(श्री ठाकुर राजबहादुर सिंह जी)
वास्तव में ‘वेदान्त’ तत्वज्ञान का वह विशुद्ध स्वरूप है जिसने समय पर अपने प्रवर्तक और परितोषक महान् आचार्यों द्वारा तत्कालीन जिज्ञासु जनता के जीवन को सत्य का वास्तविक आभास दिया है। किन्तु एक दृष्टि से देखा जाय तो प्राचीनकाल में वेदान्त की उतनी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि तब आध्यात्मिकता का प्रसार पर्याप्त रूप में था और लोग ऐसा असन्तुलित जीवन नहीं व्यतीत करते थे जैसा इस पदार्थवादी युग में कर रहे हैं। उन दिनों महान् सत्य का अनुभव करने और इस सतत् परिवर्तित मिथ्या चमत्कार युक्त संसार की वास्तविकता समझने के लिये विभिन्न मार्ग थे, और मानव में ऐहिक दुर्गुणों ने इतना घर नहीं बना लिया था जैसा कि आजकल हो रहा है। उन दिनों वेदांत के अध्ययन का ध्येय, मुख्यतः जगत की वाह्य विभिन्नता में छिपी ‘एकता’ को समझकर महत् सत्य की अनुभूति द्वारा मुक्ति प्राप्त करना मात्र होता था, पर आज स्थिति भिन्न है। जिस साँसारिकता ने पहले मनुष्य का स्पर्श मात्र किया था उसने अब उसे जकड़ लिया है और वह माया मोह के प्रबल पाश में बँधकर ऐसा अन्धा और अशक्त हो गया कि वह उस ऊँचे उद्देश्य के लिए वेदान्त का विद्यार्थी बनने को तैयार न होगा। ऐसी अवस्था में आवश्यकता इस बात की है कि हम लोगों को दैनिक जीवन में वेदान्त की व्यावहारिक उपयोगिता का परिचय करायें और यह बता दें कि वेदान्त की सच्ची शिक्षा ग्रहण करके वह किस प्रकार ऐसा संतुलित जीवन व्यतीत कर सकते हैं। जिससे लोक परलोक दोनों सुधरें। प्राचीनकाल में सत्य की अनुभूति के लिए गुरु का सान्निध्य प्राप्त कर श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस प्रकार के मुमुक्षु सद्ज्ञान लाभ करते थे, पर सुख की चिन्ता में व्यस्त मानव को इतना अवकाश नहीं है कि वह उसके मूल की खोज करे-वह तो कस्तूरी मृग की तरह आत्मज्ञान रूपी सुगंध की खोज में दूर-दूर दौड़ता और भटकता रहा है। ऐसी अवस्था में उसे वाह्य जगत में ही वेदान्त के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराकर सत्य के निकट लाना है, क्योंकि परिस्थिति बदल जाने के कारण साधन और विधि दोनों ही बदल गये हैं और हम जिस स्थिति में है उसी में उसका समुचित उपयोग करना है।
साधन और विधि
प्राचीनकाल के मुमुक्षु और जिज्ञासु तो अब मिलेंगे नहीं, जो केवल ज्ञान प्राप्त करके अपनी जिज्ञासा शान्त करने और ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा से वेदान्त का अध्ययन करें इसलिए हमें इस युग के उच्च और मध्यवृत्ति श्रेणी के लोगों में ऐसे विद्यार्थी प्राप्त करने होंगे जो साँसारिक जीवन की वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट नहीं हैं और जिनमें आध्यात्मिक विकास की थोड़ी बहुत अभिलाषा बीज रूप में विद्यमान है। इस प्रकार के अर्ध जिज्ञासु जब वेदान्त का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेंगे तो उसे क्रियात्मक रूप में परिणत करने का प्रयत्न करेंगे और उनका जीवन संतुलित और सुखी बन जायगा।
यह सच है कि वेदान्त की शिक्षा का सर्वोत्तम साधन त्याग है, किन्तु उसका यह अर्थ नहीं कि वेदान्ती बनने के लिये संन्यासी बन जाने की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद ने यही समझाकर कहा था कि “वेदान्त की शिक्षा है-संसार का त्याग करना चाहिये, पर केवल संसार त्याग करने के लिए उसे नहीं छोड़ना चाहिये। संसार में रहकर भी उसी का न बन जाना त्याग की सच्ची कसौटी है।” इसका यह स्पष्ट अर्थ है कि संसार में रहकर-गृहस्थ भी वेदान्त का मार्ग ग्रहण कर सकता है। वेदान्त के अभ्यासी को केवल अपनी मनोदशा ऐसी बना लेनी चाहिये जिससे कि वह जल में कमल पत्रवत् रह सके।
जब वेदान्त का विद्यार्थी यह निश्चय कर ले कि वह दोनों को सम्भालने की प्रवृत्ति और क्षमता रखता है तब वह उसका सच्चा अधिकारी हो जाता है।
वेदान्त क्या है?
