नौ निद्धियों की प्राप्ति

May 1948

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शौचं शान्तिर्विवेकश्चैतल्लाभ त्रयमात्मिकम्। पश्चादावाप्यते नूनं सुस्थिरं तदुपासकम्।।

(सुस्थिरं) मनको वश में रखने वाले (तदुपासकः) उस गायत्री के उपासक को (पश्चात) बाद में (शौच) पवित्रता (शान्तिः) शान्ति (च) और (विवेकः) विवेक (एतत् ) ये (आत्मिकं) आत्मिक (लाभत्रयं) तीन लाभ (नूनं) निश्चय से (आवात्यते) प्राप्त होते हैं।

कार्येषु साहसः स्थैर्यं कर्मनिष्ठा तथैव च। एते लाभाश्चवै तस्माज्जायन्तेमानसास्रयः।।

(कार्येषु साहसः) कार्यों में साहस (स्थैर्यं) स्थिरता (तथैव च) और वैसे ही (कार्यनिष्ठा) कार्यनिष्ठ (एते) ये (त्रयः) तीन (लाभाः) लाभ (मानसाः) मन संबंधी (तस्मात्वै) उससे (जायन्ते) प्राप्त होते हैं।

पुष्कलं धनसमृद्धिः सहयोगश्च सर्वतः। स्वास्थ्यं वा त्रय एतेस्युस्तस्माल्लाभाश्चलौकिकः।

(पुष्कलं) पर्याप्त ( धन समृद्धिः) धन की समृद्धि (सर्वतः) सब ओर से (सहयोगः) सहयोग (च) और (स्वास्थ्यं वा) स्वस्थता (एते) ये (त्रयः) तीन (लोकिकाः) साँसारिक (लाभाः) लाभ (तस्मात) उससे (स्यु) होते हैं।

साधारण शारीरिक बल से सम्पन्न व्यक्ति अपने बाहुबल से बड़े बड़े कठिन कार्य कर डालता है और आश्चर्यजनक सफलताएं प्राप्त कर लेता है, फिर आत्म बल सम्पन्न व्यक्ति के बारे में तो कहना ही क्या है। शरीर जड़ पदार्थों का बना हुआ है, उसका बल भी जड़ एवं सीमित है। यह सीमा इतनी छोटी है कि पशु पक्षी और छोटे दर्ज के जीव−जंतु भी इस दृष्टि से बलवान से बलवान मनुष्य की अपेक्षा अधिक बलवान होते हैं। कुत्ते की सी घ्राणशक्ति, हिरन की सी चौकड़ी, बैल जैसी मजबूती, सिंह जैसी वीरता, मनुष्य में कहाँ होती है? और मछली की तरह जल में तथा पक्षियों की तरह हवा में वह आवागमन कहाँ कर सकता है? फिर भी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ-सृष्टि का मुकुट मणि बना बैठा है इसका कारण उसका आत्मिक बल ही है।

यह आत्मिक बल गायत्री तत्व को अधिक मात्रा में धारण करने से प्राप्त होता है जिनके द्वारा संसार के महापुरुषों ने अपने का आत्मिक बल से सम्पन्न बनाकर बड़े बड़े पुरुषार्थ किये हैं, उन अनेक उपायों में से एक सर्व सुलभ उपाय आध्यात्म विद्या के पारंगत आचार्यों ने ढूंढ़ निकाला है। उस उपाय का नाम है- गायत्री साधना। इस साधना से आत्मा में सात्विक चैतन्यता की मात्रा बढ़ती जाती है, फलस्वरूप जीवन की सभी दिशाओं में उसका प्रगति-परिचय मिलने लगता है। जब शरीर में रक्त बढ़ता है तो हाथ, पाँव, छाती, नाक, गाल, ओठ सभी में चैतन्यता, पुष्टि और लालिमा दृष्टि गोचर होने लगती है। जब कमरे में प्रकाश जलता है तो सभी खिड़कियों में से उसकी रोशनी बाहर निकलती है। आत्मा में जब बल बढ़ता है तो वह भी कई दिशाओं में उत्साहवर्धक ढंग से प्रकट होता है।

