चतुर्भुज-धर्म पुरुष

May 1953

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(श्री महात्मा जवाहराचार्य महाराज)

दान धर्म-

किसी वस्तु से अपनी सत्ता हटा लेने को ही दान कहते हैं। मान, प्रतिष्ठा या यश के लिये जो त्याग किया जाता है, वह दान नहीं है। वह तो एक प्रकार का व्यापार है, जिसमें कुछ धन आदि दिया जाता है और उससे मान, सम्मान आदि खरीदा जाता है। ऐसे दान से दान का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। ‘अहंभाव’ या महत्ता का त्याग करना दान का उद्देश्य है। अगर कोई दान अहंकार की वृद्धि के लिये होता है, तो उससे दान का प्रयोजन किस प्रकार सिद्ध हो सकता है? दान से कीर्ति भले ही मिले, पर कीर्ति की कामना करके दान नहीं देना चाहिये। किसान धान्य की प्राप्ति के लिये खेती करता है पर उसे भूसा तो मिल ही जाता है। अगर कोई किसान भूसे के लिये ही खेती करे तो उसे बुद्धिमान कौन समझेगा? इसी प्रकार निष्काम भाव से दान देने से कीर्ति आदि भूसे के समान आनुषंगिक फल मिल ही जाते हैं, पर इन्हीं फलों की प्राप्ति के लिये दान देना विवेक शीलता नहीं है। इसी प्रकार दानीय व्यक्ति को लघु और अपने आपको गौरव शील समझकर भी दान नहीं देना चाहिये।

यह कभी न भूलो कि दान देकर तुप दानीय व्यक्ति का जितना उपकार करते हो, उससे कही अधिक दानीय-व्यक्ति तुम्हारा दाता का उपकार करता है। वह तुम्हें दान-धर्म के पालन का सुअवसर देता है, तुम्हारे ममत्व को घटाने में या हटाने में निमित्त बनाता है। अतएव वह तुमसे उपकृत है तो तुम भी उससे कम उग्कृत नहीं हो। अगर दान देते समय अहंकार का भार आ गया तो तुम्हारा दान अपवित्र हो जायगा।

शील धर्म-

बुरे कर्मों से निवृत्त होना और अच्छे कामों में प्रवृत्त होना ‘शील’ कहा जाता है। यह शील का सामान्य स्वरूप है। इससे यह प्रश्न स्वतः उत्पन्न हो जाता है कि बुरा क्या है और अच्छा क्या है। संसार के समस्त शास्त्रों का सार अच्छे और बुरे की व्याख्या में ही आ जाता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पाँच बातें बुरी हैं- (1) हिंसा (2) झूठ (3) चोरी (4) व्यभिचार (5) शराब पीना। इन पाँचों बातों से निवृत्त होना चाहिये। पाँच अच्छी बातें हैं-(1) दया (2) सत्य (3) प्रामाणिकता अर्थात् अन्याय से किसी वस्तु को प्राप्त करने की अपेक्षा न रखना (4) परस्त्री को माता-बहिन के समान समझना और (5) नशे की किसी वस्तु का उपयोग न करना।

‘शील’ संसार की उत्तम सम्पत्ति है शील-धर्म का अर्थ है- सदाचार का पालन। सदाचार का पालन आत्मबल वाला ही कर सकता है। और आत्मबल वाले में ही सदाचार हो सकता है। शील की महिमा अपरिमित है। उसकी महिमा प्रकट करने वाली अनेक कथाएँ मौजूद हैं। सुदर्शन सेठ के लिए शील के प्रताप से ही फाँसी का तख्ता सिंहासन बन गया था। सीता के शील के प्रभाव से अग्नि शीतल हो गई थी। प्रभात होते ही सोलह सतियों का स्मरण क्यों किया जाता है? क्यों उनका यश गाया जाता है? शील के कारण ही।

