मेरा कुछ नहीं

May 1953

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

मेरे पास एक मकान है, जिसे मैंने खरीदा है और इधर-उधर से सुधारकर खूबसूरत शिष्ट व्यक्तियों के रहने योग्य बना लिया है। मैं इस पर खूब व्यय करता हूँ। प्रति वर्ष पुताई और रोगन सफाई चित्रों में व्यय करता हूँ।

पर क्या यह वास्तव में मेरा है? नहीं, कदापि नहीं। मेरे इसमें आने से पूर्व न जाने वह जमीन जिस पर यह खड़ा है, कितने व्यक्तियों के अधिकार में आकर निकली होगी? इस घर में कितने ही व्यक्ति आते जाते रहे होंगे? कोई मर कर, कोई गरीबी के कारण, कोई प्रकृति के किसी आक्रमण द्वारा बिखर गये होंगे, और तब मेरे पास आया होगा, यह मकान। मेरे जन्म से पूर्व यह मकान किसी और का था, मेरी मृत्यु के पश्चात न जाने इसका वासी कौन कहे, कौन होगा? पर यह निश्चय है, यह मेरा नहीं है। मैं जब तक जिन्दा हूँ इसमें आश्रय भर लेता हूँ, बस। केवल मेरा इससे इतना ही सरोकार है।

कृषक का खेत उसका सर्वत्व है। वह उसे रखने के लिए असंख्य आफतें मोल लेता है। सम्पूर्ण आयु पर्यन्त उसे अच्छा बनाने, उपज की वृद्धि में प्रयत्नशील रहता है, पर मूर्ख यह नहीं सोचता कि उसका वास्तव में कुछ नहीं! न जाने वह खेत कितने व्यक्तियों के पास से गुजर चुका है। भविष्य में न जाने कितने उसके मालिक बनेंगे।

मेरे हाथ में एक रुपया आ जाता है। मैं इसे अपना कहता हूँ। प्यार करता हूँ। प्यार से बटुए में छिपा कर रखता हूँ। थोड़ी देर के लिए मैं भूल जाता हूँ कि यह रुपया आवारा है। एक जगह नहीं टिकता इसकी गति बड़ी तीव्र है। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे, पाँचवें, पचासों, हजारों हाथों में यह चलता फिरता रहता है। किसी एक का नहीं बनता। किसी एक का होकर नहीं रहता। फिर, मैं भी कैसा मूर्ख हूँ जो इसे अपना अपना कहकर घमण्ड में फूल उठता हूँ। मैं क्यों यह ध्रुव सत्य विस्मृत कर बैठता हूँ कि इससे मेरा क्षणिक सम्बन्ध है। न जाने कल यह किसके पास होगा। इसका भावी कार्यक्रम गतिविधि क्या है?

मेरे पास असंख्य पुस्तकें हैं, घर की सैकड़ों छोटी बड़ी वस्तुएं हैं, आराम की वस्तुएँ हैं, गाय और भैंसें हैं, साइकिल मोटर है, अच्छे वस्त्र हैं, क्या इनसे मेरा सच्चा रिश्ता है, क्या ये सदा मेरी होकर रहने वाली हैं।

मैं फिर भूलता हूँ। क्षुद्र साँसारिक वस्तुओं के लोभ में इन्हें ‘अपना’ कहने की मूर्खता करता हूँ। मैं प्रमाद एवं अज्ञानवश यह समझने लगता हूँ कि ये मेरे व्यक्तित्व, मेरी आत्मा के अंग हैं। यही मेरी बड़ी गलती है। ये नाना वस्तुएँ भला क्योंकर मेरी हो सकती हैं। न जाने किस किस का इन पर कब कब अधिकार रहा होगा। थोड़ी देर के लिये ये मेरे पास एकत्रित हो गई हैं। फिर न जाने कौन कहाँ बिखर जायेगी।

मैं बाल बच्चों का पिता हूँ। मेरी पत्नी बच्चों से अपने को पृथक नहीं कर पाती। ‘हमारे बच्चे बड़े होंगे, हमें न जाने किस किस प्रकार से सहायता प्रदान करेंगे, हमारे दुःख दूर करेंगे।’ मैं भी कभी कभी यही समझने की मूर्खता कर बैठता हूँ। पर क्या वास्तव में ये बच्चे हमारे हैं? क्या हम ही इनके सब कुछ हैं? क्या इनका कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व, आशा अभिलाषा, इच्छाएँ नहीं हैं? नहीं, ये हमारे नहीं हैं? हमारा इनसे क्षणिक सम्बन्ध है जिस प्रकार पक्षियों के बच्चे समर्थ हो जाने पर उड़ जाते हैं, लौटकर फिर माँ-बाप के पास आकर नहीं रहते, उसी प्रकार ये मानव परिन्दे न जाने कब, कहाँ, किस ओर, किस अभिलाषा से उड़ जाने वाले हैं। फिर मैं इन्हें क्योंकर अपना कह सकता हूँ?

मैं अपने शरीर को ‘अपना’ ‘अपना’ कहता हूँ। साज शृंगार में यथेष्ट समय व्यय करता हूँ। शीशे में शक्ल देख कर फूला नहीं समाता। अपने नेत्र, कपोल नासिका, मुखमुद्रा को सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। अपने शरीर के प्रत्येक अवयव पर मुझे गर्व है। पर क्या वास्तव में यह शरीर मेरा है?

शरीर मेरा नहीं। वह तो हाड़, माँस, रक्त, मज्जा, तन्तु, वीर्य इत्यादि का पुतला मात्र है। क्या मैं उदर, मुख, पाँव, सिर इत्यादि हूँ? क्या मैं रक्त हूँ, माँस हूँ? अस्थियों का पिंजर हूँ? क्या मैं श्वांस हूँ, वाणी हूँ? क्या हूँ?

वास्तव में उपरोक्त वस्तुओं में से मेरा कुछ भी नहीं है। इन सब साँसारिक पदार्थों से मेरा सम्बन्ध क्षणिक, अस्थायी और झूठा है। अज्ञान तिमिर में मुझे इन वस्तुओं से अपना साहचर्य प्रतीत होता है। मैं तो आत्मा हूँ। इस शरीर रूपी पिंजरे में अल्पकाल के लिये आ बँधा हूँ। मैं ईश्वर का दिव्य अंश हूँ। संसार से निर्लिप्त हूँ। साँसारिक वस्तुओं से मेरा संबंध क्षणिक है। यदि मैं अल्प लोभ के वश स्वार्थ और तृष्णा में लिप्त होता हूँ, तो यह मेरा अज्ञान है, मूढ़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118