जीवन की प्रमुख दिशाएं तीन होती हैं (1) आत्मिक (2) बौद्धिक (3) साँसारिक। इन तीनों दिशाओं में आत्मबल बढ़ने से आनन्ददायक परिणाम प्राप्त होते हैं। इन तीनों दिशाओं में तीन लक्षण ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनसे जीवन सर्व सुखी बन जाता है। इन नौ सम्पदाओं की नव निद्धि भी कह सकते हैं। सिद्धियाँ देवताओं को प्राप्त होती हैं, ऋद्धियाँ असुरों को मिलती है और निद्धियाँ मनु की सन्तान मानव प्राणी को प्राप्त होती हैं। आत्मिक क्षेत्र की तीन निद्धियाँ (1) विवेक (2) पवित्रता (3) शान्ति हैं। बौद्धिक क्षेत्र की (1) साहस (2) स्थिरता (3) कर्तव्य निष्ठा हैं। और साँसारिक क्षेत्र की तीन निद्धियाँ (1) स्वास्थ्य (2) समृद्धि (3) सहयोग हैं। यह नौ लक्षण जीवन की सफलता के हैं। इन्हीं नौ गुणों को ब्राह्मण के नव गुण बताया है। भगवान रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ने पर क्रुद्ध परशुरामजी से उनके नव गुणों की प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया था।

“नवगुण परम पुनीत तुम्हारे।”

(1) विवेक- जब आत्मा में गायत्री तत्व की स्थापना होती है तो अंतःकरण में विवेक जागृत होता है। सत्-असत् का भेद स्पष्ट दिखाई पड़ने लगते हैं। शास्त्र, सम्प्रदाय, वर्ग, संस्कार स्थार्थ आदि की चार दीवारियों को छलाँग कर सत्य का दर्शन करने वाली ऋतम्भरा बुद्धि जागृत हो जाती है। उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म, के भेद को अनेकों व्यक्ति ठीक प्रकार नहीं समझ पाते। थोड़ी सी अड़चन से उनकी बुद्धि अर्जुन की भाँति मोहग्रस्त हो जाती है, परन्तु जिसमें विवेक की मात्रा बढ़ गई है, वह भ्रमित नहीं होता। वस्तुस्थिति की गहराई तक वह आसानी से पहुँच जाता है। सूक्ष्म मेधा, तत्व दृष्टि अथवा ऋतम्भरा बुद्धि से उसका आत्मा सम्पन्न होता है यह प्रथम निद्धि है।

(2) पवित्रता-भीतरी और बाहरी दो प्रकार की पवित्रता होती है। छल, कपट, दुराव असत्य, दंभ आदि के कारण अन्तः प्रदेश गंदा हो जाता है। भीतर कुछ तथा बाहर कुछ भाव रहने से मनोभूमि में गंदगी भर जाती है इसकी दुर्गन्ध कलुषता से नाना प्रकार के आन्तरिक रोग उपज पड़ते हैं। ऐसे लोग-चोरी, व्यभिचार शोषण, अनीति, लोभ, क्रोध, मद, मत्सर आदि घातक शत्रुओं के आसानी से शिकार हो जाते हैं। गायत्री तत्व की वृद्धि के कारण यह आन्तरिक अपवित्रता नष्ट होती है और स्वभाव बालकों की तरह सरल कोमल, स्वच्छ, निष्कपट बनता है। जो बात पेट में वही बाहर जो बाहर वह पेट में। इस प्रकार के निष्कपट स्वभाव वाले व्यक्तियों का अन्तःकरण बड़ा निर्मल रहता है और निर्मल हृदय में अपने आप दैवी सम्पदाओं का निवास होने लगता है।

वाह्य पवित्रता की दिशा में भी ऐसे मनुष्यों की अभिरुचि विशेष रूप से आकृष्ट रहती है। स्थान की, शरीर की, वस्त्रों की, प्रयोजनीय वस्तुओं की, सफाई की ओर उनका बड़ा ध्यान रहता है। प्रकृति के बनाये हुए सुन्दर स्वच्छ पदार्थों में उन्हें स्वभावतः प्रेम हो जाता है। बालक, वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी, नदी, पर्वतों की सुन्दरता उन्हें बहुत सुहाती है। उनका दृष्टिकोण स्वच्छ-पवित्र होने से उन्हें विचारों की, कार्यों की साधनों की स्वच्छता ही पसंद आती है।

(3) शान्ति- साधारण लोग जहाँ साधारण हानि लाभ से उत्तेजित, अशान्त व्याकुल एवं बेकाबू हो जाते हैं। हर्ष, शोक, क्रोध, निराशा, भय, चिन्ता, मद आदि के तूफान उनके भीतर छोटी छोटी घटनाओं के कारण उठते रहते हैं, जिससे उनके चित्त में सदा अस्थिरता रहती है, विश्राम न मिलने के कारण आत्मा को बड़ा क्लेश रहता है। परन्तु अन्तः प्रदेश में गायत्री तत्व की अधिकता हो जाने से यह स्थिति नहीं रहती। परिवर्तनशील संसार वस्तुओं का अवश्यम्भावी रूपांतर, त्रिगुणात्मक सृष्टि का वैचित्र्य जब उनकी समझ में भली प्रकार आ जाता है। फिर उन्हें न हर्ष का न शोक का, कोई भी अवसर व्यथित नहीं बनाता। वाह्य विक्षोभ आ जाय तो भी उनका मानसलोक शान्त रहता है। ऐसी शान्ति को द्वंद्वातीत, स्थिति प्रज्ञ, समत्व, योग, परमानन्द आदि नामों से पुकारते हैं।

