पतिव्रत योग

May 1953

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(श्री ऋषिराम जी शुक्ल ताल्लुकेदार)

मनन करने पर पता चलता है कि ‘योग‘ और ‘पतिव्रत योग‘ की साधना-प्रणाली में भी अन्तर नहीं है, क्योंकि ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’।

चित्त की वृत्तियों को विषयों की ओर से हटा कर भगवान की किसी सगुण या निर्गुण मूर्ति में स्थिर कर देना ही योग है। तो फिर चित्तवृत्ति समेत बहिर्मुख इन्द्रियों को बुरे रास्ते से हटाकर अपने पति में ही स्थिर करना स्त्रियों का पतिव्रत क्या योग नहीं है?

जिस प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहारादि द्वारा चित्त को ईश्वर के अधीन रखना ही पुरुषों के योग का साधन कहा गया है, उसी प्रकार अपनी सब शारीरिक, मानसिक और वाचिक चेष्टाएँ पति के निमित्त करते हुये सब तरह से पति नारायण होना ही स्त्रियों के पतिव्रत-योग का साधन है। पुरुषों के लिये ईश्वरोपासना दो प्रकार की, साकार तथा निराकार, कही गई है, किन्तु स्त्रियों के लिये एक पतिव्रत-रूप सगुण उपासना ही वेदों का शास्त्रों में वर्णित है।

अवश्य ही गार्गी मैत्रेयी आदि विदुषी नारियों ने भी ज्ञान मार्ग द्वारा निर्गुण ब्रह्म को और गोपियों तथा मीराबाई-प्रभृति स्त्रियों ने भक्तिमार्ग का अवलम्बन कर सगुण ब्रह्म की उपासना करके, पुरुषों के समान स्वतन्त्र रीति से, आत्म-साक्षात्कार किया था, किन्तु इन सबका ज्ञान और भक्ति पर असाधारण अधिकार था। ये स्त्रियाँ साधारण कोटि की नहीं थी। इनमें कोई तो श्रुति, कोई देवियाँ और कोई ऋषि के समान थीं और किसी विशेष कारणवश इन्होंने संसार में अवतीर्ण होकर लोकोपकार किया था।

स्त्रियों की आदर्श अनसूया जी, जगज्जननी सीता जी, सावित्री जी एवं माता गाँधारी हैं। इन्होंने अपने पतिदेव को ही आत्मसमर्पण कर उनकी उपासना की थी और आजन्म उन्हीं की सेवा में रहकर अप्रतिहत शक्ति के साथ परमपद प्राप्त किया था। आष्टाँग-योग के सिद्ध होने से जो शक्ति और सिद्धि बहुत समय में पुरुषों को प्राप्त होती है, उसी शक्ति को स्त्री पतिव्रत-योग के बल से थोड़े समय में ही प्राप्त कर सकती है, यह सर्वथा निर्विवाद है।

इस पतिव्रत-योग शक्ति का दिग्दर्शन संक्षेप रूप में कराया जा सकता है। महाभारत के युद्ध में धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से केवल दुर्योधन बच रहा था। वीर श्रेष्ठ भीमसेन ने जब दुर्योधन को भी मार डालने की प्रतिज्ञा करली तब दुर्योधन अपने जीवन की आशा छोड़कर अपनी माता के अन्तिम दर्शन करने के लिये उनके पास गया और रोने लगा। तब पति-भक्त माता गाँधारी ने उसको ढाढ़स बँधाकर धर्मराज युधिष्ठिर के पास भेजा कि उनसे वह अमर होने का उपाय पूछे। धर्मराज ने उसे यह उपदेश दिया-दुर्योधन तू नग्न होकर अपनी माता के सामने जा। यदि वे एक बार तुझे अपनी दृष्टि से देख लें तो फिर तुझे कोई मार न सकेगा। धर्मराज के कथनानुसार दुर्योधन नग्न होकर अपनी माता के पास जाने गया, तब पाण्डवों के हितैषी भगवान् कृष्ण ने अपनी योगमाया द्वारा दुर्योधन के मन को प्रेरित किया कि नग्न-अवस्था में माता के पास जाना अनुचित है, अतः लँगोटी पहनकर तुम उनके पास जाओ।

भगवान कृष्ण के आदेश का पालन दुर्योधन ने किया। जब वह लँगोटी पहनकर माता के पास पहुँचा तब माता गान्धारी ने पूछा- ‘बेटा दुर्योधन, क्या तुम मेरे पास ठीक उसी रूप में आये हो, जैसा कि धर्मराज ने तुम्हें कहा था?’

