गायत्री और यज्ञोपवीत।

May 1948

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शूद्रास्तु जन्मना सर्वे पश्चाद्यान्ति द्विजन्मताम्। गायत्र्यैव जनाः साकह्यपवीतस्य धारणात्।।

(जन्मनातु) जन्म से (सर्वेशूद्राः) सभी शूद्र होते हैं (पश्चात्) बाद में (जनाः) मनुष्य (गायत्र्या साकं) गायत्री के सहित (उपवीतस्य धारणात्) यज्ञोपवीत धारण करने से (एव) ही (द्विजन्मताँ) द्विजत्व को (यान्ति) प्राप्त होता है।

रहस्यमुपवीतस्य गुह्य्राद् गुह्यतरं हियत्। अन्तर्हितं तु तर्त्सव गायत्र्याँ विश्व मातरि।।

(उपवीतस्य) यज्ञोपवीत का (यत्) जो (गुह्यद्गह्यतरं) गुह्य से गुत्व (रहस्यं) रहस्य है (तत्सर्व) वह सब (विश्वमातरि) विश्व माता (गायत्र्याँ) गायत्री में (अन्तर्हित) अन्तर्हित है।

आत्मदर्शियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से बताया है कि क्रमिक विकास के सिद्धान्तानुसार जीव चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् मनुष्य शरीर प्राप्त करता है। इन पुराने जन्म जन्मान्तरों में नाना प्रकार के गुण कर्म स्वभावों में होकर उसे गुजरना पड़ता है, जिनकी थोड़ी बहुत छायाएं उसके गुप्त मन पर बनी रहती हैं। भेड़िये की क्रूरता व्याघ्र की निर्दयता बन्दर की उठाईगीरी, शृंगाल की धूर्तता, कुत्ते का जाति द्रोह, बगुले का ढोंग, कौए की कुरुचि, सर्प की असहिष्णुता, मच्छर की दुष्टता, मक्खी की गंदगी, लोमड़ी की चालाकी, उल्लू और चमगादड़ की निशाचरता, खरगोश की भीरुता, चींटी का परिग्रह, सुअर की अभक्ष सेवन आदि निकृष्टताएं उसी जीवन के साथ साथ समाप्त नहीं हो जाती वरन् उनकी छाप प्राणी के अन्तःप्रदेश में पड़ी रहती हैं। इस प्रकार की लाखों योनियों में भ्रमण करता हुआ जीव मनुष्य शरीर में आता है, तो उसके ऊपर वे पूर्व संचित कुसंस्कार भी न्यूनाधिक मात्रा में जमा होते हैं।

जो जीव नीच योनियों से पहली बार मनुष्य शरीर में आया है उसमें पाशविक वृत्तियाँ अत्यधिक होती हैं। फिर इसके बाद प्रत्येक नये मनुष्य जन्म में वे कुप्रवृत्तियाँ धीरे धीरे कम होने लगती हैं। जैसे वन्य प्रदेशों में झाड़ झंखाड़, कंटीले, करील बबूल अपने आप प्रचुर परिमाण में उगे रहते हैं, इन निरर्थक, निरुपयोगी, दुखदायी पेड़ पौधों के उगने और बढ़ने की परम्परा यों ही अपने आप चलती रहती है परन्तु यदि किन्हीं अच्छे फलों की अन्न या औषधियों की खेती करनी हो तो विशेष परिश्रम पूर्वक भूमि साफ करनी होगी, उसकी जुताई, गुड़ाई करनी पड़ेगी और बीज बोने के बाद सिंचाई, नराई और रखवाली की व्यवस्था की जायगी तब कहीं अभीष्ट फसल उपलब्ध होगी। यह बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी है। आरंभ में उसकी मनोभूमि जंगली भूमि की भाँति अव्यवस्थित होती है, उसे सुसंस्कृत बनाने के लिए ऐसा ही प्रयत्न करना पड़ता है जैसा कि जंगल को काटकर फलों की खेती के लिए किया जाता है। इस प्रयत्न को संस्कार दीक्षा, द्विजत्व, यज्ञोपवीत आदि नामों से पुकारते हैं।