(4) साहस- शक्तियाँ होते हुए भी कितने ही मनुष्य आत्म हीनता, तुच्छता, दीनता, संकोच, कायरता आदि मानसिक कमजोरियों के कारण सदा डरते झिझकते रहते हैं और कठिनाई चाहे कितनी ही छोटी हो पर वे उसे बहुत बड़ा मान बैठते हैं और अपने को उसे पार करने में असमर्थ अनुभव करते हैं। यह साहस हीनता बौद्धिक जगत में एक ऐसी आपत्ति है जिसके कारण अनेकों प्रकाशवान् दीपक असमय में ही बुझ जाते हैं। अनेकों सुरभित मन हारिणी कलियाँ अपने जौहर प्रकट करने से पहले ही मुर्झा जाती हैं। योग्यताओं का अभाव जीवनोन्नति में जितना बाधक होता है। उससे कहीं अधिक बाधक साहस का अभाव होता है। यह अन्धकार गायत्री तत्व की आध्यात्मिक किरणें प्रकाशित होने के साथ 2 विलीन होता चलता है। साधक क्रमशः अधिक स्वावलम्बी, आत्मविश्वासी, साहसी, निर्भय बनता है। वह न किसी को त्रास देना पसंद करता है और न सहना । आत्म गौरव से आध्यात्मिक महानता से उसका मनोलोक आलोकित हो उठता है, तदनुसार वह मनुष्योचित अधिकारों के लिए संघर्ष, प्रयत्न और परिश्रम करता हुआ, परतंत्रताओं के बन्धनों को काटता हुआ स्वतंत्रता की ओर -मुक्ति की और-द्रुत गति से अग्रसर होता है और आत्मोन्नति के लौकिक और पारलौकिक आनन्द प्राप्त करता है।

(5) स्थिरता- डाँवाडोल, अस्थिर वृत्तियों के मनुष्यों की जीवन यात्रा एक दिशा में नहीं चलती, फलस्वरूप उनका समय, मन और बल निरर्थक खर्च होता रहता है। विचार, विश्वास सिद्धान्त, कार्य, लक्ष्य, स्वभाव एवं निष्ठा की एकरसता होने से जीवन प्रवाह एक नियत दिशा में प्रवाहित होता है और बूँद बूँद से घट भर जाने की उक्ति के अनुसार उसे अपने कार्य में सफलता मिलती है। चित्त में स्थिरता रहने से मस्तिष्क नियत दिशा में सोचता और कार्य मग्न रहता है फल स्वरूप उस क्षेत्र में अनेकों उन्नति के अवसर मिलते हैं। स्थिरता का आध्यात्मिक अर्थ है-मनोजय, आत्म निग्रह, समाधि । इस मार्ग में प्रगति होने साथ साथ साँसारिक और आत्मिक सुख शान्ति के द्वार खुलने लगते हैं।

(6) कर्तव्य निष्ठा- इसे धर्म भावना अथवा ईश्वर परायणता कहते हैं। मानव जीवन की सर्व श्रेष्ठता प्राप्त होने के साथ साथ प्राणी को एक भारी उत्तर दायित्व भी सौंपा गया है, जिसे धर्म-कर्तव्य कहते हैं। यह कर्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है। इसे चुकाये बिना कोई आत्मा न तो शांति लाभ कर सकती है और न सद्गति प्राप्ति कर सकती है। अपने आत्मा के प्रति, मस्तिष्क के प्रति, शरीर के प्रति, कुटुम्ब के प्रति, समाज की प्रति, राष्ट्र ईश्वर एवं समस्त संसार के प्रति, मनुष्य के कुछ कर्तव्य, उत्तर दायित्व, धर्म होते हैं। असंख्यों व्यक्ति उन्हें जानते तक नहीं जो जानते हैं उनमें से असंख्यों उन्हें पूरा नहीं करते, फल स्वरूप उन्हें वे दुखद परिणाम भुगतने पड़ते हैं जिन्हें नरक, बन्धन, आदि नामों से पुकारा जाता है। गायत्री शक्ति की धारणा से यह धर्म भावना जागृत होती है फल स्वरूप साधक के विचार, कार्य और आयोजन धर्म केन्द्र के चारों और परिभ्रमण करने लगते हैं और वह ऐसा धर्मात्मा बनता जाता है जिसे सब मनुष्य, देशभक्त, लोकसेवी, भलामानुष, सभ्य नागरिक, कर्तव्यनिष्ठ एवं ईश्वर भक्त भी कह सकते हैं।

