सर्वत ks मुखी उन्नति

May 1953

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धीरस्तुष्टो भवेन्नैवह्ये कस्याँ हि समुन्नतौ। कृयतामुन्नति स्तेन सर्वास्वाशासु जीवने॥

अर्थ-विज्ञ मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए वरन् सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए।

जैसे शरीर के कई अंग हैं और इन सभी का पुष्ट होना आवश्यक होता है वैसे ही जीवन की सभी दिशाओं का विकास होना सर्वतोमुखी उन्नति का चिन्ह है।

यदि पेट बहुत बढ़ जाय और हाथ पैर बहुत पतले हो जायें तो इस विषमता से प्रसन्नता न होकर चिन्ता ही बढ़ेगी। इसी प्रकार कोई आदमी केवल धनी, केवल विद्वान, केवल पहलवान, बन जाय तो वह उन्नति सुखदायक न होगी। वह बलवान किस काम का जो दाने-दाने को मुहताज हो, वह विद्वान किस काम का जो रोगों से ग्रस्त हो, वह धनी किस काम का जिसके पास न विद्या है न बल?

जैसे किसान सब ओर से खेत की रखवाली करता है, सेनापति सब युद्ध भागों की रक्षा करता है, वैसे ही जीवन धन की रक्षा और उन्नति सर्वतोमुखी होनी चाहिए। जिस ओर लापरवाही की जायगी उसी ओर से ऐसे छिद्र हो सकते हैं जो भर-पूर धन सम्पत्ति की नाव को बीच में ही डुबो दें।

मानव जीवन के आठ पहलू हैं, आठ बल हैं। शक्ति की आठ भुजाएँ हैं—(1) स्वास्थ्य (2) विद्या (3) धन (4) व्यवस्था (5) संगठन (6) यश (7) शौर्य (8) सत्य। इन आठों के सम्मिलन से एक महत्वपूर्ण सर्वांगपूर्ण ‘बल’ बनता है। इन शक्तियों में से जिसके पास जितना भण्डार होगा वह उतना ही अधिक विकसित माना जायगा।

अब इन सभी बलों के सम्बन्ध में कुछ चर्चा करेंगे।

(1) स्वास्थ- की महत्ता हम सब जानते हैं कि वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल है। अस्वस्थ मनुष्य तो इस पृथ्वी का एक भार है जो दूसरों के कष्ट का कारण बनकर अपनी सांसें पूरी करता है। सच्चे जीवन का स्वाद लेने और मनुष्यता के उत्तरदायित्वों को पूरा करने से वह सर्वथा वंचित रह जाता है। किसी मार्ग में उन्नति करना तो दूर, उसे प्राण धारण किये रहना भी बड़ा कठिन हो जाता है। स्वास्थ्य सर्वप्रथम और सर्वोपरि बल है। इस बल के बिना अन्य सब बल निरर्थक हैं। इसलिए स्वस्थता की ओर सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

अस्वस्थ होने के थोड़े से कारण हैं यदि हम उनकी ओर सतर्क रहें तो बीमारी और कमजोरी से बच कर स्वाभाविक स्वस्थता प्राप्त कर सकते हैं। स्वास्थ्य की ओर पर्याप्त ध्यान न देना, निरोगता में पूरी दिलचस्पी न लेना, तन्दुरुस्ती के खराब होने का सबसे बड़ा कारण है। रुपया कमाने में, कारोबार व्यापार में, या अनेक अन्य कामों में जितनी पेनी दृष्टि से, होशियारी और दिलचस्पी से काम करते हैं यदि उसका दसवाँ भाग भी तन्दुरुस्ती की और ध्यान दिया जाय तो दुर्बल होने की नौबत न आवे। आमतौर से लोग शरीर को आराम देने और सजाने की तो फिक्र करते हैं, इन्द्रिय भोगों के साधन जुटाते हैं पर यह नहीं सोचते कि चिरस्थायी स्वास्थ्य और दीर्घजीवन किस प्रकार प्राप्त हो सकता है। यदि हम धनी बनने की इच्छा करें तो अवश्य ही सफल मनोरथ हो सकते हैं। धनी बनने से स्वस्थ बनना सुगम है।