व्यावहारिक जीवन में वेदान्त के सिद्धान्तों को लागू करने वाले को सबसे पहले वेदान्त के सच्चे स्वरूप का अध्ययन करना पड़ेगा। इस तत्वज्ञान का विवेचन उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और गीता में दिया गया है--इसलिये इन तीनों ग्रन्थों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है जिसका अर्थ यह है कि इन तीनों चरणों के आधार पर यह तत्वज्ञान टिका हुआ है। इसका नाम ‘वेदान्त’ इसलिए पड़ा कि यह वेदों का अन्त (वेद--अन्त) होने का दावा करता है। यहाँ वेद का अर्थ ऋग्, युज्, साम और अथर्व नहीं प्रत्युत ‘ज्ञान’ है, और ज्ञान नित्य और अनंत है और इस अनन्त रहस्यपूर्ण जगत में इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। संसार में अब तक जो कुछ ज्ञात हो चुका है और आगे होने वाला है, उन सभी का सूत्र वेदों में विद्यमान है। सीमित अर्थ में वेदान्त का अर्थ-वह आध्यात्मिक ज्ञान जिसमें अन्य सभी ज्ञानों का समावेश है। इसका यह स्पष्ट अर्थ है कि आध्यात्मिक ज्ञान के अतिरिक्त संसार का ज्ञान भी उसी में सन्निहित है, अतः संसार का त्याग करके ही उसका ज्ञान प्राप्त किया जाय, यह वाँछनीय नहीं है। यही नहीं वेदान्त के अंदर तो विस्तृत अर्थ में सारे संसार के धर्मग्रन्थ-बाइबिल, कुरान, धर्मं पद, जिंदावेस्ता आदि तथा कला वान भी आ जाते हैं। भविष्य में जो गौतमबुद्ध, ईसामसीह और भगवान शंकर का समकक्ष पैदा होगा वह भी वेदों के परे कुछ भी कह या कर नहीं सकता। स्वामी विवेकानन्द जी ने वेदों के बारे में कहा है—”वेद अनादि और अनंत हैं। कुछ लोगों को यह बात असंगत सी लग सकती है कि कोई भी पुस्तक अनादि और अनंत कैसे हो सकती है। किन्तु वेद का अर्थ पुस्तक विशेष नहीं वेद का अर्थ तो है आध्यात्मिक विधानों का संग्रहीत कोष, जिसकी खोज विभिन्न व्यक्तियों ने अलग अलग समयों में की है।” दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि यह युगों का संग्रहीत अनुभव है जो सभी देशों की युगों की संतानों को प्राप्त हो रहा है। प्रश्न हो सकता है कि यदि वेद, ज्ञान का असीम भण्डार है तो फिर कोई एक तत्वज्ञान उसका अन्त (वेद-अन्त) कैसे बन सकता है, क्योंकि फिर तो वेद अन्तहीन ठहरे? पर यह विरोधाभास केवल वाह्य और प्रकट रूप में ही दिखाई देता है। ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक तो इन्द्रियम ग्राह्य जो केवल बाह्यजगत से सम्बंध रखता है और दूसरा है आभ्यंतरिक जो अंतर्निहित सत्य को प्रत्यक्ष करता है। पहला-साँसारिक ज्ञान तो सदा पूर्ण बना रहेगा, क्योंकि उसके बारे में विज्ञान जितनी खोज करता जा रहा है उतना ही यह बढ़ता जाता है और जगत का बाह्य चमत्कार होने में ही नहीं आता। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि विज्ञान ने इस बाह्य जगत् का रहस्य जानने के लिये छानबीन की और उसने विश्लेषण करके यह बता दिया कि जल, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के योग से बनता है। पर ऑक्सीजन और हाइड्रोजन क्या है? यह कौन बता सकता है। वैज्ञानिक आविष्कारों और खोजों के पहले जहाँ संसार में एक बात अज्ञात थी, वह अब उतनी बड़ी खोजबीन के पश्चात अनेक बातें अज्ञात हो रही हैं। प्रकृति का रहस्य सुलझने के बदले गहनतर होता जा रहा है-उलझता जा रहा है। विज्ञानवेत्ता मनुष्य भी वही है। जहाँ शताब्दी पहले उसका पूर्वज था। वह बाह्य रेज, तार, हवाई जहाज, रेडियो, टेलीविजन और अणुबम से अपने को आगे बढ़ा हुआ समझता है, पर जो ज्ञान आज वह विज्ञान के याँत्रिक साधनों से प्राप्त कर सका है वह और उससे भी अधिक हमारे अंतर्दृष्टि ऋषियों ने सहस्रों लाखों वर्ष पूर्व प्राप्त कर लिया था। परकाया-प्रवेश और नक्षत्रों का विवरण उन्होंने अपने सहज ज्ञान से पा लिया था जो अभी तक वैज्ञानिकों के लिए समस्या ही बना हुआ है। अब रही आन्तरिक-आध्यात्मिक सत्य को प्रत्यक्ष करने की बात, सो वेदान्त का कार्य क्षेत्र वास्तव में यही है और वेदान्त को वेदान्त नाम ही इसलिए दिया गया है कि वह वास्तव में ज्ञान का अंत है उसके परे कोई जा नहीं जा सकता। वेदान्त और विज्ञान दोनों इस दृष्टि से इस संसार और इसके ध्येय के पूरक है।
