सतोगुणी ब्राह्मी शक्ति

May 1948

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परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते सूक्ष्मा च सात्विकी सैव गायत्री त्यभिधीयते।

(लोक) संसार में (परमात्मनः) परमात्मा की (या) जो (सूक्ष्म) सूक्ष्म (च) और (सात्विकी) सात्विक (ब्रह्मशक्तिः) ब्रह्मशक्ति (विराजते) विद्यमान है (सैव) वह ही (गायत्री इति ) गायत्री (अभिधीयते) कही जाती है।

प्रभावादेव गायत्र्या भूतानामभिजायते।

अन्तः करणेषु दैवानाँ तत्वानाँ हि समुद्भवः।

(भूतानाँ) प्राणियों के (अन्तःकरणेषु) अन्तःकरणों में (दैवीनाँ ) दैवी (तत्वानाँ ) तत्वों का (समुद्भवः) प्रादुर्भाव (गायभ्याः) गायत्री के (एव) ही (प्रभावात् ) प्रभाव से होता है।

गायत्री परमात्मा की वह शक्ति है जो सृष्टि में चैतन्यता, सजीवता विचार शक्ति के तत्वों को उत्पन्न करती है। मूल में यह सत है। ब्रह्म से उत्पन्न शक्ति भी मूलतः ब्राह्मी ही है, उसमें ब्रह्मत्व ओत प्रोत है। इस ब्रह्मत्व को धारण करने से मनुष्य ब्राह्मण बन जाता है। गायत्री वह ब्राह्मी शक्ति है जो सात्विक उच्च आध्यात्मिक तत्वों का धारण किये हुए है। मूल में वह ऐसी ही है। विकारों के संमिश्रण से वह दूसरे प्रकार की भी हो जाती है। अग्नि मूलतः शुद्ध तेज तत्व है। पर उसमें विषैले दूषित दुर्गन्धित पदार्थ डाल दिये जायं तो उसका वर्ण एवं गुण भी वैसा ही बन जाता है। गायत्री - चैतन्यता-मूलतः परमात्म तत्व से संबंधित होने के कारण देवत्व से परिपूर्ण है। परन्तु रज और तम के समन्वय से वह उस रूप में भी प्रकट होती है। रजोगुण के समन्वय से उसका रूप लक्ष्मी हो जाता है। तमोगुण के मिश्रण से वह दुर्गा के रूप में प्रकट होती है।

हंस वाहिनी-सरस्वती-गायत्री का दूसरा नाम है। हंस दूध पीता है पानी को छोड़ देता है। हंस वाहिनी गायत्री भी शुद्ध सतोगुण धारण करती है। विशुद्ध तेज के समान, सूर्य के समान अपने मूल स्वरूप में दीप्त मान रहती है। इसलिए आध्यात्मिक सुख चाहने वाले, आत्मोन्नति की आकाँक्षा करने वाले गायत्री की उपासना करते है। अग्नि में सुगंधित पदार्थ डालने से उसमें से सुगंधित धुँआ निकलता है और उसमें दुर्गंधित पदार्थ जलाने से दुर्गंधि फैलती है। मूलतः अग्नि गंध रहित है। चैतन्य तत्व भी मूलतः सतोमय है। पर धन, ऐश्वर्य एवं भोग वैभव की इच्छाओं के कारण वह लक्ष्मी बन जाती है और संघर्ष विनाश, रक्षा, आक्रमण की स्थिति में वह दुर्गा कही जाती है। इस प्रकार एक ही चैतन्यता शक्ति सरस्वती (गायत्री ) लक्ष्मी तथा दुर्गा के रूप में भी दृष्टि गोचर होती है। संसार भर के प्राणियों में व्यापक चैतन्यता-आत्म प्राप्ति, ऐश्वर्य (लोभ ) तथा संघर्ष इन तीन कार्यों में लगी हुई है। इन तीन कार्यों के असंख्यों रूप हैं। असंख्यों कार्यक्रम हैं। असंख्यों आयोजन हैं, पर धाराएं तीन ही हैं।

इतना सब होते हुए भी गायत्री के मूल स्वरूप में कोई विकार नहीं आता। ब्रह्म-सत्, चित् आनन्द स्वरूप है, सत्य, शिव, सुन्दर है। उसकी चैतन्यता ब्राह्मी शक्ति भी इन्हीं गुणों से परिपूर्ण है। बादल, धूलि, वर्षा, ग्रहण, उदय-अस्त, ऋतु परिवर्तन, स्थान विशेष आदि की स्थितियों के कारण सूर्य के रंग रूपों में भारी हेर फेर दृष्टि गोचर होता रहता है, तो भी सूर्य का मूल वर्ग अपरिवर्तनशील रहता है। इसी प्रकार संसार की चैतन्य शक्ति को, प्राणसत्ता को, प्राणधारी स्वेच्छापूर्वक विविध दिशाओं में प्रयोग करते हैं-इससे उत्तम, मध्यम और निकृष्ट कार्य करते हैं तो भी मूलतः वह शक्ति अपने आपमें निर्विकार रहती है। रुपये को बुरे काम में भी खर्च किया जा सकता है, भले में भी। बिजली से लाभ भी उठाया जा सकता है और भारी अभिष्ट भी किया जा सकता है। शस्त्रास्त्रों का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। इतना सच होते हुए भी रुपया बिजली एवं शस्त्रास्त्रों के मूलतत्व में कोई विकार नहीं आता।

संसार में चैतन्य सत्ता के बुरे, घृणित लोभपूर्ण, भोग ऐश्वर्य अभिमुखी कार्यों में भी उपयोग हो रहा है। गंगाजल से माँस भी पकाया जाता है और मदिरा भी बनाई जाती है। पर इतने मात्र से न तो गंगा के गौरव में कमी आती है और न गायत्री शक्ति का गौरव घटता है ब्राह्मी शक्ति-वस्तुतः ब्रह्म का ही प्रस्फुरण है। ब्रह्म का जो गुण कर्म स्वभाव है वही ब्राह्मी का-गायत्री का है। इसलिए वह सदा सतोमयी शान्तिमय ही रहती है। उसकी उपासना से इन्हीं गुणों की प्राप्ति होती है।

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