स्वाद, फैशन या आराम की ओर ध्यान न देकर आरोग्य की दृष्टि से हमें अपना जीवन क्रम बनाना चाहिए। प्रातःकाल जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, नियमित व्यायाम, त्वचा को खूब रगड़ रगड़ कर पूरा स्नान, मालिश, मलों की भली प्रकार सफाई, चटोरेपन को बिल्कुल तिलाँजलि देकर सात्विक मन से, कम खूब चबाकर, प्रसन्नतापूर्वक भोजन करना सामर्थ्य के अनुसार श्रम, चिन्ता से बचाव, वीर्य रक्षा आदि बातों में सावधानी बरती जाय तो स्वस्थता परछांई की भाँति साथ रहेगी। तन्दुरुस्ती हकीम डाक्टरों की दुकानों या रंग बिरंगी शीशियों में नहीं है वरन् आहार-बिहार की सात्विकता-एवं सावधानी में है। आडम्बरी, कृत्रिम, चटोरे, प्रकृति विरुद्ध, आलसी रहन-सहन से हम रोगी बनते हैं, उसे परित्याग करके यदि सादा, सीधा, सरल और प्रकृति अनुकूल जीवन क्रम बनाया जाय तो स्वस्थता निश्चित रूप से हमारे साथ रहेगी।

(2) विद्या- के दो विभाग हैं, एक शिक्षा दूसरी विद्या। साँसारिक जानकारी को शिक्षा कहते हैं जैसे भाषा, भूगोल, गणित, इतिहास, चिकित्सा, व्यापार, शिल्प, साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, नीति, न्याय, व्यवस्था आदि। विद्या-मनुष्य के कर्तव्य और उत्तरदायित्व को हृदयंगम करने को कहते हैं। धर्म, आध्यात्म, शिष्टाचार, सेवा, पुण्य परमार्थ, दया त्याग, सरलता, सदाचार, संयम, प्रेम, न्याय, ईमानदारी, ईश्वर परायणता, कर्तव्य भावना प्रभृति वृत्तियों का जीवन में घुल मिल जाना विद्या है। शिक्षा और विद्या दोनों को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा से साँसारिक जीवन की श्रीवृद्धि होती है और विद्या से आत्मिक जीवन में सुसम्पन्नता आती है।

बौद्धिक प्रकाश के लिए जिज्ञासा की सबसे अधिक आवश्यकता है। जिसके मन में जानने की इच्छा उत्पन्न होती है अनेकों तर्क वितर्क उठते हैं, चिन्तन मनन और विवाद करने में जिसे रस आता है, जो अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जिसे ज्ञान संग्रह का शौक है, जो ज्ञानवान बनने के महत्व और आनन्द से परिचित है वह नित्यप्रति अधिक ज्ञानवान होता जायेगा। ज्ञानवान बनने के अनेकों साधन उसे पग पग पर प्राप्त होते रहेंगे। मूढ़मति के मनुष्यों को जहाँ कोई “खास बात” नहीं दिखाई पड़ती, जिज्ञासु व्यक्ति की सूक्ष्म दृष्टि-वहाँ भी बहुत सी जानने योग्य बातें ढूँढ़ निकालती हैं। ज्ञानवान बनने की तीव्र आकाँक्षा हुए बिना मस्तिष्क की वे सूक्ष्म शक्तियाँ संचित नहीं हो सकती जिनके आधार पर शिक्षा और विद्या की प्राप्ति हुआ करती है। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ के सूत्रकार ने ज्ञान साधना का प्रथम उपाय जिज्ञासा को बताया है जिज्ञासु होना विद्वान होने का पूर्व रूप है।

