विघ्न विदारक-अनुष्ठान

May 1948

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दन्यं रुक्छोक चिन्तानाँ विरोधाक्रमणापदाम्।

कार्यं गायत्र्यनुष्ठानं भयानाँ वारणायच।।

(दैन्य रुक् शोक चिन्तानाँ) गरीबी, रोग, शोक, चिन्ता (विरोधाक्रमणापदाँ) विरोध, आक्रमण, आपत्तियाँ (च) और (भयानाँ) भय इनके (वारणाय) निवारण के लिए (गायत्र्यनुष्ठानं) गायत्री का अनुष्ठान (कार्य) करना चाहिए।

जायते स्थितिरस्मात्साभिलाषा मन ईप्सिताः। यतः सर्वेऽभि जायन्ते यथाकालं हि पूर्णताम्।।

(अस्मात्) इस अनुष्ठान से (सा) वह (स्थितिः) स्थिति (जायते) पैदा होती है (यतः) जिससे (सर्वे) समस्त (मन्द ईप्सिताः) मनोवाँछित (अभिलाषाः) अभिलाषाएं (यथाः कालं) यथा समय (पूर्णता) पूर्णता को (जायन्ते) प्राप्त होती हैं।

अनुष्ठावातु वै अस्माद् गुप्ताध्यात्मिक शक्तयः। चमत्कार मया लोके प्राप्यन्तेऽनेकघा वुधेः।।

(तस्मात्) उस (अनुष्ठानातु) अनुष्ठान से (वुधैः) बुद्धिमानों को (लोके) संसार में (चमत्कार मयाः) चमत्कार से पूर्ण (अनेकघाः) अनेक प्रकार की (गुप्ताध्यात्मिक शक्तयः) गुप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ (प्राप्यन्ते) प्राप्त होती हैं।

साधारणतः नित्य कर्म आत्मशुद्धि, सात्विकता की वृद्धि, परमात्मा की प्राप्ति आदि आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिये गायत्री की निरन्तर उपासना आवश्यक है, उसको अपने दैनिक कार्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिये। इसके अतिरिक्त किन्हीं विशेष प्रयोजनों के लिये, विशेष अवसरों पर उसका विशेष रूप से आवाहन किया जाता है। जैसे बच्चा साधारणतः दिन भर माँ को पुकारता रहता है और माँ भी उसे उत्तर देकर उसका समाधान करती रहती है। यह लाड़−दुलार यथावत् चलता रहता है और माँ बेटा दोनों प्रसन्न रहते हैं। पर किसी विशेष आपत्ति के अवसर पर, गिर पड़ने, चोट लगने पर, चींटी के काट खाने पर, बन्दर बिल्ली आदि से डर जाने पर, बच्चे विशेष रूप से माँ को पुकारता है, उसके शब्द तो वही होते हैं ‘माँ’ पर उन शब्दों के साथ भाव लहरी, उच्चारण विधि, आतुरता, असाधारण होती है, इस असाधारणता को माता तुरन्त समझ जाती है और सब काम छोड़कर बालक के पास दौड़ी जाती है।

लोग आपस में एक दूसरे का नाम लेकर साधारण रीति से पुकारते रहते हैं और एक दूसरे को उत्तर प्रत्युत्तर देते रहते हैं। पर कोई आकस्मिक आपत्ति आने पर, दुर्घटना होने पर एक व्यक्ति असाधारण विधि से दूसरे का नाम लेकर पुकारता है, इस पुकारने में सहायता की आवश्यकता छिपी होती है। इस छिपी आवश्यकता को उसका मित्र तुरन्त समझ लेता है और सब काम को छोड़ कर उसकी सहायता के लिये दौड़ा आता है। दैवी तत्वों के संबन्ध में भी यही बात है। साधारणतः सभी लोग राम का नाम लेते हैं, राम राम, कृष्ण कृष्ण कहते रहते हैं, उनकी श्रद्धा के अनुसार उन्हें फल भी मिलता रहता है, पर कभी कभी भक्त की पुकार असाधारण श्रद्धा और आतुरता से भरी हुई होती है, ऐसी स्थिति कभी निष्फल नहीं होती। गज की पुकार पर भगवान का नंगे पैरों दौड़ना, नरसी की पुकार पर हुण्डी बरसाना, द्रौपदी के पुकारते ही चीर बढ़ाना, प्रहलाद की पुकार पर खंभे से नृसिंह प्रकट होना, जैसी आकस्मिक सहायतायें भक्तों को अविलम्ब प्राप्त होती रही हैं और होती हैं।

ऐसी ही असाधारण स्थितियों में गायत्री माता को भी पुकारा जा सकता है। जब मनुष्य दरिद्रता से, आर्थिक संकट से ग्रस्त हो रहा हो, पैसे के बिना अत्यन्त आवश्यक कार्य रुके पड़े हों, बीमारी ने अड्डा जमा रखा हो, आये दिन स्वास्थ्य खराब रहता हो, कोई कष्ट साध्य रोग पीछे पड़ गया हो, किसी प्रियजन की मृत्यु अथवा विछोह होने से, धन आदि का नाश होने से, चित्त शोकाकुल हो रहा हो, चिन्तायें सता रही हों, किसी के विरोध अथवा आक्रमण से अपने मान, धन तथा शरीर की हानि होने की आशंका हो, कोई आकस्मिक आपत्ति आ गई हो, विपदा के बादल सिर पर मंडरा रहे हों, भविष्य अन्धकारमय दिखाई पड़ रहा हो, शत्रुओं से निष्ठुर रुख अपनाया हुआ हो, भय से, अनिष्ट की संभावना से हृदय धड़क रहा हो, आवश्यक कार्य-किसी विघ्न के आ जाने से रुक गया हो, सफलता की आशा क्षीण हो गई हो अपने-विराने हो गये हों, जिनसे सहयोग की आशा होनी चाहिये उन्होंने शत्रुता धारण कर रखी हो, तो मनुष्य का चित्त डावाँडोल हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसका साहस शिथिल पड़ जाता है और बुद्धि कोई ठीक निर्णय करने में अपने को असमर्थ पाती है। ऐसी किंकर्तव्य विमूढ़ दशा में पड़े हुए व्यक्ति को गायत्री माता को पुकारना चाहिए, सच्ची पुकार को सुनकर माता कभी चुप नहीं बैठती वह निश्चित रूप से सहायता के लिये दौड़ी आती हैं।

