गायत्री-संहिता

May 1953

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(गताँक से आगे)

चतुर्विशंतिलक्षाणाँ सततं तदुपासकः। गायत्रीणा मनुष्ठानाद्गायत्र्याः सिद्धिमाप्नुते ॥ 53॥

गायत्री का उपासक निरन्तर चौबीस लाख गायत्री के मंत्र जप का अनुष्ठान करने से गायत्री की सिद्धि को प्राप्त करता है।

साधनायै तु गायत्र्याः निश्छेलन हि चेतसा। वरणीयः सदाचार्यः साधकेन सुभाजनः॥

गायत्री साधना के लिये साधक को चाहिये कि वह श्रद्धा भक्ति के साथ योग्य श्रेष्ठ आचार्य को गुरु वरण करें। गायत्री दीक्षा लेकर साधना आरम्भ करें।

लघ्वानुष्ठानतो वापि महानुष्ठानतोऽथवा। सिद्धिं, विन्दति वै नूनं साधकः सानुपतिकाम् ॥ 55॥

लघु अनुष्ठान करने से अथवा वृहत अनुष्ठान करने से साधक साधना में किये गये श्रम के अनुपात से सिद्ध को प्राप्त करता है।

एक एव तु संसिद्धः गायत्री मंत्र आदिशत्। समस्तलोक मंत्राणाँ कार्यसिद्धेस्तु पूरकः॥ 56॥

सिद्ध हुआ अकेला ही गायत्री मंत्र संसार के समस्त मंत्रों द्वारा हो सकने वाले कार्यों को सिद्ध करने वाला माना गया है

अनुष्ठानावसाने तु अग्निहोत्रो विधीयताम्। यथा शक्ति ततो दानं ब्रह्मभोजस्त्वनन्तरम्॥ 56॥

अनुष्ठान के अनन्तर हवन करना चाहिये तदनंतर शक्ति के अनुसार दान और ब्रह्म-भोज करना चाहिये।

महामंत्रस्य चाप्यस्य स्थाने स्थान पदे पदे। गूढो रहस्यगर्भोऽनन्तोपदेशसमच्चयः॥ 58॥

इस महामंत्र के अक्षर अक्षर और पद पद में रहस्य भरा हुआ है और अनन्त उपदेशों का समूह इस महामंत्र में छिपा हुआ अन्तर्हित है।

यो दधाति नरश्चैतानपदेशाँस्तु मानसे। जायने ह्य भयं तस्य लोकमानन्दसंकुलम॥ 59॥

जो मनुष्य इन उपदेशों को मन में धारण करता है उसके दोनों लोक आनन्द से व्याप्त हो जाते हैं।

समग्रामपि सामग्रीमनष्ठानस्य पूजिताम्। स्थाने पवित्र एवैताँ कुत्रचिद्धि विसर्जयेत ॥ 60॥

अनुष्ठान की समस्त पूजित सामग्री को कहीं पवित्र स्थान पर ही विसर्जित करें।

सत्पात्रो यदि वाचार्यो न स्यात्संस्थापयेत्तदा। नारिकेलं शुचिं वृत्वाचार्यभावेन चासने ॥ 61॥

अगर श्रेष्ठ एवं योग्य आचार्य न प्राप्त हो तो पवित्र नारियल को आचार्य भाव से वरण करके आसन पर स्थापित करें।

प्रायश्चित्तं मतं, श्रेष्ठं त्रूटीनाँ पापकर्मणाम्। तपश्चर्यैव गायत्र्याः नातोऽयदृश्यते क्वचित् ॥ 62॥

गलतियों एवं पाप कर्मों के प्रायश्चित के लिये गायत्री की तपश्चर्या सबसे श्रेष्ठ मानी गई है।

सेव्या आत्मोन्नतेरर्थ पदार्थास्तु सतो गुणाः। राजसाश्च प्रयोक्तव्याः मनोवाँछामि पूर्त ये ॥ 63॥

आत्मा की उन्नति के लिये सतोगुणी पदार्थों का उपयोग करना चाहिये और मनोभिलाषाओं की पूर्ति के लिये रजोगुणी पदार्थों का उपयोग करना चाहिये।

प्रादुर्भावस्तु भावानाँ तामसानाँ विजायते। तमोगुणानामर्थानाँ सेवनादिति निश्चयः ॥ 64॥

तमोगुणी पदार्थों के उपयोग करने से तमोगुणी भावों की उत्पत्ति होती है।

मालासनं समिध्यज्ञ सामिग्रयर्चन संग्रह। गुणात्रयानुसारं हि सर्वे वैददते फलम् ॥ 65॥

माला, आसन, हवन सामग्री, पूजा के पदार्थ जिस तत्व की प्रधानता के लिये लिए जायेंगे वे वैसे ही अपने गुणों के अनुसार फल को देते हैं।

प्रादुर्भवन्ति वै सूक्ष्माश्चतुर्विशनि शक्तयः। अक्षरेभ्स्तु गायत्र्याः मानवानाँ हि मानसे ॥ 66॥