पर्यटन, यात्रा, समाचार पत्रों का पढ़ना, विचार पूर्ण पुस्तकों का अध्ययन, सत्संग, आम लोगों की मनोवृत्तियों का अध्ययन, घटनाओं पर विचार और उनका निरूपण एवं अनुभव सम्पादन में रुचि लेने वाले मनुष्य बुद्धिमान हो जाते हैं। जो अपनी भूलों को ढूँढ़ने और सही निष्कर्ष तक पहुँचने के हठधर्मी से बचाकर अपने मस्तिष्क को खुला रखते हैं वे आवश्यक एवं उपयोगी ज्ञान को पर्याप्त मात्रा में एकत्रित कर लेते हैं। समर्थक और विरोधी दोनों तथ्यों को समझने और उनकी विवेचना करने के लिए जो लोग प्रस्तुत रहते हैं वे भ्रम से, अज्ञान से बचकर वास्तविकता तक पहुँच जाते हैं। अपनी जानकारी की अल्पता को समझना और अधिक मात्रा में अधिक वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने की निरन्तर चाह रखना, मनुष्य को क्रमशः ज्ञानवान बनाता है। ज्ञान वृद्धि को प्राप्त करने के अवसरों को जो लोग तलाशते रहते हैं और वैसे अवसर मिलने पर उनका समुचित लाभ उठाते हैं, उनकी विद्या दिन दिन बढ़ती जाती है।

(3) धन- समय के प्रभाव से आज पैसे का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य की लघुता महानता अब पैसे के पैमाने से नापें जाने लगी है। पैसे के द्वारा सबकी सुख सामग्रियाँ, सब प्रकार की योग्यता और शक्तियाँ खरीद ली जाती हैं। आज जो अनुचित, अत्यधिक महत्व पैसे को प्राप्त है, उसकी ओर ध्यान न दिया जाय तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि पैसे की आवश्यकता हर एक को है। भोजन, वस्त्र एवं मकान की जरूरत पड़ती है। अतिथि सत्कार, परिवार का भरण पोषण, बच्चों की शिक्षा, विवाह, चिकित्सा, दुर्घटना, अकाल, आपत्ति आदि के लिए थोड़ा बहुत पैसा हर सद्गृहस्थ के पास रहना आवश्यक है।

धन उपार्जन की अनेकों प्रणाली संसार में प्रचलित हैं। उनमें से व्यापार, उत्पादन एवं निर्माण की प्रणाली सब से उत्तम है। शिल्प, वाणिज्य, कलाकौशल, कृषि, गौ पालन, दलाली आदि के द्वारा आसानी से पैसा पैदा किया जा सकता है। नौकरी बिना पूँजी वाले और ढीले स्वभाव वालों का सहारा है। ऐसे ही किसी उत्तम कार्य से जीविका उपार्जित करनी चाहिये। विश्वस्तता, मधुर व्यवहार, परिश्रम, ईमानदारी, अच्छी चीज, वायदे की पाबन्दी, सजावट, विज्ञापन एवं मितव्ययिता के आधार पर हर व्यक्ति अपने कारोबार में वृद्धि कर सकता है। नौकरी, उत्पादन, निर्माण, व्यापार सभी कार्यों में इनके आधार पर आमदनी और मजबूती बढ़ सकती है। न्यायोचित आधार पर समुचित जीविका प्राप्ति कर लेना कुछ बहुत कठिन नहीं है।

थोड़े प्रयत्न से अधिक धन कमाने के लिये लोग चोरी, डकैती, लूट, रिश्वत, ठगी, उठाई गिरी, बेईमानी, धोखा, मिलावट, विश्वासघात, जुआ, सट्टा, लाटरी, अन्याय, शोषण, अपहरण आदि नीच निन्दित मार्गों का आश्रय ग्रहण करते हैं। इस प्रकार का धन कमाने में लोक निन्दा, राजदण्ड, शत्रुता, घृणा, प्रति हंसा का भय तो प्रत्यक्ष ही है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार झटके का पैसा बुरी तरह अपव्यय होता है। जो पैसा पसीना बहाकर, किफायतशारी से नहीं जमा किया गया है, उसके खर्च होने कुछ दर्द नहीं होता। चोर, जुआरी, ठग, इस हाथ विपुल धन कमाते हैं घोर उस हाथ होली में जलाकर स्वाहा कर देते हैं। इस प्रकार अपव्यय से अनेक पाप, दुर्गुण एवं बुरे उदाहरण उत्पन्न होते हैं। सबसे खास बात यह है कि ऐसा पैसा बीमारी, मुकदमा, चोरी, व्यसन आदि कुमार्गों में नष्ट हो जाता है। यदि बच भी रहे तो कुकर्मी पिता के उत्तराधिकारी ऐसे कुकर्मी निकलते हैं कि उस पैसे की होली तपे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता।

