक्षात अवतार थीं, छात्रों को उनका भोजन ऐसा ही लगता था मानो सभी को माता के हाथ की रसोई प्राप्त हो रही है।

एक क्या सभी प्रबन्धक ही नहीं छात्र भी-प्रशंसनीय व्यक्तित्व के थे। उत्तम प्रकार के इतने व्यक्तित्व गायत्री तपोभूमि में रहे तो ऐसा लगता था कि स्वर्ग यही है। सुनते है कि मानव शरीर को ‘सुर दुर्लभ’ कहा गया है। ऐसी परिस्थितियों में रहने के सुख को प्राप्त करने के लिए ही देवता तरसते होंगे। शिविर की समाप्ति पर विदाई के समय सभी का हृदय भर आया था। ऐसी पुण्य परिस्थितियों को छोड़ने के लिए किसका जी चाहता होगा, पर संसार की कठोर नियति से विवश होकर मनुष्य को प्रिय छोड़ने और अप्रिय ग्रहण करने के लिए विवश होना पड़ता है। उन दिनों की घटनायें और स्मृतियाँ मेरे हृदय को आज भी कोमल भावनाओं से द्रवित कर देती है।


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