मनुष्यों के अन्तःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्म शक्तियाँ प्रकट होती हैं।

मुहूर्ता योग दोषा वा येऽप्यमंगलकारिणाः। भस्मताँ यान्ति ते सर्वे गायत्र्यास्तीव्रतेजसा ॥ 67॥

अमंगल को करने वाले जो भी मुहूर्त अथवा योग दोष हैं वे सब गायत्री के प्रचण्ड तेज से नष्ट हो जाते हैं।

एतस्मात्तु जपान्मूनं ध्यानमग्नेन चेतसा। जायते क्रमशश्चैव षट्चक्राणाँ तु जाग्रतिः ॥ 68॥

निश्चय ही ध्यान में रत चित्त के द्वारा इस जप को करने से धीरे-धीरे षट् चक्र जागृत हो जाते हैं।

षट् चक्राणि यदै तानि जागृतानि भवन्ति हि। षट् सिद्धयोऽभिजायन्ते चक्रैरेतैस्तदानरम् ॥ 69॥

जब ये षट् चक्र जागृत हो जाते हैं तब मनुष्य को इन चक्रों के द्वारा छः सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

अग्निहोत्रं तु गायत्री मंत्रेण विधिवत् कृतम्। सर्वेष्ववसरेष्वेव शुभमेव मतं बुधैः॥ 70॥

गायत्री मंत्र से विधिपूर्वक किया गया अग्निहोत्र सभी अवसरों पर विद्वानों ने शुभ माना है।

यदावस्थासु सयाल्लोके विपन्ना सु तदातु सः मौनं मानसिकं चैव गायत्री जपमाचरेत् ॥ 71॥

जब कोई मनुष्य विपन्न (सूतक, रोग, अशौच आदि) अवस्थाओं में हो तब वह मौन मानसिक गायत्री जप करें।

तदनुष्ठान काले तु स्वशक्तीर्नियमेज्जनः। निम्नकिर्मसु ताः धीमान् न व्ययेद्धि कदाचनः ॥ 72॥

मनुष्य को चाहिये कि वह गायत्री साधना से प्राप्त हुई अपनी शक्ति को संचित रखे। बुद्धिमान मनुष्य कभी भी उन शक्तियों को छोटे कामों में खर्च नहीं करते।

नैवानावश्यकं कार्यं क्वचिदात्मार्थिनानरा। स्वात्मशक्तेस्तु प्राप्तायाः यत्र तत्र प्रदर्शनम् ॥ 73॥

आत्मार्थी मनुष्य को प्राप्त की हुई अपनी शक्ति का जहाँ का तहाँ आवश्यक हो प्रदर्शन नहीं करना चाहिये।

आहारे व्यवहारे च मस्तिष्केऽपि तथैव हि। सात्विकेन सदा भाव्यं साधकेन मनीषिणा ॥ 74॥

आहार में व्यवहार में और उसी प्रकार मस्तिष्क में भी बुद्धिमान साधक को सात्विक होना चाहिये।

कर्तव्य धर्मतः कर्म विपरीतं तु यद्भवेत्। तत्साधकरतु मतिमानाचरेन्न कदाचनं॥ 75॥

जो काम कर्तव्य धर्म से विपरीत हो वह कर्म बुद्धिमान साधक कभी नहीं करें।

पृष्ठेस्याः साधनायास्तु राजतेऽतितराँ सदा। मनरवीसाधकानाँ हि बहूनाँ साधनावलम् ॥ 76॥

इस साधना के पीछे आदि काल से लेकर अब तक के असंख्य मनस्वी साधकों का साधन बल शोभित है।

अल्पीयस्या जगत्येव साधनायास्तु साधकः। भगवत्यास्तु गायत्र्याः कृपाँ प्राप्नोत्य संशयम् ॥ 77॥

थोड़ी ही श्रम साधना से साधक भगवती गायत्री की कृपा को प्राप्त कर लेता है।

प्राणयामे जपन् लोकः गायत्रीं ध्रुवमाप्नुते। निग्रहं मनसश्चैव चेन्द्रियाणाँ हि सम्पदम् ॥ 78॥

मनुष्य निश्चय से प्राणायाम में गायत्री को जपता हुआ मन का निग्रह और इन्द्रियों की सम्पत्ति को प्राप्त करता है।

मंत्रं विभज्य भागेषु चतुर्षून्नतमस्तदा। रेचकं कुम्भकं वाह्यं पूरकं कुम्भकं चरेत् ॥ 79॥

बुद्धिमान मनुष्य मंत्र को चार भागों में विभक्त करके तब रेचक, कुम्भक, पूरक और वाह्य कुम्भक को करे।

यथा या पूर्वस्थितेनैव न द्रव्यं कार्य साधकम्। महासाधनतोऽप्यस्यान्नाज्ञो लाभं तथाप्नुते ॥ 80॥

जिस प्रकार धन पास में रखे रहने से ही कार्य सिद्धि नहीं हो जाती उसी प्रकार से मूर्ख मनुष्य इस महा साधन से भी लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