व्यापारिक वेदान्त की साधना
ऊपर बताई हुई बातों से यह जाना जा सकता है कि जब साँसारिक-वैज्ञानिक और आध्यात्मिक ज्ञान इस जगत में एक दूसरे के पूरक हैं तो उनका सामंजस्य और समन्वय अनिवार्य है। इसी के अभाव में असमय में त्यागी या संन्यासी बनने वाले का ज्ञान एकाँगी रहता है। इस प्रकार जो लोग सदा व्यापार, कृषि, नौकरियों या अन्य कामकाजों में सम्यक् मनोयोग और एकाग्रतापूर्वक लगे रहते हैं उन्हें कभी इस बात का भान नहीं होता कि उनके प्रत्यक्ष संसार से परे भी कोई शक्ति है और स्वयं उन्हीं के अन्दर ऐसी शक्ति छिपी है जिसका विकास करके उनका एकाँगी-साँसारिक मात्र ज्ञान पूर्ण हो सकता है और उन्हें पूर्णतः सन्तुलित जीवन के परिणाम स्वरूप सुख और शान्ति मिल सकती है इसके लिए उन्हें अपनी आध्यात्मिक चेतना जागृत करनी होगी। उन्हें इस को समझकर दैनिक जीवन में उसका आभास प्राप्त करना होगा-
(1) संसार में जो भिन्नताएँ और भेद देखे जाते हैं वे वास्तव में (क) काल (ख) व्यवधान और कारण एवं परिणाम के परस्पर सम्बंध के अन्तर हैं।
इस बात को संक्षिप्त और अधिक बोधगम्य रूप में इस प्रकार कह सकते हैं कि ये भिन्नताएँ नाम और रूप के भेद हैं यदि हम किसी वस्तु से उसका नाम या रूप दूर कर दें जो कुछ शेष रहता है वह सार या सत्य है। उदाहरणार्थ यदि हम किसी सोने की अँगूठी को गला दें, तो उसका नाम ‘अँगूठी’ और उसका रूप रचनात्मक या बनावट दूर हो जाती है, पर उसका नाम एवं रूप मिटकर भी सोना-अर्थात् सार रह जाता है। कोई व्यक्ति विशेष मर जाता है तो उसका नाम और रूप तो चला जाता है, पर उसका सार-सत्य आत्मा रह जाता है इस सत्य या शुद्ध स्वरूप आत्मा को ही लक्ष्य करके स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-’आत्मा सबसे परे अनन्त’ ज्ञात और ज्ञातव्य की सीमा के बाहर है, उसके द्वारा ही हम इस जगत को देखते हैं। केवल वही सत्य है। यह मेज, यह श्रोतागण, यह दीवार सभी नाम और रूप को हटा देने पर आत्मा मात्र रह जायेंगे। नाम और रूप ही इस भेद के कारण हैं। नाम रूप से पहचाने जाने वाला यह शरीर तो नश्वर है। इसका स्वामी-आत्मा अनश्वर, अजर, अमर और अनन्त है।’
इस प्रकार जगत के प्रत्येक दृश्य रूप में नाम और रूप के कारण जो अन्तर, जो व्यवधान दृष्टिगोचर होता है उसे मिटाने पर सारा संसार एक केवल एक रह जाता है। सर्वत्र ही वह ‘एक’ रह जाता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि संसार में हम जो कुछ भी देखते हैं वह एक ही तत्व के विविध प्रदर्शित स्वरूप हैं और वास्तव में एक ही है। दार्शनिकों ने इसको ब्रह्म कहा है। इस प्रकार की भावना से व्यक्तिवाद और अहं का विनाश होता है। दैनिक जीवन के प्रत्येक व्यवहार से यदि हम लक्ष्य करें, तो साँसारिक रूप में उससे क्रियात्मक सम्बंध रख असम्बन्ध रह सकते हैं। दृष्टाँत के रूप में कि हम कोई ऐसा काम करें जिसके कारण हमें साँसारिक दृष्टि से आर्थिक या पारस्परिक हानि हो जाय तो उस कार्य से, कार्य-कारण सम्बन्ध होते हुए भी, अपने को निमित्त मात्र समझकर दुःख, मोक्ष, परिताप और तद्जन्य शारीरिक कष्टों से बहुत कुछ बच सकते हैं। इसी प्रकार वेदान्ती दृष्टिकोण से हम साँसारिक लाभ उठा सकते हैं।