भूतल पर स्वर्गीय सुख

May 1948

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गायत्र्युपासकस्वान्ते सत्कामाउद्मवन्तिहि। तत्पूर्तयेऽभिजायन्ते सहजं साधनान्यपि।।

(हि) निश्चय से गायत्र्युपासकस्वान्ते) गायत्री के उपासक के हृदय में (सत्कामाः) सदिच्छाएं (उद्मवन्ति) पैदा होती हैं (तत्पूर्तये) उनकी पूर्ति के लिए (सहजं) आसानी से (साधनानि अपि) साधन भी (अभिजायन्ते) पैदा होते हैं।

त्रुटयः सर्वधादोषा विघ्नायान्ति यदान्तताम्।

मानवो निर्भय याति पूर्णोन्नतिपथं तथा।।

(यदा) जब (सर्वधा) सब प्रकार के (दोषः) दोष (त्रुटयः) कमियाँ (विघ्नाः) और विघ्न (अन्तताँ ) विनाश को (यान्ति) प्राप्त हो जाते हैं (तदा) तब (मानवः) मनुष्य (निर्भय) निर्भय होकर (पूर्णोन्नतिपथं) पूर्ण उन्नति के मार्ग पर (याति) चलता है।

वाह्यश्चाभ्यन्तरमस्य नित्यं सन्मार्गगामिनः उन्नतेरुभयं द्वारं यात्युन्मुक्त कपाटताम्।।

(नित्यं) नित्य (सन्मार्ग गाभिनः) सन्मार्ग पर चलने वाले (आस्य) इस व्यक्ति के (वाह्यं) वाह्य (च) और (आभ्यन्तरं) भीतरी (उभयं) दोनों (उन्नतेः) उन्नति के (द्वारं) द्वार (उन्मक्तकपाटर्तायाति) खुल जाते हैं।

गायत्री की साधना से मनुष्य के अन्तःकरण में एक मौलिक परिवर्तन होता है। उसकी वृत्तियाँ-इन्द्रिय भोग, धन संचय, अहंकार, मनोरंजन, मोह, स्वार्थ, द्वेष जैसी तुच्छ तृष्णाओं से विमुख हो जाती हैं, उनमें कुछ भी रस प्रतीत नहीं है, और न इनकी पूर्ति का लाभ कोई वास्तविक लाभ दिखाई देता है। इस अज्ञान के, माया के, भोगवाद के, बन्धन शिथिल पड़ जाते हैं और आध्यात्मिक रसों में आनन्द आने लगता है। इसकी इच्छाएं लोक सेवा, परोपकार, दया, प्रेम, उदारता, त्याग, संयम, धर्म, सेवन, सतोगुण परायणता एवं ईश्वर प्राप्ति की ओर मुड़ती हैं और दिन दिन इसी मार्ग पर बढ़ती चली जाती हैं।