इन सब बातों पर ध्यान रखते हुए परिश्रमपूर्वक ईमानदारी के साथ उचित मार्गों से धन कमाना चाहिये। सही मार्गों से धनी बनना प्रशंसनीय है। धन को जोड़ जोड़कर विशाल राशि जमा करने में नहीं वरन् उसका ठीक समय पर आवश्यक एवं उचित उपयोग कर लेने में बुद्धिमानी है। धन को विवेकपूर्वक कमाना चाहिए और विचारपूर्वक खर्च करना चाहिए। तभी धन की शक्ति का वास्तविक लाभ लिया जा सकता है।

(4) व्यवस्था- बहुत बड़ी शक्ति है। बड़ी बड़ी सफलताएँ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अच्छा व्यवस्थापक होना चाहिए। जो व्यक्ति कार्य पूरा करने का समुचित प्रबन्ध कर सकता है वह बहुत बड़ा जानकार है, धनी विद्वान और स्वस्थ पुरुष अनेक स्थानों पर असफल रहते देखे गये हैं पर चतुर प्रबंधक स्वल्प साधनों से बड़े-बड़े कार्यों के लिए सरंजाम जुटा डालते हैं और अपनी हिम्मत, चतुरता, बुद्धिमत्ता एवं व्यवस्था के बल पर उन्हें पूरा कर लेते हैं।

(अ) दूसरों पर प्रभाव डालना (ब) उपयोगी मनुष्यों का सहयोग एकत्रित करना (स) काम की ठीक योजना बनाना (द) नियमित कार्य प्रणाली का संचालन करना (ह) रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का निराकरण करना, यह पाँच गुण व्यवस्थापकों में देखे जाते हैं। वे मधुर भाषण, शिष्टाचार, सद्व्यवहार, लोभ, भय आदि से दूसरों को प्रभावित करना जानते हैं। अनुपयोगी, अयोग्य, लोगों की उपेक्षा करके काम के आदमियों को सहयोग में लेते हैं। लाभ और हानि के हर एक पहलू को, वर्तमान परिस्थितियों को, ध्यान में रखते हुए अनुभव और आँकड़ों के आधार पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के पश्चात वे अपने काम की योजना बनाते हैं। समय की पाबंदी, नियमितता, ठीक समय पर कार्य करना, स्वच्छता, निरालस्यता, एवं जागरुकता उनके स्वभाव का एक अंग बन जाती है। दोषों को वे बारीकी से ढूँढ़ लेते हैं और उन्हें दूर हटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। बदलती हुई परिस्थितियों के कारण जो खतरे आते हैं उन्हें रोकने एवं शमन करने पर उनका पूरा ध्यान रहता है। सफल व्यवस्थापक में इस प्रकार के गुण होते हैं, उनकी सूझ-बूझ व्यावहारिक होती है।

निरालस्यता, जागरुकता, स्वच्छता, नियमितता, पाबंदी, मर्यादा का ध्यान रखने में मनुष्य के विचार और कार्य व्यवस्थित होने लगते हैं और वह धीरे-धीरे अपने क्षेत्र में एक कुशल व्यवस्थापक बन जाता है। ऐसे आदमी का दुनिया लोहा मानती है।