ऐसी-ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें शील धर्म की महिमा का बखान है। कई लोग इन कथाओं को कल्पित कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं। पर वास्तव में उन्होंने उनका मर्म नहीं समझा है। आत्मबल के प्रति अवस्था ही इसका प्रधान कारण है।

तप धर्म-

शील-धर्म के पश्चात् तप-धर्म है। तप में क्या शक्ति है, सो उनसे पूछो जिन्होंने छः-छः महीने तक निराहार रहकर घोर तपश्चरण किया है और जिनका नाम लेने मात्र से हमारा हृदय निष्पाप एवं निस्ताप बन जाता है। तप में क्या बल है, वह उस इन्द्र से पूछो जो महाभारत के कथनानुसार अर्जुन की तपस्या को देख कर काँप उठा था और उसको एक दिव्य रथ प्रदान किया था।

कहते हैं, अर्जुन की तपस्या से इन्द्र काँप उठा। उसने मातलि को रथ लेकर अर्जुन के पास भेजा, मातलि अर्जुन के पास रथ लेकर पहुँचा और बोला-धनंजय। इन्द्र आपके तप से प्रसन्न हैं। आप इस रथ के योग्य है, अतएव इसमें आप बैठिए। बहुत लोगों ने संसार के बहुत से काम किए हैं, पर यह रथ किसी को नहीं मिला। मगर तप के प्रताप से आज यह रथ आपको भेंट किया जाता है।

इस कथन में अलंकार-भाषा का प्रयोग है। वस्तुतः यह शरीर ही रथ है। इस रथ में जुतने वाले अश्व इन्द्रियाँ हैं। तप के प्रभाव से अर्जुन को एक विशिष्ट प्रकार के रथ की प्राप्ति हुई, जिसमें तपो धनी ही बैठ सकते हैं।

चक्रवर्ती भरत महाराज के पास सेना, अस्त्र-शस्त्र और शरीर के बल की कमी नहीं थी। लेकिन जब युद्ध का समय आया था, तब वे तेला करके युद्ध किया करते थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तेला का बल चक्रवर्ती के समग्र बल से भी अधिक होता है।

तप से शरीर भले दुर्बल प्रतीत हो, मगर आत्मा असाधारण बलशाली बन जाती है।

भाव धर्म-

प्रत्येक कार्य होने के तीन प्रकार हैं-पहले विचार होता है, फिर उच्चार होता है, तब अन्त में आचार होता है। इस प्रकार प्रत्येक कार्य के लिए पहले पहले आत्मा में विचार या संकल्प होता है। संकल्प में यदि बल हुआ तो कार्य सिद्धि में सुगमता और एक प्रकार की तत्परता होती है। वास्तविक बात तो यह है कि कार्य की सिद्धि प्रधानतः संकल्प शक्ति पर अवलम्बित है।

संकल्प करना अर्थात् आत्मा को जागृत करना। जो जागृत होता है उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जो मनुष्य गाढ़ी नींद से सोया पड़ा हो या डरपोक हो, उसके घर में घुसकर चोर चोरी कर सकते हैं पर जो मनुष्य जागृत है और साहसी है, उसके घर में घुसने का साहस चोर को नहीं होता। अगर हम जागृत होंगे तो चोर क्या कर सकेंगे? ऐसा विश्वास तुम्हें है, पर आध्यात्मिक विषय में यह विश्वास टिकता नहीं है। अगर तुम्हारी आत्मा जागृत है तो कर्म-चोर की क्या विसात कि वह तुम्हारी शक्ति का अपहरण कर सके? तुम्हारी गफलत के कारण चोर तुम्हारे आत्म गृह में प्रवेश कर सका है। जिस क्षण तुम्हारी संकल्प-शक्ति जागृत होगी, उसी क्षण चोर बाहर निकल भागेगा।

ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर सोधो भ्रम छोर।

या विधि विन निकसे नहीं पैठे पूरव चोर॥

अपनी संकल्प शक्ति का विकास करना ही आध्यात्मिक विकास है।


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