शक्ति का अपव्यय नहीं-संचय करो

December 1948

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(ले॰ श्री अगरचन्द नाहटा बीकानेर)

हमारी शक्ति के विकास के तीन द्वार हैं, मन वचन और काया। इन्हीं के द्वारा हम कोई कार्य करने में समर्थ होते हैं, पर हमने अपनी शक्ति को अनेक कामों में बिखेर रखा है, इसी से हम अपने आपको कमजोर समझते हैं। यह तो मानी हुई बात है कि कोई भी वस्तु चाहे कितनी ही ताकतवर क्यों न हो, टुकड़े कर देने पर जितने टुकड़ों में वह विभक्त हुई शक्ति का बल भी उतने ही अंशों में कम हो जाएगा। इसी प्रकार हम अपने मन को अनेक संकल्प-विकल्पों में बाँटे रखेंगे तो एक निश्चय पर पहुँचने में कठिनता होगी, किसी भी विषय को गम्भीरता से नहीं सोच सकेंगे उसकी तह तक नहीं पहुँच सकेंगे।

इसी प्रकार वचन शक्ति को व्यर्थ की बकवास या वाचालता में लगाए रखेंगे तो उसका कोई असर नहीं होगा। शक्ति इतनी कमजोर पड़ जायगी कि वह शक्ति के रूप में अनुभव भी नहीं की जाने लगेगी।

इसी प्रकार कायिक शक्ति को भी समझे। कहने का आशय है कि हर समय इन विविध शक्तियों का जो अपव्यय हो रहा है उसकी ओर ध्यान देकर उसे रोका जाय, उनको लक्ष्य में केन्द्रित किया जाय इससे जो कार्य वर्षों में नहीं होता वह महीनों, दिनों घंटों एवं मिनटों में होने लगेगा, क्योंकि जहाँ कहीं उसका प्रयोग होगा पूरे रूप से होगा। अतः उस कार्य की शीघ्र सफलता अवश्यम्भावी है।

मनः शक्ति के विकास के लिये मन की दृढ़ता जरूरी है। पचास बातों पर विचार न करके एक ही बात पर विचार किया जाय। व्यर्थ के संकल्प विकल्पों को रोका जाय। वचन शक्ति को प्रबल करने के लिए परिमित बोला जाय, मौन रहने की आदत डाली जाय। कायिक शक्ति का संचय करने के लिये इधर उधर व्यर्थ न घूमा फिरा जाय, इन्द्रियों को चंचल न बनाया जाय।

इस तरह तीनों शक्तियों को प्रबल बनाकर और निश्चित कर उन्हें लक्ष्य की ओर करने से जीवन में अद्भुत सफलता मिल सकेगी। लक्ष्य की प्राप्ति ही जीवन की सफलता है।

जड़ पदार्थों के अधिक समय के संसर्ग से हमारी वृत्ति बहिर्मुखी हो गई है। अतः प्रत्येक कार्य एवं कारण का मूल हम बाहर ही खोजते रहते हैं। हम यह कभी अनुभव ही नहीं करते कि आखिर कोई चीज आयेगी कहाँ से? और देगा कौन? यदि उसमें वह शक्ति है ही नहीं तो वह लाख उपाय करें, पर जड़ तो जड़ ही रहेगा, चेतन से सम्बन्धित होकर यह चेतना भास हो सकता है पर चेतन नहीं क्योंकि प्रत्येक वस्तु का स्वभाव भिन्न है जिसका जो स्वभाव है वह उसी रूप में ही रहते हैं स्वभाव छोड़ के नहीं। उपादान नहीं है तो निमित्तादि कारण करेंगे क्या? अतः कार्य कारण का सम्बन्ध हमें जरा अंतर्मुखी होकर सोचना चाहिये। जो अच्छा बुरा करते हैं यह हमीं करते हैं अन्य नहीं, और जब कोई विकास होता है वह अन्दर से ही होता है बाहर से नहीं। निमित्त तभी कार्यकर होते हैं जब उपादान के साथ हों संबंधित हों।

हमारी शक्ति कर स्त्रोत हमारे अन्दर ही है। अतः उसे बाहर ढूंढ़ते फिरने से सिद्धि नहीं होगी। मृग की नाभि में कस्तूरी होती है, उसकी सुगन्ध से वह मतवाला है, पर वह उसे बाहर कहीं से आती हुई मानकर चारों ओर भटकता फिरता है फिर भी उसे कुछ हाथ नहीं आता। इसी प्रकार हम अपने स्वरूप, स्वभाव गुणों को भूलकर पराई आशा में भौतिक पदार्थों को जुटा कर उनके द्वारा ज्ञान, सुख, आनन्द प्राप्त करने को प्रयत्नशील है। यह भ्रम है। इसी भ्रम के कारण अनेकों अनन्त काल से सुख प्राप्ति के लिये भौतिक साधनों की ओर आशा लगाये बैठे रहे, पर सुख नहीं मिला। वाह्य जगत से हम इतने अधिक घुल मिल गये हैं कि इससे कल्पना तक हमें नहीं हो पाती। जिन महापुरुषों ने अपनी अनन्त आत्मशक्ति को पहचान कर उसे प्रकट की है पूर्णज्ञान एवं आनन्द के भागी बने हैं उनकी सारी चिन्ताएं विलीन हो गई हैं आकुलता व्याकुलता नष्ट होकर पूर्ण शान्ति प्रकट हो गई। उनको इच्छा नहीं, आकाँक्षा नहीं, अभिलाषा नहीं, आशा नहीं, चाह नहीं अतः अन्तर्मुखी बन कर अपनी शक्ति को पहचानना और उसका विकास करना ही हम सबके लिए नितान्त आवश्यक है।

जीवन केवल बिताने के लिए नहीं दिया गया है, वह तो श्रेष्ठ बनने के लिए दिया गया है।

जो चीजें स्वयमेव नष्ट हो जाने वाली हैं, क्या यह सम्भव है कि उनमें मन लगाकर तुम वास्तविक सुख प्राप्त कर सकते हो? कदापि नहीं। वास्तविक सुख तभी प्राप्त हो सकता है कि जब तुम उन वस्तुओं में अपना मन लगाओ जो नित्य और स्थायी हैं तथा कभी नष्ट नहीं होती।

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