आदि शक्ति को प्रणाम

May 1948

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ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रुपेभ्य स्त्रिभिर्वालोक पालिनी। भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका॥1॥

(ह्रीं, श्रीं, क्लीं) ह्रीं, श्रीं, क्लीं (इति) इन (त्रिभिः) तीन (रुपेभ्यः) रूपों से (लोक पालिनी) संसार का पालन करने वाली (त्रिगुणात्मक) गायत्री (लोके) संसार में (सततं) निरन्तर (भासते) प्रकाशित होती है।

आदि शक्तिस्त्वियं विष्णोस्तामहं प्रणामामिहि। सर्गः स्थितिविनाशश्च जायन्ते जगतोऽनया ॥2॥

(इयंतु) यह ही (विष्णोः) परमात्मा की (आदि शक्तिः) आदि शक्ति है (ताँ) उसको (अहं) मैं (प्रणामामि) प्रणाम करता हूँ (अनया) इसी शक्ति से (जगतः ) संसार का (सर्गः) निर्माण (स्थितिः) पालन (च) और (विनाशः) विनाश (जायन्ते ) होता है।

सृष्टि के प्रारंभ का मूल हेतु परमात्मा की ‘द्विधा’ है। एक अव्यय परमात्मा ने जब बहुत होने की इच्छा की, तो वह इच्छा-स्फुरणाशक्ति कहलाई। इस प्रकार अद्वैत ब्रह्म द्वैत हो गया। एक अखंड, अलख, अगोचर, इन्द्रियातीत, निराकार निर्विकार परमात्मा जब सृष्टा के रूप में आता है तो उसे द्विधा देखा जाता है। लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम, उमाशंकर माया ब्रह्म, शक्ति शिव, आदि नामों से उसे पुकारते हैं।

सूर्य अपने कक्ष में, अपनी एक रस गतिविधि से क्रिया मग्न रहता है। किसी के प्रति राग द्वेषात्मक भावनाएं उसके नहीं हैं, परन्तु उसकी किरणें दौड़ती हुई पृथ्वी तक आती हैं और क्षेत्र, ऋतु, वातावरण तथा जीवों की स्थिति के अनुकूल विविध प्रकार के प्रभाव डालती हैं। सप्तवर्ण की किरणें विविध गुणों से युक्त होती हैं। जो सूर्य चिकित्सा विज्ञान के रहस्य को जानते हैं उन्हें पता है कि सूर्य की विविध किरणों में गुणों की कितनी भिन्नता है। एक व्यक्ति को एक प्रकार की सूर्य किरणें अमृतोपम लाभ प्रदान करती हैं तो दूसरे प्रकार की किरणें हानिकारक परिणाम उपस्थित कर सकती हैं। सूर्य एक है, उसकी शक्ति किरणें भी एक ही हैं। पर सूक्ष्म भेदों के कारण उसके सूक्ष्म प्रभावों में भारी अन्तर उत्पन्न हो जाता है।

परमात्मा एक है उसकी शक्ति एक है। पर जिस प्रकार परमात्मा एक से दो हो गया उसी प्रकार उसकी शक्ति एक से तीन हो जाती है। इन तीन का नाम आध्यात्म विद्या के सूक्ष्म दर्शियों ने ह्रीं, श्रीं, क्लीं रखा है। यह शब्द काल्पनिक नहीं हैं वरन् सृष्टि के सूक्ष्म शान्त अन्तराल में इस त्रिविधि शक्ति की प्रतिध्वनियाँ हैं। योगियों ने समाधि अवस्था में जाकर प्रकृति की मूलभूत-सूक्ष्म स्थिति की अनुभव किया। वहाँ तीर्थ राज प्रयाग की तरह तीन धाराएं प्रवाहित होती हैं। सत् मयी भाग में निमग्न होने पर योगी को एक सूक्ष्म शब्द सुनाई पड़ता है। जैसे काँसे की घड़ियाल में हलकी सी हथौड़ी मार देने पर वह झनझनाती रहती है और उसे अन्त में ई कार और अनुस्वार का सम्मिलित “हलका सा ईं” शब्द गूँजता रहता है इसी प्रकार सतोगुणी धारा में ह्रीं, रजोगुणी में ‘श्रीं’, तमोगुणी में क्लीं शब्द गूँजता हुआ अनुभव में आता है।

यह धाराएं अपनी कार्यप्रणाली के कारण एक दूसरे से भिन्न भी प्रतीत होती हैं। ह्रीं उत्पादक है, श्रीं पोषक है, क्लीं संहारिणी है। इसी से उन्हें क्रमशः ब्राह्मी, नारायणी और शाँभवी भी कहा जाता है। पुलिंग शब्दों में उन्हीं शक्तियों को ब्रह्मा विष्णु और महेश कहा जा सकता है। गुणों के विभाग में इन्हें सत्, रज, तम कहा जायगा।

ब्रह्म की आदि शक्ति का नाम गायत्री है। वह त्रिगुणात्मक है। ब्रह्म परायणा साधक उसके ह्रीं रूप की आराधना करते हैं, अध्यात्मिक उन्नति के लिए, आत्म साक्षात्कार के लिए परमानन्द और मुक्ति के लिए उसी का आश्रय ग्रहण किया जाता है। अर्थ परायणा-किसी कामना की पूर्ति के इच्छुक-साँसारिक संपदा और ऐश्वर्य चाहने वाले साधक उसके श्रीं रूप की उपासना करते हैं। तमोगुणी ताँत्रिक, मारण, मोहन उच्चाटन, वशीकरण आदि अभिचारों में क्लीं तत्व का पुरश्चरण किया जाता है। ह्रीं सरस्वती के रूप में, श्रीं-लक्ष्मी के रूप में क्लीं दुर्गा के रूप में पूजी जाती है। जो साधक जिस गुण की उपासना करता है उससे उन्हीं तत्वों का आविर्भाव विशेष रूप से होता है। उसकी प्रकृति उसी ढाँचे में ढलती है, स्वभाव वैसा बनता है, योग्यताएं और शक्तियाँ वैसी ही बढ़ती हैं, तथा उसी के अनुरूप सफलताओं का मार्ग प्रशस्त होता है।

अपने में किन्हीं गुण, कर्म स्वभावों की उत्पत्ति के लिए ह्रीं का किन्हीं तत्वों की वृद्धि के लिए श्रीं का, और किन्हीं दोष दुर्गुणों के निवारण के लिए क्लीं का आराधन किया जाता है। समय समय पर- भले बुरे सभी प्रकार के प्रयोजनों के लिए उपयोगितानुसार तीनों ही तत्वों की आवश्यकता होती है। क्योंकि मनुष्य तीनों ही तत्वों का बना हुआ है। प्रयोजन, आवश्यकता, उपयोगिता तथा मात्रा के भेद से इन तत्वों में न्यूनाधिकता तो प्रयोजनीय होती है पर उपास्य तीनों ही हैं। इसलिए त्रिमुखी वेदमाता गायत्री का साधक अभिवादन, प्रणाम, नमस्कार करता है।

किसी के प्रति श्रद्धा, सम्मान, उच्च भावना, प्रतिष्ठा की स्थापना अपने मन में करने से ही उसकी और खिचाव, आकर्षण, प्रेम तथा निष्ठा की उत्पत्ति होती है और इस उत्पत्ति के आधार पर ही साधन में प्रीति होती है, मन लगता है, उत्साह बढ़ता है तथा दृढ़ता रहती है। इन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम गायत्री माता को श्रद्धा और विश्वास पूर्वक प्रणाम किया जाता है।

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