दुर्योधन के मुख से निकल पड़ा-’हाँ माता, ठीक ही आया हूँ।’

जब माता गाँधारी ने अपनी आँखों की पट्टी खोलकर उसे देखा तो अपनी पतिव्रत-शक्ति से सब वृत्तांत जानकर कहा-’मार्गेत्वया सम्मिलितोअघुना किं कृष्णः कि मूचेवचनं वदस्वं।’

हे पुत्र! मार्ग में क्या तुम्हें कृष्ण मिले थे? उन्होंने तुम से क्या कहा? ‘आँखों पर पट्टी बाँध रखने वाली माता की विलक्षण शक्ति देखकर दुर्योधन दंग रह गया। माता से उसने इस ज्ञानशक्ति का कारण पूछा तो पति परायणा गाँधारी ने कहा- योगेन शक्तिः प्रभेवन्नराणाँ पतिव्रतेनापि कुलाँगनानाम। अर्थात् पुरुषों को जो शक्ति ‘योग‘ से प्राप्त होती है, वही शक्ति कुलाँगनाओं को अपने पतिव्रत धर्म से।

ओह! कैसा पतिव्रत योग है कि गाँधारी ने तत्काल ही क्रुद्ध होकर भगवान कृष्ण को भी शाप दे डाला-’कृष्ण त्वया में निहताश्च पुत्रा नश्यन्तु ते यादव यूथ संघा।’

हे कृष्ण! तुमने मेरे पुत्रों का नाश किया और एक बचे हुये पुत्र को मारना चाहा, जाओ तुमने मेरे पुत्रों का नाश किया इसी तरह तुम्हारे सब यादव गण भी नष्ट हो जायेंगे। स्त्री के पतिव्रत की यह शक्ति पुरुषों के उस अष्टाँग-योग-शक्ति से तनिक भी कम नहीं। करोड़ों ब्रह्माण्डों की सृष्टि और संहार करने वाले सर्वशक्तिमान भगवान् श्री कृष्ण पतिव्रता के इस शाप को मिटाने में समर्थ न हो सके। माता गाँधारी के शाप से अन्त में यादवों का वंश नष्ट हो ही गया। दूसरा उदाहरण महाराज भोज का लीजिये।

एक दिन महाराज भोज प्रजा की दशा देखने के उद्देश्य से अपनी राजधानी में घूम रहे थे। तब उन्होंने किसी मकान की खिड़की से देखा कि एक स्त्री अपनी पति की चरण-सेवा कर रही है। निद्रा-वश होने से पति उसकी जंघा पर ही सिर रख कर सो गया था। उसी कमरे के एक दूसरे कौने में उसका छोटा सा बच्चा सोया हुआ था। बीच में एक अग्निकुण्ड था, जिसमें अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें उठ रही थी। उसी समय सोया हुआ बच्चा उठकर चिल्लाता हुआ उस अग्निकुण्ड की ओर आने लगा। माता यह सब देख रही थी, किन्तु उसने जंघा पर सोये हुए पतिदेव को जगाने से अपने पतिव्रत नियम में बाधा से पुत्र की प्राण रक्षा न कर उसकी उपेक्षा ही कर दी। बहुत छोटा और अबोध होने के कारण वह बालक उस अग्निकुण्ड में गिर गया। इधर महाराज भोज को तो विश्वास हो गया था कि बच्चा अग्नि में भस्म हो गया होगा, किन्तु उस पतिव्रता के शाप के डर से अग्नि चन्दन के लेप के सदृश्य शीतल होकर शान्त हो गई। बच्चे का बाल तक बाँका न हो पाया। उस पतिव्रता के पतिव्रत-योग की शक्ति से चकित हो भोज ने-’हुताशंचन्दन पंकाशीतलः।’ यह श्लोक का चतुर्थ चरण बनाकर कालिदास से कहा- ‘शेष तीन चरण की पूर्ति कर दीजिये।’ कविवर कालिदास ने प्रखर प्रतिभा के सहारे उसी घटना के अनुरूप समस्या-पूर्ति करदी-

‘सुतं पतन्त प्रसमीक्ष्यपावके,

न बोधया भास पति पतिव्रता।

पतिव्रता शाप भयेन पीड़ितो,

हुताशनश्चन्दन पंक शीतलः॥’

अहा! क्या स्त्रियों का पतिव्रत-योग पुरुषों के उस अष्टाँग योग से कम है? इसीलिये तो समार्त्त धर्म के प्रवर्तक, धर्मशास्त्र के अधिकारी और आदिम उपदेशक मनु भगवान इस पतिव्रत की मुक्त कण्ठ की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-’नास्ति स्त्रिणाँ प्रथग् यज्ञो न व्रतं नाप्यु पोषणम्। पतिं शुश्र षते यनं तेन स्वर्गे महीयते॥ मनुस्मृति 5।1।15॥