इस परिवर्तन के फलस्वरूप साधक उस प्रकार नहीं सोचता, उस प्रकार की कामनाएं नहीं करता, जिस प्रकार से कि मोहग्रस्त साधारण जीव किया करते हैं। रूपवती रमणी, स्वादिष्ट भोजन, महल, मोटर, सन्तान, सेवक, धन दौलत के खजाने, प्रतिष्ठा, पदवी, हुकूमत आदि की इच्छाएं लोग किया करते हैं कोई वस्तु कितनी ही उचित मात्रा में उन्हें प्राप्त क्यों न हो पर सन्तोष नहीं होता। अधिक! अधिक! और अधिक!!! के लिए उनकी तृष्णा बढ़ती रहती और कितना ही प्राप्त हो जाने पर भी वह शान्त नहीं होती। इसी अशान्ति में मनुष्य सदा जलते, कुढ़ते और रोते कलपते रहते हैं। भौतिक पदार्थ संसार में इतनी मात्रा में ही परमात्मा ने पैदा किये हैं कि वे सबके हिस्से में कामचलाऊ भाग आ सके। सर्वग्राही-अनन्त तृष्णा की पूर्ति हो सके इतनी मात्रा में पदार्थों की उत्पत्ति ही नहीं हुई है फिर वे मिल ही कैसे सकते हैं? दूसरे योग्यता, प्रयत्न, आवश्यकता, पात्रत्व, प्रारब्ध, परिस्थिति, कर्मभोग आदि कारणों से भौतिक पदार्थों की, साँसारिक परिस्थितियों की वैसी स्थिति प्राप्त नहीं हो पाती, जैसी की सर्व सुख सम्पन्न, सर्व मनोकामनापूर्ण अवस्था मनुष्य प्राप्त करना चाहता है। तीसरे उस मोह ग्रस्त मनुष्य की शारीरिक और मानसिक दशा ऐसी विपन होती है कि प्राप्त वस्तुओं की सुख भोगने में वह असमर्थ रहता है और तृष्णा की रट लगा लगा कर अपना गला सुखाता रहता है। ऐसे मूड़ मायाबद्ध जीव-किसी न किसी कारण वश जीवन भर रोते कलपते रहते हैं और अन्त में अशान्त, अतृप्त एवं दुखी मन से अपनी जीवन यात्रा समाप्त करते हैं। परन्तु गायत्री का साधक अपने परिवर्तित दृष्टि कोण के कारण इस प्रपंच से बचा रहता है। उसकी इच्छाएं सात्विक होने के कारण स्वाभाविक, सीमित और स्वल्प श्रम साध्य होती हैं जिनकी पूर्ति आसानी से हो जाती है।

विवेकवान व्यक्ति सोचता है। जीवन इसलिए नहीं मिला है कि उसे भौतिक पदार्थों की असंभव तृष्णा के ऊपर उत्सर्ग कर दिया जाय। भौतिक पदार्थों की, साधन सामग्रियों की, आवश्यकता इसलिए है कि उनकी सहायता से उद्देश्य पूर्ति के पथ पर चलने में सुविधा और सहायता मिले। पर यदि वे सहायक होने के स्थान पर भार स्वरूप बन जायं, उन्हीं की उलझनों में उद्देश्य नष्ट हो जाय तो इन साधन सामग्रियों के होने से, न होना ही अच्छा। यात्री लोग रास्ते के लिए अक्सर भोजन साथ में रखते हैं, क्योंकि इससे भूख के समय- तुरंत आवश्यकता पूर्ति हो जाती है, यह बुद्धिमत्ता भी है। परन्तु यदि कोई यात्री एक दो मन भोजन की गठरी बाँधकर सिर पर रख ले और उसके बोझ से नानाविधि कष्ट सहता हुआ यात्रा करे तो इसे मूर्खता ही कहा जायगा। विवेकवान् व्यक्ति सोचता है कि भौतिक सामग्रियों की निष्प्रयोजन तृष्णा करने से यात्रा के उद्देश्य में बाधा ही उपस्थित होगी इसलिए वह केवल बहुत ही सीमित, आवश्यकता पूर्ति भर के लिए वस्तुएं चाहता है जिनकी पूर्ति ईश्वरीय विधान के अनुसार आसानी से हो जाती है। यदि कारण वश इन सामग्रियों में कोई कमी रह जाती है तो वह अपने सन्तोष, त्याग, तितीक्षा, तपश्चर्या, अपरिग्रह आदि गुणों के कारण उस अभाव को अनुभव न करता हुआ हर दशा में प्रसन्न रहता है।

जिन कामनाओं की पूर्ति के लिए, मनोवाँछा को तृप्त करने के लिए, अज्ञानी मनुष्य हर घड़ी लालायित, चिन्तित रहते हैं, मनौती मनाते हैं, देवी देवताओं को पूजते हैं, आकाश पाताल में कुलावे लगाते हैं और उसी गोरखधन्धे में जीवन के बहुमूल्य क्षणों की बरबाद कर लेते हैं। उनकी ओर ज्ञानवान व्यक्ति आँख उठाकर भी नहीं देखता। जिन वस्तुओं के अभाव में अज्ञानी छाती पीटता है, सिर धुनता है और हाय हाय करता है तथा जिनकी प्राप्ति पर हर्ष से उन्मत्त हो जाता है, अहंकार से अकड़ जाता है, उन प्रपंचों की ओर ज्ञानी की कोई प्रवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार वह अनायास ही अज्ञानियों को सताने वाली, कामनाओं, इच्छाओं, तृष्णाओं की जलन से सहज ही छुटकारा पा जाता है। इस तरह उसके ऊपर से एक बड़ा भारी चिन्ताओं और मानसिक क्लेशों का बोझा उतर जाता है। दृष्टिकोण के परिवर्तन मात्र से साँसारिक लोगों को सताने वाले अधिकाँश दुख, उस से स्वयमेव दूर भाग जाते हैं।

