सारस्वत योग

December 1948

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योगियों की दो श्रेणियाँ है। एक जनसेवा प्रधान दूसरे आत्म शान्ति प्रधान। जनसेवा प्रधान योग फिर वह चाहे किसी तरह का हो कर्मयोग ही कहलावेगा। कर्म की विभिन्नता के कारण तथा जनसेवा के आवश्यक एवं अत्यन्त आवश्यक अंगों के भेद से कई प्रकार के कर्मयोगी हो सकते हैं और उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम मध्यम तथा निकृष्ट कोटियाँ भी हो सकती हैं। उसी प्रकार आत्मशान्ति की बात कही जा सकती है। जिनके जीवन में आत्मशान्ति के लिए भक्ति का समावेश हुआ रहता है वे भक्तियोगी कहलाते हैं और जिनके जीवन में तप का समावेश हुआ रहता है वे संन्यासयोगी कहलाते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष तप अथवा भक्ति के अतिरिक्त अनुभव लेने की तथा मनोरंजन की भावना प्रबल रहती है ऐसे लोग सारस्वत योग के साधक माने जाते हैं। सरस्वती की उपासना में संलग्न होकर आत्म सन्तोष पूर्वक सदाचारी जीवन बिताना ही वास्तव में सारस्वत योग है।

सारस्वत योग में सरस्वती का गुण कीर्तन नहीं होता बल्कि विद्या व्यसन होता है। ज्ञान का अर्जन होता है। यही ज्ञान जब जनसेवा के लिए प्राप्त किया जाता है तो साधक कर्मयोगी हो जाता है पर आत्मसंतोष के लिए किया जाता है तब वह सारस्वत योगी कहलाता है।

विद्या व्यसन कई प्रकार का होता है और उसे कई प्रकार से चरितार्थ किया जाता है जैसे देशाटन द्वारा, पुरातत्त्व की खोज द्वारा, ग्रन्थ लेखन या काव्य निर्माण द्वारा, चित्र, वाद्य, संगीत के अध्ययन द्वारा। विद्या व्यसन किसी प्रकार का हो व्यसन के साथ कौन सी भावना काम करती है उस पर ही उसका श्रेणी भेद होता है। आत्म सन्तुष्टि के लिए लिखी जाने वाली पोथी या बनाया जाने वाला चित्र, या गाया जाने वाला राग या रची जाने वाली कविता सारस्वत योग के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकता पर यदि आत्म सन्तुष्टि की भावना न हो, जनहित की भावना हो और उसी के लिए विद्या का अध्ययन चल रहा हो, पुस्तक लिखी जा रही हो प्रेरणा देने वाली कवितायें लिखी जा रही हों राग अलापे जा रहे हों या चित्र बनाये जा रहे हों तो वह सब सारस्वत योग न रहकर कर्मयोग हो जाता है।

यह सम्भव है कि विद्या व्यसनी को कम योग करते हुए भी आत्मसन्तुष्टि मिले लेकिन यदि जनहित उसका ध्येय है तो वह ध्यान योग के तप, भक्ति और सारस्वत योग की श्रेणी में नहीं आवेगा। वह विशुद्ध कर्मयोग की श्रेणी में ही आवेगा इसी प्रकार आत्म सन्तोष के लिए की जाने वाली साधनाएं जनहितकारी हों तब भी वह योगी कर्मयोगी न कहला कर सारस्वत योगी ही कहलावेगा।

योग में मुख्य वस्तु है वृत्ति-भावना, कर्म नहीं। कर्म के मूल में जो वृत्ति होती है, साधक को उसी वृत्ति के अनुसार लाभ होता है। यों तो जो भी कार्य किया जाता है उसका जनहित तथा आत्मसन्तोष पर अवश्य प्रभाव होता है। व्यष्टि और समष्टि को कार्य के प्रभाव से मुक्त नहीं किया जा सकता। लेकिन कार्य का साधक पर जो प्रभाव पड़ता है उसकी जो वृत्ति काम करती है, योग तथा उसके फलाफल का निर्णय उसी के आधार पर किया जाता है। उसी की श्रद्धा या वृत्ति के आधार पर वह कार्य उस साधक का निर्माण करता है। गीताकार ने की इसी की पुष्टि की है-

श्रद्धामणोऽयंपुरुषः यो यद्श्रद्धः सएवसः। इसीलिए मूल बात है वृत्ति की।

योगी होने के लिए निष्पाप जीवन, तत्वदर्शी पन और समभाव आवश्यक है जब तक ये भाव नहीं होते तब तक योग की अवस्था प्राप्त नहीं होती। ये तो प्रत्येक प्रकार के योगी में होनी आवश्यक हैं। इनके होने के अनन्तर उसके कार्य जिस भावना से संचालित होते हैं उस पर योगी का श्रेणी भेद निर्भर करता है।

योगी चाहे जनहित करे चाहे आत्म तुष्टि लेकिन जन का अहित नहीं करता इसीलिए वह सर्वसाधारण की अपेक्षा कहीं उन्नत होता है। अन्यथा फिर सर्व साधारण में और उसमें कोई अन्तर नहीं रहता।

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