पहला जन्म माता के पेट से होता है। दूसरा जन्म आचार्य द्वारा दिया जाता है। आचार्य अपने शिष्य की मनोभूमि को साफ करता है, उसमें बीज बोता है संस्कारों को स्थापित करता है, उन्हें सींचता है, सुधारता है, रखवाली करता है और इन प्रयत्नों द्वारा बालक को कुछ से कुछ बना देता है। पहले की जंगली भूमि, कुछ दिन बाद सुरम्य उपवन बन जाती है। वैसे वह एक ही वस्तु है, पर इन रूपों में भारी अन्तर हो जाने के कारण इसे काया पलट या दूसरा जन्म भी कहा जा सकता है। असंस्कृत, जन्म जन्मान्तरों के पाशविक संस्कारों से युक्त मनोभूमि का दैवी सम्पत्तियों से सुसज्जित बना जाना भी मानसिक कायाकल्प है इसे दूसरा जन्म कह सकते हैं। यही द्विजत्व है। माता के स्तनों का दूध पीकर बालक का शरीर बढ़ता है, आचार्य की आत्मा का रस पीकर शिष्य का अन्तःकरण विकसित होता है। चिड़ियाँ अपने अंडे को अपनी छाती के नीचे रखकर सेती है। उसे अपनी गर्मी से पकाती हैं और अंडे से बच्चा निकालती हैं। आचार्य भी अपने शिष्य को अपने आत्म तेज की गर्मी से ऊष्मा प्रदान करता है, उस पर छाती देकर बैठता है और अन्त में पशुता का अण्डा-खोल-फोड़ कर उसमें से मनुष्य निकालता है। इस प्रकार आचार्य द्वारा जन्म दिये हुए मनुष्य को द्विज कहते हैं। जन्म से सभी शूद्र होते हैं पर संस्कार से द्विज बन जाते हैं।

द्विजों को यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है। यज्ञोपवीत में तीन तार होते हैं। इन तीन तारों को तीन प्रतिज्ञाओं के प्रतीक रूप में धारण किया जाता है। संसार में समस्त कष्टों के कारण तीन हैं (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। ज्ञान की कमी से, शक्ति की कमी से, वस्तुओं की कमी से, लोगों को तरह तरह की कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। द्विज अपने जीवन को उद्देश्यमय बनाता है, संसार को दुखों से छुड़ाकर सुखी बनाने में अपने को खपा देना यही उसका लक्ष होता है। इसलिए वह उपरोक्त तीनों दुख हेतुओं को मिटाने के लिए अपनी रुचि और योग्यता का कार्य अपने जिम्मे लेता है। जिसने अज्ञान निवारण और ज्ञान प्रसार का कार्य अपने ऊपर लिया है उसे ब्राह्मण कहते हैं। जो अशक्ति को हटाकर शक्ति की वृद्धि करता है, अपनी शक्ति से अशक्तों की सहायता और दुष्टों का दमन करता है वह क्षत्री कहा जाता है। जो वस्तुओं के अभाव को दूर करने के लिए उत्पादन एवं आयात निर्यात की व्यवस्था करता है वह वैश्य कहलाता है। तीनों ही कार्य समान रूप से उपयोगी, आवश्यक एवं महत्व के हैं। किसी में छोटाई बड़ाई नहीं, किसी का पुण्य कम नहीं, किसी का गौरव कम नहीं। इनमें से एक लक्ष को प्रधान रूप से चुनना, रुचि, योग्यता एवं परिस्थितियों पर निर्भर होता है, इसलिए वर्ण व्यवस्था का निर्णय गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर अवलम्बित है।

यज्ञोपवीत धारण करना एक प्रतिज्ञा प्रतीक है। इस तीन लड़ों के सूत्र को धारण करके द्विज अपने कंधे पर तीन उत्तरदायित्वों का भार स्वीकार करता है। उन्हें पूरा करने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करता है। त्रिवर्ग के कई पहलू हैं। ये सभी पहलू आँशिक रूप से यज्ञोपवीत धारण करने वाले को स्पर्श करते हैं (1) अज्ञान, अशक्ति और अभाव को दूर करना (2) देवऋण (दान देना) ऋषि ऋण (सतोगुण बढ़ाना) पितृऋण चुकाना (ऐसे काम करना जिससे बाप दादों के नाम की भी प्रतिष्ठा हो) (3) ईश्वर, जीव प्रकृति का तत्वज्ञान समझ कर आध्यात्म मार्ग की ओर अभिमुख होना (4) ब्रह्म (उत्पत्ति) विष्णु (विकास) महेश (नाश) की त्रिदेव युक्त सृष्टि को देव भाव से पूजनीय समझना, सेवक रहना, (संसार की वस्तुओं को अपनी न मानना) (4) सृष्टि के सत, रज, तम युक्त त्रिविध रूप को समझते हुए उसमें से उपयोगी अंश लेना अनुपयोगी छोड़ना (6) माता, पिता, आचार्य के प्रति अपना कर्तव्य पालन उचित रूप से करना। (7) भूत भविष्य, वर्तमान का ध्यान रखना। भूतकाल की बातों से अनुभव लेकर सुन्दर भविष्य का निर्माण करने के लिए, वर्तमानकाल का कार्यक्रम निर्धारित करना (8) धर्म अर्थ काम संसार के यह तीन प्रयोजन हैं। इन तीन सूत्रों को ब्रह्मग्रन्थि रूपी मोक्ष के साथ बाँध देना (9) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ। जीवन व्यवस्था के इन तीन आश्रमों को संन्यास रूपी ब्रह्म ग्रन्थि के साथ जोड़ना (10) योग, यज्ञ, तप न तीन दिव्य कर्मों को जीवन में ओज प्रोत करना (11) देश, धर्म और जाति इनकी श्रीवृद्धि करना। इस प्रकार के और भी विवर्ग हैं। उनका उत्तर दायित्व भी द्विज के ऊपर आता है।

