कर्मवीरों! कर्तव्य कर्म करते रहो

December 1948

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(लोकमान्य-तिलक)

कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ ‘करना’ व्यापार, हलचल होता है। किसी भी धर्म को ले लीजिये उसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाय तो यज्ञ भाग ही कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रन्थों में यज्ञ-भाग की विधि बतलाई गई है परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर विरोधी वचन भी पाये जाते हैं, अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के लिए ही जैमिनि के पूर्व मीमाँसा शास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञभाग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है। मनुष्य कुछ करता है वह सब यज्ञ के लिए करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिए और धान्य संग्रह करना है तो यज्ञ ही के लिए (म॰ भा॰शा॰26॰27) जब कि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ने ही दी है, तब यज्ञ के लिए मनुष्य कुछ भी कर्म करे, वह उसको बंधन कभी नहीं होगा वह कर्म यज्ञ का एक साधन है, वह स्वतन्त्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिए, यज्ञ से जो फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है। उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिए किये गये ये कर्म यद्यपि स्वतन्त्र फल के देने वाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति (सुख प्राप्ति) होती है और इस स्वर्ग प्राप्ति के लिए ही यज्ञ कर्त्ता मनुष्य बड़े चाव से कर्म करता है। इसी से स्वयं यज्ञकर्म पुरुषार्थ कहलाता है, क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की उसके मन में इच्छा होती है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं (जै॰सू॰4॰1॰1-2)। यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा शब्द ‘ऋत’ है इसलिए यज्ञार्थ के बदले क्रर्त्वथ भी कहा करते हैं। इस प्रकार सब कामों के दो वर्ग हो गये। एक यज्ञार्थ (ऋर्त्वथ) कर्म अर्थात् जो स्वतन्त्र रीति से फल नहीं देते अतएव अबंधक हैं, और दूसरे पुरुषार्थ कर्म, अर्थात् जो पुरुष को लाभकारी होने के कारण बन्धक है, इन कर्मवादियों, याज्ञिकों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ-भाग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती। चाहे ये यज्ञ भाग अज्ञानता से किये जायं या ब्रह्मज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गये हैं तथापि इनकी योग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है। इसलिए निश्चय किया गया है कि यज्ञ भाग से स्वर्ग प्राप्ति भले ही हो जाय, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता, मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मज्ञान की ही नितान्त आवश्यकता है। इन यज्ञभाग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वर्ण्य दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रन्थों में वर्णित हैं, जैसे व्रत, उपवास आदि। इन सब कर्मों के और भी तीन-नित्य, नैमित्तिक और काम्य भेद किये गये हैं। उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते हैं जिन्हें पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर करना पड़ता है जैसे अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिए हम शान्ति या प्रायश्चित करते हैं वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिए शास्त्रानुसार कोई कर्म करते हैं तो उसे काम्य कर्म कहते हैं। जैसे वर्षा या पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करना।

नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवाय भी कर्म हैं जैसे मदिरा पान इत्यादि, जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है, इसलिए ये कर्म निषिद्ध कहलाते हैं। भगवद्गीता की दृष्टि इससे व्यापक है। मान लीजिए कि अमुक एक कर्म, शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है अथवा वह विहित कर्म ही कहा गया है तो इतने ही से यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते ही रहना चाहिए अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेष्ठकर ही होगा, गीता के अनुसार मनुष्य जो कुछ करता है जैसे खाना, पीना, खेलना, रहना, उठना, बैठना, श्वासोच्छवास करना, हंसना, रोना, सूँघना, देखना, बोलना, सुनना, चलना, देना-लेना, सोना, जागना, मारना, लड़ना, मनन और ध्यान करना, आज्ञा और निषेध करना, देना, यज्ञ-याग करना, खेती और व्यापार करना, इच्छा करना, निश्चय करना, चुप रहना इत्यादि ये सब कर्म ही हैं चाहे वे कर्म कामिक हों, वाचिक हों, अथवा मानसिक हों (गीता 5-8) और तो क्या जीना मरना भी कर्म ही है। मौका आने पर यह भी विचार करना पड़ता है कि जीना या मरना इन दो कर्मों में से किसको स्वीकार किया जावे। इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्द कर अर्थ कर्तव्य कर्म अथवा विहित कर्म हो जाता है। ऐसे विहित कर्म मनुष्य को सदा ही करते रहने चाहिए।

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