(5) संगठन- शास्त्रकारों ने ‘संघशक्ति कलौयुगे’ सूत्र में वर्तमान समय में संघशक्ति संगठन, एकता को प्रधान शक्ति माना है। जिस घर में, कुटुम्ब में, जाति में, देश में, एकता है वह शत्रुओं के आक्रमण से बचा रहता है, एवं दिन दिन समुन्नत होता है। फूट के कारण जो बर्बादी होती है वह जग जाहिर है। अच्छे मित्रों का, सच्चे मित्रों का, समूह एक दूसरे की सहायता करता हुआ आश्चर्यजनक उन्नति कर जाता है। तन बल, धन बल, भुज बल की भाँति जन बल भी महत्वपूर्ण है। जिनके साथ दस आदमी है वह शक्तिशाली है। जनशक्ति द्वारा बड़े दुखद कार्यों को आसान बना लिया जाता है।

घर में और बाहर हर जगह मित्रता बढ़ानी चाहिए। समानता के आधार पर परस्पर सहायता करने वाला गुट बनाना चाहिए, उसे बढ़ाना और मजबूत करना चाहिए। संघ शक्ति से, मन बल से, जीवन विकास में असाधारण सहायता मिलती है, संगठित गौऔ का झुण्ड सामूहिक हमला करके बलवान बाघ को मार भगाता है।

आप सामूहिक प्रयत्नों से अधिक दिलचस्पी लीजिए। अकेले माला जपने की अपेक्षा संध्या, भजन, कीर्तनों में सामूहिक रूप में सम्मिलित होना पसन्द कीजिये। अकेले करतब करने की अपेक्षा खेलों में भाग लेना और अखाड़ों में जाना ठीक समझिये। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं मनोरंजन संस्थाओं में भाग लीजिए यदि आपके यहाँ वे न हों तो स्थापित कीजिये, अपने जैसे समान विचार के लोगों की एक मित्र मण्डली बना लीजिये और आपस में खूब प्रेमभाव बढ़ाइये। घर में और बाहर सच्ची मैत्री का, एकता का बढ़ाना एक महत्वपूर्ण वास्तविक लाभ है।

(6) यश- नीतिकारों का कहना है कि जिसका यश है उसका जीवन-जीवन है। प्रतिष्ठा का, आदर का, विश्वास का, श्रद्धा का संपादन करना सचमुच एक बहुत बड़ी कमाई है। देह मर जाती है पर यश नहीं मरता। ऐतिहासिक सत्पुरुषों को स्वर्ग सिधारे, हजारों वर्ष हो गये परन्तु उनके पुनीत चरित्रों का गायन कर असंख्यों मनुष्य अब भी प्रकाश प्राप्त करते हैं।

जो व्यक्ति अपने अच्छे आचरण और अच्छे विचारों के कारण, सेवा-साहस, सच्चाई एवं त्याग के कारण लोगों की श्रद्धा प्राप्त कर लेता है उसे बिना माँगे अनेक प्रकार से प्रकट और अप्रकट सहायताएँ प्राप्त होती रहती हैं। यशस्वी व्यक्ति पर कोई संकट आता है तो उसका निवारण करने के लिए अनेकों व्यक्ति आश्चर्यजनक सहायता करते हैं, इस प्रकार उन्नति के लिये अयाचित सहयोग प्राप्त करते हैं। सुख्याति द्वारा जिनने दूसरों के हृदय को जीत लिया इै इस संसार में यथार्थ में वे ही विजयी हैं।

प्रतिष्ठा आत्मा को तृप्ति करने वाली दैवी सम्पत्ति है। बाजार में ईमानदारी एवं सच्चाई के लिये जिसकी ख्याति है वही व्यापारी स्थायी लाभ कमाता है। यशस्वी पर हमला करके, अपने आपको सबकी निगाह में गिरा लेने के लिये कोई विरले ही दुस्साहस करते हैं। यह यश सद्गुणों से, सत्कार्यों से, सद्विचारों से एवं भीतर बाहर से विश्वस्त रहने वालों को ही प्राप्त होता है। महात्मा गाँधी से बड़े बड़े साम्राज्य थरथराते थे, वे गाँधी व्यक्ति से नहीं डरते थे वरन् उनके पीछे जो विशाल जन समूह की अटूट श्रद्धा थी उससे घबराते थे। यश सचमुच शक्ति है। उस शक्ति से सम्पन्न मनुष्य तुच्छ से महान् बन जाता है।

