अधिक नमक मत खाया कीजिए।

May 1953

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(कुमारी मनोरमा जी जनसार)

हमारे प्राचीन ऋषियों ने आज के अनेकों वर्ष पूर्व पदार्थ जानकारी की विद्या में बहुत उन्नति की थी, उन्होंने प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करके उसके गुण और दोषों का भली भाँति वर्णन कर दिया था। नमक के विषय में उनका कथन है...’त्रीणि पदार्थ नात्युपयुँजीत्। पिप्पली क्षारों लक्षण मिति।’ -चरक

पिप्पली, क्षार तथा लवण का अधिक उपयोग नहीं करना चाहिए। आज चर्म रोगों की अधिकाधिक वृद्धि हो रही है। इसका मुख्य कारण अधिक नमक का उपयोग करना ही है। शहरों में तो लोग चाट और नमकीन पदार्थों के खाने में इतने आदी हो जाते हैं कि बाजार में जब तक चटपटी और नमकीन वस्तुओं का सेवन नहीं कर लेते तब तक उन्हें शान्ति ही नहीं मिलती। इन बाजारू पदार्थों में नमक का इतना मिश्रण रहता है कि दिन भर के किए हुए आहार में आवश्यकता से ज्यादा लवण हमारे उदर में पहुँच जाता है। बहुत से लोग तो अधिक नमक खाने के आदी होते हैं और ऐसा अभ्यास कर लेते हैं कि जब तक उनके खाद्य पदार्थों में भली भाँति नमक का मिश्रण न किया जाय तब तक उन्हें कोई स्वाद ही नहीं मालूम होता। इसी स्वाद उद्देश्य को लेकर लोग आवश्यकता से अधिक उदर में नमक पहुँचा देते हैं, इससे रक्त दूषित हो जाता है, और फलस्वरूप विविध प्रकार के चर्म रोग उत्पन्न हो जाते हैं। चरक संहिता में तो यहाँ तक बताया है कि नमक के अधिक प्रयोग से शरीर में ग्लानि, शिथिलता तथा दुर्बलता उत्पन्न होती है।

मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि नमक का अधिक प्रयोग चर्म रोग तथा रक्त सम्बन्धी व्याधियों के उत्पादन में अवश्य सहायक होता है। इस सम्बन्ध में मैंने ग्राम सेवा संघ द्वारा संचालित धर्मार्थ-चिकित्सालय में उकौता (एग्जिमा) के रोगियों पर प्रत्यक्ष अनुभव करके भली भाँति देख लिया है। उकौता के रोगियों की चिकित्सा में मैंने सर्वप्रथम रोगी को नमक का सेवन करना बन्द करा दिया, जिस स्थान पर उकौता था वहाँ पर शुद्ध मिट्टी का लेप करना आरम्भ कराया, कुछ समय के बाद ही इस क्रिया से आशाजनक लाभ प्रतीत होने लगा, एक मास विधिवत नियम से प्रयोग करने पर पूर्व आरोग्यता प्राप्त हुई। यह स्थिति में उन रोगियों की बता रही हूँ जो अनेकों प्रकार की चिकित्सा कर चुके हैं, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ है। इस प्रकार उपरोक्त चिकित्सा विधि से सैकड़ों की संख्या में एग्जिमा के रोगियों को मैंने आरोग्य लाभ पहुँचाया। खाज, खुजली के रोगियों पर भी मैंने इसी प्रकार सफलता प्राप्त की है।

यहाँ पर मेरा यह अभिप्राय नहीं कि नमक का उपयोग बिल्कुल ही बन्द कर दिया जाय, उपयोग किया जाय, किन्तु अति स्वल्प मात्रा में ही। आवश्यकता से अधिक होने पर रोगोत्पादक है। नमक हमारे शरीर में इतनी ही मात्रा में पहुँचना चाहिये कि वह शीघ्र रक्त में घुलकर रक्त परिभ्रमण विधि से शरीर के सर्व प्रदेशों में परिभ्रमण कर उनको सड़ने आदि की क्रिया से बचाता हुआ सम्पूर्ण आभ्यंतरिक अवयवों की अशुद्धियों को अपने साथ लेकर वृक्कों द्वारा मूलाशय में एकाग्र होकर मूत्र प्रणाली द्वारा बाहर निकल जाय।

जितने भी खाद्य पदार्थ वनस्पत्यादि हैं उन सबका यदि पृथक-पृथक विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि विश्व विधाता परमात्मा ने उनमें भी नमक को किसी में कुछ कम तथा किसी में अधिक मात्रा में स्थान में रखा है। इस बात को परीक्षणों द्वारा अनेक प्रकार से सिद्ध कर वैज्ञानिक दृढ़ निश्चय पर पहुँच चुके हैं, फिर भी लोग अपने खाद्य पदार्थों में स्वाद के निमित्त और अधिक नमक का मिश्रण करते हैं, वही हमारे लिए हानिप्रद होता है। यथा शक्ति स्वल्प मात्रा में ही नमक का प्रयोग करना चाहिये। जो लोग चर्म रोग तथा रक्त सम्बन्धी व्याधियों से पीड़ित हैं, उन्हें नमक का उपयोग बिल्कुल बन्द कर देना चाहिये। इससे अति शीघ्र आशातीत लाभ होगा।

उपवासों में नमक का त्याग इसलिए किया जाता है कि रक्त में उत्तेजना और चित्त में चंचलता पैदा करने वाले इस अनावश्यक पदार्थ को शरीर में प्रवेश होना रोककर शरीर तथा मन को सात्विक बनाया जाय। मिर्च मसालों की अधिकता की भाँति नमक के स्वाद की आदत भी हानिकारक ही है। जितना नमक शरीर को आवश्यक है उतना तो हमारे खाद्य पदार्थों में पहले से स्वयमेव ही मौजूद रहता है। ऊपर से जितना नमक खाया जाता है वह शारीरिक आवश्यकता के लिए नहीं स्वाद के लिए ही होता है।

कहते हैं कि छः मास नमक छोड़ दिया जाय तो रक्त इतना शुद्ध हो जाता है कि साँप के काटने पर भी उस व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती। इस जनश्रुति में कहाँ तक सत्य है यह ही कहा नहीं जा सकता पर इतना निर्विवाद है कि आज जितना नमक खाने की लोगों को आदत पड़ गई है वह अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। हमें चाहिये कि इससे बचने का यथासम्भव प्रयत्न करते रहें।


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