यज्ञोपवीत की तीन लड़ों में नौ तार होते हैं। पीछे के पृष्ठों पर नौ निद्धियों का वर्णन किया जा चुका है, यह नौ निद्धियाँ ब्रह्मग्रंथि से, गायत्री से बंधी हुई हैं। परमात्मा दृष्टिकोण की स्थापना होते ही वे नौ सर्वोत्कृष्ट लाभ मिलने आरम्भ ही जाते हैं। दूसरा पक्ष यह है कि- मनुष्य की श्रेष्ठता नौ गुणों पर निर्भर रहती है। रामायण में धनुष टूटने पर परशुराम जी आते हैं और राम लक्ष्मण पर क्रोध करते हैं। तब रामचन्द्रजी उनके क्रोध को शान्त करते हुए उनके बड़प्पन को प्रकट करते हैं और कहते हैं-”नवगुण परम पुनीत तुम्हारे।” यह नौ गुण यह हैं-(1) सत्य (2) अहिंसा (3) अस्तेय (4) इन्द्रिय निग्रह (5) अपरिग्रह (6) पवित्रता (7) कष्ट सहिष्णुता (8) विद्या (9) आस्तिकता। इन नौ गुणों को धारण करना भी यज्ञोपवीत के नौ तारों का आदेश है।

यज्ञोपवीत को धारण करना, द्विजत्व में प्रवेश करना, साधारण काम नहीं है। यह महान कार्य केवल धार्मिक कर्मकाण्ड करते रहने से पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए हृदय के गहन अन्तराल में परिवर्तन होना चाहिए वहाँ से प्रेरणा और स्फूर्ति आनी चाहिए। बाहरी उत्साह तो क्षणिक होता है, दूसरों के द्वारा भरा हुआ जोश कुछ समय में समाप्त हो जाता है पर जो स्फुरण अन्तःकरण से निकलती है वह ज्वालामुखी पर्वत की अग्निशिखा की भाँति प्रज्वलित ही रहती है। यह अग्निशिखा प्रज्वलित हो जाने पर साधक का अन्तःकरण सुदृढ़ आधार पर खड़ा हो जाता है और अध्यात्मिक यात्रा आगे बढ़ने लगती है। यह आन्तरिक निर्माण तब होता है जब आत्मा में ब्राह्मी भावनाएं हिलोरें लेती हैं। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें भगवती गायत्री माता की शरण में जाना पड़ता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि विश्वमाता गायत्री में यज्ञोपवीत का गुह्य रहस्य छिपा हुआ है, बिना गायत्री के यज्ञोपवीत अधूरा है, केवल चिह्न पूजा मात्र है। इसलिए जो गायत्री सहित यज्ञोपवीत को धारण करता है वही सच्चे द्विजत्व का प्राप्त करता है। वो चिह्न पूजा तो सभी करते हैं, लकीर तो सभी पीटते हैं पर द्विज वही है जो आत्म दृष्टि प्राप्त करके उद्देश्यमय जीवन जीता है। अन्यथा जन्म से तो सभी शूद्र हैं, जिसमें द्विजत्व नहीं वह शूद्र ही है भले ही अपने को वह स्वर्ण कहता रहे। इसलिए द्विजत्व को प्राप्त करने के लिए गायत्री की शरणागति आवश्यक है।

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