उसकी इच्छाएं ऐसी होती हैं जो स्वयं अपने में एक आनन्द है। तृष्णाओं का चिन्तन करते समय एक बेचैनी, लालसा एवं कमी का अनुभव होता है पर सेवा, संयम तथा परमार्थ का चिन्तन करने मात्र से-उनकी कल्पना इच्छा आयोजना करने मात्र से-हृदय में एक दैवी आनन्द का तरंगें उठने लगती हैं। उन इच्छाओं का पूर्ण होना देवाधीन नहीं होता, परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता वरन् पूर्णतया अपने हाथ में होता है। कोई व्यक्ति सत्य वादी, प्रेमी, उदार, सेवा भावी बनना चाहता है, दूसरों के लिए अपनी शक्तियाँ दान करना चाहता है, संयम से रहना चाहता है, प्रेम पूर्ण व्यवहार करना चाहता है, सदाचारी, खरा, ईमानदार बनना चाहता है तो इस में न कोई विघ्न है न किसी की सहायता की आवश्यकता है। इच्छा होते ही उसे कार्यरूप में परिणत किया जा सकता है और क्रिया के साथ साथ ही उस आत्म संतोष के दैवी आनन्द का फल चखा जा सकता है।

उलटा दृष्टिकोण, भौतिक लक्ष, जब बदल जाता है तो मन, वचन और काया से कोई पाप कर्म नहीं बन पड़ता। भूलें, त्रुटियाँ, कमियाँ तभी होती हैं जब आदमी डूबता उतराता है, अभी इधर कभी उधर देखता है। किन्तु जब एक लक्ष्य स्थिर हो गया, एक राज पथ पर यात्रा चल पड़ी, एक आदर्श के प्रति निष्ठा अचल हो गई, तो न तो मन विचलित होता है और न भूलों की, त्रुटियों की गुंजाइश रहती है। ऐसा एकनिष्ठ साधक निर्भय होता है, जहाँ सत्य है वहाँ भय कहाँ ? जिसके विचार और कार्य सतोगुण से परिपूर्ण हैं उसे किसी से डरने की क्या जरूरत? ऐसा निर्भय दृढ़चित्त, सत्य परायण मनुष्य पूर्ण उन्नति के वाह्य और आन्तरिक उन्नति के पथ पर तेजी के साथ बढ़ता चला जाता है।

उसकी आत्मा तो आनन्द सागर में निमग्न रहती ही है साथ ही साँसारिक सम्पदाओं की भी उसे कमी नहीं रहती। संयमी आहार विहार के कारण उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है दृष्टिकोण की शुद्धि के कारण मानसिक शान्ति का बाहुल्य रहता है, परिश्रमशीलता, जागरुकता और एकाग्रता के कारण उसके सब व्यापार अच्छे चलते हैं, मधुर उदारतापूर्ण व्यवहार के कारण अनेकों मित्र और सहयोगी मिल जाते हैं, ईमानदारी और सेवा भावना के कारण प्रतिष्ठा बढ़ती है, गतिविधि का आधार सचाई होने के कारण निर्भयता रहती है। इन सब कारणों से धन ऐश्वर्य तथा उन सब वस्तुओं की भी साधक को कमी नहीं रहती जिनके लिए कि मोहग्रस्त व्यक्ति विलाप करते फिरते हैं। इन वाह्य सुखों के अतिरिक्त सत् परायण के आन्तरिक आनन्द का तो कहना ही क्या? इसका जीवन सब प्रकार आनन्दमय बन जाता है और इस भूतल पर ही उसे स्वर्गीय सुखों का रसास्वादन करने का अवसर मिलता है।

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