गज, द्रौपदी, नरसी, प्रहलाद आदि की पुकार में एक विशेषता थी, उस विशेषता ने ही भगवान को तुरन्त सहायता करने के लिये विवश किया। गायत्री माता को भी आपत्ति के समय एक विशेषता के साथ पुकारना अभीष्ट फल दायक होता है। इस विशेष पुकार को कहते हैं-‘सवालक्ष अनुष्ठान’। इस अनुष्ठान से साधक में एक विशेष प्रकार की आध्यात्मिक आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है जिनसे सूक्ष्मलोक से उसके पास आवश्यक साधन सामग्री खिंचकर आती है।

भूगर्भ विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि मिट्टी में मिले हुए धातुओं के कण अपनी चुम्बक शक्ति से बड़ी खानों के रूप में बन जाते है। मनः शास्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि एक प्रकार के विचार मस्तिष्क के धारण करने से उसका आकर्षण तत्व बनता है और उसके द्वारा आकाश में फैले हुए असंख्य विचार खींच कर वहाँ जमा हो जाते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म शास्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि किसी तीव्र आकाँक्षा की पूर्ति के लिये आत्मा अपनी शक्तियों को एकत्रित करके सूक्ष्म लोक में अपना चुम्बकत्व फेंकती है तो आवश्यक परिस्थितियाँ, घटनायें तथा साधन सामग्रियां सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा खिंचती चली आती हैं और साधक उनसे सम्पन्न हो जाता है। यह अध्यात्म विज्ञान की सूक्ष्म प्रणाली, वाह्यतः भगवान कृपा, दैवी सहायता या अदृश्य वरदान के नाम से पुकारी जाती है। प्रार्थना, पूजा, यजन, अनुष्ठान आदि के लाभ इसी विज्ञान पर अवलंबित हैं।

गायत्री के सवालक्ष मंत्र जपने को अनुष्ठान कहते हैं। इस अनुष्ठान से अनेक बुद्धिमानों ने अब तक गुप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त की हैं और उनके चमत्कार पूर्ण लाभों का रसास्वादन किया है। जिस मनोरथ के लिये अनुष्ठान किया जाता है उस मार्ग की प्रधान बाधायें दूर हो जाती हैं और कोई न कोई ऐसा साधन बन जाता है कि जो कठिनाई पहाड़ सी प्रतीत होती थी वह छोटी ढेला मात्र रह जाती है, जो बादल प्रलय बरसने वाले प्रतीत होते थे वे थोड़ी सी बूँदें छिड़क कर विलीन हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों के कठिन भोग बहुत हल्के होकर, नाम मात्र का कष्ट देकर अपना कार्य समाप्त कर जाते हैं। जिन भोगों को भोगने में साधारणतः मृत्यु तुल्य कष्ट होने की संभावना थी वे गायत्री की कृपा से एक छोटा फोड़ा बनकर सामान्य कष्ट के साथ भुगत जाते हैं और अनेक जन्मों तक भुगती जाने वाली कठिन पीड़ायें, हल्के हल्के छोटे-छोटे रूप में इसी जन्म में समाप्त होकर आनन्दमय भविष्य का मार्ग साफ कर देती हैं। इस प्रकार के कष्ट भी गायत्री माता की कृपा ही समझने चाहिये।

कभी-कभी ऐसा ही देखा जाता है कि जिस प्रयोजन के लिये अनुष्ठान किया गया था वह तो पूरा नहीं हुआ पर दूसरे अन्य महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त हुए। किसी पूर्व संचित प्रारब्ध कर्म का फल भोग अनिवार्य हो और उसका पलटा जाना दैवी विधान के अनुसार उचित न हो, तो भी अनुष्ठान का लाभ तो मिलना है ही, वह किसी दूसरे रूप में अपना चमत्कार प्रकट करता है, साधक को कोई न कोई असाधारण लाभ उससे अवश्य होता है। उससे भविष्य में आने वाले संकटों की पूर्व ही अन्त्येष्टि हो जाती है और सौभाग्य के शुभ लक्षण प्रकट होते हैं। आपत्ति निवारण के लिये गायत्री का सवा लक्ष अनुष्ठान-एक राम बाण जैसा आध्यात्मिक साधन है। किसी वस्तु के पकने के लिये एक नियत काल या तापमान की आवश्यकता होती है। फल, अण्डे आदि के पकने में एक नियत अवधि की आवश्यकता होती है और दाल, साग, चासनी, ईंट, काँच आदि की मिट्टी पकने में अमुक श्रेणी का ताप मान आवश्यक होता है। गायत्री की साधना पकने का माप दंड सवा लक्ष जप है। पकी हुई साधना ही मधुर फल देती है।

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