(7) शौर्य- साहस, बाजी मारता है। हिम्मत वालों की खुदा मदद करता है। आपत्ति में विचलित न होना, संकट के समय धैर्य रखना, विपत्ति के समय विवेक को कायम रखना मनुष्य की बहुत बड़ी विशेषता है। बुराइयों के विरुद्ध लड़ना, संघर्ष करना और उन्हें परास्त करके दम लेना शौर्य है। शाँति अच्छी है-परन्तु अशाँति का अंत करने वाली अशान्ति भी शान्ति के समान ही अच्छी है। कायरता की जिन्दगी से मर्दानगी की मौत अच्छी है। स्वाभिमान, धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए मनुष्य को बहादुर होना चाहिए।

खतरे में पड़ने का चाव, निर्भीकता, बहादुरी, जोश यह सब आन्तरिक प्रेरक शक्ति के, गरम खून के चिन्ह हैं। जो फूँक फूँक कर पाँव धरते हैं वे सोचते और मौका ढूँढ़ते रह जाते हैं पर साहसी पुरुष कूद पड़ते हैं और तैरकर पार हो जाते हैं। दब्बू, डरपोक, कायर, कमजोर, शंकाशील मनुष्य सोचते और डरते रहते हैं उनसे कोई असाधारण काम नहीं हो पाता। यह पृथ्वी वीर भोग्या है। वीर पुरुषों के गले में ही यह जयमाला पहनाई जाती है। उद्योगी सिंह पुरुष ही लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।

मनुष्य को साहसी होना चाहिये। विपत्ति आने पर शोक, चिन्ता भय, घबराहट विवेकपूर्वक उस संकट का समाधान करने के लिये ठीक-ठीक सोच सकने का साहस होना मनुष्यता का लक्षण है। आतताइयों से मुठभेड़ करने की बहादुरी होनी चाहिए। आगे बढ़ने के मार्ग में जो खतरे हैं उनसे उलझने में जिसे रस आता है वह शूरवीर है। जो साहसी, पराक्रमी, कर्मठ और निर्भीक है वह शक्तिमान है क्योंकि साहस रूपी प्रचण्ड शक्ति उसके हृदय में विद्यमान है।

(8) सत्यता- में अकूत बल भरा हुआ है साँच को कहीं आँच नहीं। सत्य इतना मजबूत है कि उसे किसी भी हथियार से नष्ट नहीं किया जा सकता। जिसके विचार और कार्य सच्चे हैं वह इस संसार का सबसे बड़ा बलवान है। उसे कोई नहीं हरा सकता। सत्यता पूर्ण हर एक कार्य के पीछे दैवी शक्ति होती है। असत्य के पैर जरा सी बात में लड़खड़ा जाते हैं और उसका भेद खुल जाता है किन्तु सत्य-अडिग चट्टान की तरह सुस्थिर खड़ा रहता है। उस पर चोट करने वालों को स्वयं ही परास्त होना पड़ता है।

सदुद्देश्य, सद्भाव, सत्कर्म, सत्संकल्प, चाहे कितने ही छोटे रूप में सामने आवें यथार्थ में इनमें बड़ी भारी प्रभावशालिनी महानता छिपी रहती है। हजारों आडम्बरों से लिपटा हुआ असत्य जो कार्य नहीं करता वह कार्य सीधी और सरल सत्यता द्वारा पूरा हो जाता है। सत्यनिष्ठ पुरुष प्रभावशाली, तेजस्वी और शक्तिशाली होता है, जो सत्यनिष्ठ है, मन, कर्म और वचन से सत्य परायण रहते हैं, उनके बल की किसी भी भौतिक बल से तुलना नहीं की जा सकती।

गायत्री का 14 वाँ अक्षर ‘धी’ सर्वतो मुखी उन्नति की प्रेरणा करता है। हम एक ही बल से सन्तुष्ट न रहें वरण उपरोक्त आठों दिशाओं में जीवन का विकास करें तभी गायत्री माता के सच्चे आज्ञानुवर्ती कहला सकते हैं।


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