स्त्रियों के लिये अलग से यज्ञ, व्रत और उपवास नहीं हैं केवल पति की सेवा करने से वे परमपद प्राप्त कर सकतीं है और देवताओं द्वारा सम्मानित होती हैं।

इसी एक सहज उपाय से जिस स्त्री ने इस पतिव्रत-योग को प्राप्त कर लिया, फिर उसके लिये कौन सा कर्तव्य शेष रह जाता है? वह तो फिर अपने मनुष्यत्व को त्याग कर देवत्व को प्राप्त होकर जगत्पूज्या लक्ष्मी बन जाती है।

सब वेद और शास्त्र उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं।

यश्य भार्या शुचिर्दक्षा भर्त्तार मनुगामिनी। नित्यं मधुर वक्त्रीच सा रमा न रमा रमा॥

इस पतिव्रत-योग की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? उसके प्रताप से इस भारतवर्ष में ऐसे वीर पैदा हुए हैं जिनके मन इन लौकिक विषयों में मुग्ध न होकर अपने लक्ष्य से किंचित मात्र भी विचलित नहीं हो सकते थे।

महाराज रामचन्द्रजी ने एक बार लक्ष्मण जी के ब्रह्मचर्य की परीक्षा के लिये प्रश्न किया-

‘पुष्पं दृष्ट्वा फलं दृष्ट्वा दृष्ट्वा यौषित यौवनम्। त्रीणी रत्नानि दृष्ट्वैव कस्यनोंचलते मनः॥’

सुन्दर पुष्प, फल और स्त्री का यौवन, इन तीनों रत्नों को देखकर किसका मन चंचल नहीं होता? क्या नीति का यह वचन मिथ्या हो सकता है जो तुम अपने को अखण्ड ब्रह्मचारी समझते हो?’

वीर लक्ष्मण ने तुरन्त इसका उत्तर देते हुए कहा-

पिता यस्य शुचिर्भूतो माता यस्य पतिव्रतः।

साभ्याँ यः सुनुरुत्पन्नस्तस्यनोच्चलते मनः।

‘जिसके पिता पवित्र आचरण वाले और माता पतिव्रता हो, उनके रज-वीर्य से उत्पन्न पुत्र का मन चलायमान नहीं हो सकता।

यही योग और पतिव्रत भारतवर्ष अलौकिक सम्पत्ति है। इसके प्रताप से यहाँ के स्त्री-पुरुषों ने भौतिक विषयों के उपभोगों को लात मारकर अध्यात्म-चिन्तन में ही अपनी सारी शक्ति लगाई। फलतः अखण्ड पद को प्राप्ति कर- (‘दिवौकसाँ मर्धनी तैः कृतं पदम्।,)- उस देव पद को भी ठुकरा दिया।

भारतभूमि धन्य है, जिसमें जन्म लेने वाले स्त्री-पुरुष पतिव्रत और योग को ही अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति समझते थे। उनकी सफलता पर इस कारण स्वर्ग के देवताओं को भी ईर्ष्या होती थी और वे भारतवासियों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा किया करते थे।

अहो अमीषाँ किमकारि शोभनम्

प्रसन्न एषाँ स्विदुत स्वयं हरिः।

ऐर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे।

मुकुन्दष्ये से वौपयिकं स्पृहा हिनः॥

श्रीमद्भा 05/19/21

धन्य है, जिसके प्रताप से यहाँ की स्त्रियों के उदर से ऐसे योगराज उत्पन्न हुये कि जिन्होंने यहाँ स्त्रियों का नाम वीर जननी रखा गया और भूमण्डल में यह घोषित कर दिया गया-

नारी नारी मत कहो, नारी नर की खान। नारी से सुत उपजें, ध्रुव प्रहलाद समान॥

किन्तु खेद है कि सुधार, स्वातंत्र्य तथा उन्नति के नाम पर इसी पतिव्रत-योग को आज का स्त्री समाज नष्ट करने लगा है। इन ‘सुधार’-वादिनी स्त्रियों में बहुतों का गार्हस्थ्य-जीवन धार्मिक दृष्टि-कोण से भारतीय नारीत्व के अनुरूप नहीं है।

अतः बहिनों! प्राचीन मर्यादा का पालन करने वाली देवियों के इतिहास का मनन करो। उनकी गाथाओं को अपने अन्तःकरण में अंकित करो। उन्हीं के समान अद्वितीय कार्य-सम्पादन करने की क्षमता प्रकट कर अपना नाम चिरस्मरणीय बनाओ।

ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसी सदाचारिणी और गुणवती माताएं पुनः इस देश में उत्पन्न करें, जिनसे इसका मुख उज्ज्वल हो।


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