साधकः कुरुते यस्तु मंत्र शक्तेरपव्ययः। तं विनश्यति सा शक्ति समूलं नाश संशयः ॥ 81॥

जो साधक मंत्र शक्ति का दुरुपयोग करता है उसको वह शक्ति समूल नष्ट कर देती है।

सततं साधनाभिर्यो याति साधकताँ नरः। स्वप्नावस्थासु जायन्ते तं दिव्या अनभूतयः ॥ 82॥

जो मनुष्य निरन्तर साधना करने से साधकत्व को प्राप्त हो जाता है उस व्यक्ति को स्वप्नावस्था में दिव्य अनुभव होते हैं।

सफलः साधको लोके प्राप्नुतेऽनभान् नवान्। चित्रान् दशविधाश्चैव साधनासिद्धयन्तरम् ॥ 83॥

संसार में सफल साधक नवीन और विचित्र प्रकार के अनुभवों को साधना की सिद्धी के पश्चात् प्राप्त करता है।

भिन्नाभिर्विधिभिर्बुद्धया भिन्नासु कार्यपंक्तिषु। गायत्र्या सिद्ध मंत्रस्य प्रयोगः कृयते बुथा ॥ 84॥

बुद्धिमान पुरुष भिन्न-भिन्न कार्यों में गायत्री के सिद्ध हुये मंत्र का प्रयोग भिन्न-भिन्न तरीकों से विवेक पूर्वक करता है।

चतुर्विंशति वर्णैर्या गायत्री गुस्फिता श्रुतौ। रहस्य युक्तं तत्रापि विज्ञैः रहस्यवादिभिः ॥ 85॥

वेद में जो गायत्री चौबीस अक्षरों से गुंथी गई है विद्वान लोग इन चौबीस अक्षरों से गूँथने में भी बड़े बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं।

रहस्यमुपवीतस्य गुह्याद्गुह्यतरं हि यत्। अन्तर्हितंतु तर्त्सव गायत्र्याँ विश्वमातरम् ॥ 86॥

यज्ञोपवीत का जो गुह्य से गुह्य रहस्य है वह सब विश्व माता गायत्री में अन्तर्हित है।

अयमेव गुरोर्मन्त्रः यः सर्वोपरि राजते। विन्दौसिन्धुरिवास्मिस्तु ज्ञानविज्ञानमाश्रितम् ॥ 87॥

यह गायत्री ही गुरु मंत्र है जो सर्वोपरि विराजमान है। एक बिन्दु में सागर के समान इस मंत्र में समस्त ज्ञान और विज्ञान आश्रित हैं।

आभ्यन्तरे तु गायत्र्या अनेके योग संचयाः। अन्तर्हिता विराजन्ते कश्चिदत्त न संशयः ॥ 88॥

गायत्री के अंतर्गत अनेक योग छिपे हुए हैं। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।

धारयन् हृदि गायत्रीं साधको धौत किल्विषः। शक्तीरनुभवत्युग्राः स्वस्मिनात्मन्यलौकिकाः ॥ 89॥

पाप रहित साधक हृदय में गायत्री को धारण करता हुआ अपनी आत्मा में अलौकिक तीव्र शक्तियों का अनुभव करता है।

वार्तारत्वेतादृशास्तस्मै भासन्तेऽल्पप्रयासतः। यास्तु साधारणों लोको ज्ञातुमर्हति नैव हि ॥ 90॥

उसको थोड़े ही प्रयास से ऐसी-ऐसी बातें विदित हो जाती हैं जिन बातों को सामान्य लोग जानने में समर्थ नहीं होते।

एतादृशास्तु जायन्ते तन्मनस्यनुभूतयः। यादृशान हि दृश्यन्ते मानवेषु कदाचन ॥ 91॥

उसके मन मैं इस प्रकार के अनुभव होते हैं जैसे अनुभव साधारण मनुष्यों में कभी भी नहीं देखे जाते।

प्रसादं ब्रह्मज्ञानस्य येऽन्येभ्यो विरन्त्यपि। आसादयन्ति ते नूनं मानवाः पुण्यमक्षयम् ॥ 92॥

ब्रह्म ज्ञान के प्रसाद को जो लोग दूसरों को भी बाँटते हैं, वे मनुष्य निश्चय ही अक्षय पुण्य को प्राप्त करते हैं।

गायत्री संहिता ह्येषा परमानन्ददायिनी। सर्वेषामेव कष्टानाँ धारणायास्त्यलं भुवि। ॥ 93॥

यह ‘गायत्री-संहिता’ परम आनन्द को देने वाली है। समस्त कष्टों के निवारण के लिये पृथ्वी पर यह अकेली ही पर्याप्त है।

श्रद्धया ये पठन्त्येनाँ चिन्तयन्ति च चेतसा। कृपायाँ वावगृहृन्ति भवबाघास्तरन्तिते ॥ 94॥

जो लोग इसको श्रद्धा से पढ़ते हैं और ध्यान पूर्वक इसका चिंतन मनन करते हैं वे लोग भव बाधाओं को तर जाते हैं।


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