(7) स्वास्थ्य- उत्तम स्वास्थ्य मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। कुछ अपवादों को छोड़ कर आमतौर से प्रकृति माता सभी को स्वस्थ शरीर प्रदान करती है। किन्तु लोग मिथ्या आहार विहार के द्वारा बिगाड़ लेते हैं यह बिगाड़ जब तक चलता रहता है तब तक स्वास्थ्य में विकृतियाँ बनी ही रहती हैं। एक रोग गया- दूसरा आया। एक दवा बन्द हुई-दूसरी आरंभ करनी पड़ी। यह क्रम तब तक नहीं टूट सकता जब तक कि आहार विहार में प्राकृतिकता न आवे, सतोगुण न बढ़े। गायत्री से सतोगुण बढ़ता है और जीवनक्रम में संयम एवं सुव्यवस्था का प्रमुख भाग रहने लगता है तद्नुसार स्वास्थ्य में सुधार आरंभ हो जाता है और वह दिन दिन अधिक सुधरने लगता है।

(8) समृद्धि- अनेक दोषों पापों, कुटेवों, व्यसनों में फंसे हुए व्यक्ति पूर्व संचित समृद्धि को भी गँवाते हैं। बुरे स्वभाव, उलटे दृष्टि कोण अस्थिर मस्तिष्क के कारण उनके लाभदायक कार्य भी हानिकारक सिद्ध होते हैं। उनके खर्च बहुत बढ़े हुए और निरर्थक होते हैं, तद्नुसार तामसिक वृत्ति के मनुष्य सच्चे अर्थों में कभी समृद्धिशाली नहीं बन सकते। किसी प्रकार नीति अनीति का विचार छोड़कर वे पैसे जमा कर भी लें तो वह पैसा उनके लिए चिन्ता, अशान्ति क्लेश और दोष दुर्गुणों की वृद्धि करने वाला-कष्ट कारक की सिद्ध होता है। इसके विपरीत जिनके अन्दर गायत्री तत्व की अधिकता है उनका मानसिक संतुलन ठीक रहने से कार्यों में दूरदर्शिता की मात्रा अधिक रहती है। फलस्वरूप वे सम्पन्नता की ओर बढ़ते हैं। मितव्ययिता, ईमानदारी और परिश्रमशीलता के कारण वे गरीब नहीं रह पाते। अनीति से धनवान हुए लोगों की तरह वे अमीर नहीं भी बन पावें तो भी उनकी थोड़ी सी पूँजी सदुपयोग में आकर अमित आनन्ददायक बनती है। और वे थोड़े धन से भी भारी अमीरी से अधिक समृद्धिशाली होने का सुख प्राप्त करते हैं।

(9) सहयोग- बुरे लोगों से वे लोग भी भीतर की भीतर डरते और घृणा करते रहते हैं जो कारणवश उनसे मित्रता रखते हैं। इसके विपरीत खरे, ईमानदार, सद्गुणी, प्रसन्नचित, स्थिरमति, मधुरभाषी, सेवाभावी, सुखी, प्रसन्न व्यक्ति की ओर सबका मन आकर्षित होता है। ध्वनि की प्रतिध्वनि की भाँति प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम से, सेवा का सेवा से, सहयोग का सहयोग से मिलता है। इस प्रकार गायत्री साधक को अनेक सच्चे मित्र और सच्चे सहयोगी मिल जाते हैं। उन्नति के अवसर सहयोगियों की सहायता से ही मिला करते हैं। जिसे अधिक लोगों का सहयोग प्राप्त है उसको न केवल साँसारिक वरन् मानसिक सुख शान्ति की भी उपलब्धि होती है।

यह नौ निद्धियाँ यज्ञोपवीत के नौ तार हैं। गायत्री की शरण में जाना द्विजत्व को प्राप्त करना है। जो द्विज इस नौ तार के यज्ञोपवीत को धारण करता है उसे उनसे संबंधित, उन नौ गुणों की प्रतिध्वनि स्वरूप यह नौ निद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यह जीवन के सर्वोत्तम लाभ है। यह जितने अंशों में मनुष्य को प्राप्त होते जाते हैं। उतने ही अंशों में साधक अपने को स्वर्गीय सुखों से सम्पन्न अनुभव करने लगता है।

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