ईश्वर और आत्मा की विवेचना

December 1948

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(श्री. जलेश्वरप्रसादजी, बथना)

किसी ने ईश्वर को देखा नहीं है फिर भी संसार में उसके मानने वाले ही अधिक हैं। जिसको किसी ने कभी आँखों से देखा न हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, लेकिन आश्चर्य तो यह है कि उसके मानने वाले ही अधिक हैं। कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य जब आपत्ति में पड़ता है, जब अपने को निःसहाय अनुभव करता है, कोई सहारा नहीं रह जाता, तब वह उसी प्रभु को याद करता है जिसे आज तक किसी ने आंखों से नहीं देखा। अनायास उसके मुख से निकल जाता है कि- हे भगवान मुझ पर दया कर। दुनिया से ठुकराये हुओं को एक मात्र सहारा रह जाता है। मनुष्य उसे आशरणों का शरण तथा अनाथों का नाथ कहता है।

हवा सूक्ष्म है तथा हवा से भी अधिक सूक्ष्म आकाश तत्व है। हवा सर्वत्र है परन्तु आकाश तत्व हवा से भी अधिक सूक्ष्म होने के कारण, जहाँ हवा है वहाँ भी (हवा में होकर) है तथा जहाँ हवा का गमन नहीं है वहाँ भी विद्यमान है। आकाश तत्व अतीव सूक्ष्म होने के कारण सर्वत्र है। तथा आकाश तत्व से भी अधिक सूक्ष्म रूप में ईश्वर सारे ब्रह्मांड में फैला है। सारे ब्रह्मांड के अन्दर सूर्य के नोक बराबर जगह भी ऐसा नहीं है जहाँ ईश्वर अपने पूर्ण चैतन्यता की हालत में विद्यमान नहीं है। जैसे सर्वत्र विचरता हुआ महान वायु नित्य आकाश में विद्यमान है वैसे सारे प्राणी उस ब्रह्म में है वह ईश्वर ही परम ब्रह्म अर्थात् सबका मूल है उसी एक मूल ब्रह्म से सब कुछ पैदा हुआ अर्थात् सृष्टि हुई है,और सब कुछ फिर उस में विलीन हो जाता है। जैसे समुद्र से लहरें पैदा होती हैं और फिर उसी में विलीन हो जाती हैं, जैसे मकड़ा अपने ही से अपना जाल पैदा करता है और फिर अपने ही में समेट लेता है जैसे पृथ्वी से घास पैदा होती है, शरीर से जैसे बालों की उत्पत्ति होती है वैसे ही यह संसार उस अविनाशी एक ब्रह्म से पैदा हुआ है। जैसे धधकते अग्नि से उसी के रूप की या स्वभाव की सहस्रों चिनगारियाँ उत्पन्न होती हैं और फिर उसी में लुप्त हो जाती हैं तथैव उस ब्रह्म से प्राणी पैदा होते हैं और फिर उसी में विलीन हो जाते हैं।

जो कुछ भी दृश्य तथा अदृश्य है सब डर ब्रह्म का ही व्यक्त रूप है। इस दृश्य जगत से परे दूसरा अदृश्य जगत है। तथा उस अदृश्य जगत से भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त भाव है जो अक्षर ब्रह्म है। जगत की उत्पत्ति का कारण ये मूल वही ब्रह्म है। गीता के पन्द्रहवें अध्याय में इस संसार को एक वृक्ष रूप में वर्णन किया है जिसका मूल ऊंचे अर्थात् ईश्वर है, वह मूल ईश्वर अपने ही से इस संसार को पैदा किया है अर्थात् वह सब कुछ है और सब में है तथा सब कुछ ईश्वरमय है। जो कुछ भी अव्यक्त या व्यक्त है सब उसी एक मूल ब्रह्म का व्यक्ति कारण है अथवा सब कुछ ब्रह्म ही है। ब्रह्म ने अपनी इच्छा से इस सृष्टि को प्रकट किया है और अपनी इच्छा से सबको अपने में समेट लेता है। यह सृष्टि उस ब्रह्म के “इच्छा” का फलस्वरूप अथवा उसकी माया है।

जैसे माता गर्भ में बच्चे को धारण किये रहती है उसी तरह उस ब्रह्म ने इस सारे ब्रह्मांड में फैल कर इसको धारण किया है। ब्रह्म और सृष्टि के रूप में है। उस ब्रह्म से आगे कुछ नहीं है। ब्रह्म ही परम गति है ब्रह्म ही परमधाम है। भूत वर्तमान और भविष्य सब उस ब्रह्म के अन्दर है। ब्रह्म तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिये नहीं कि वह तर्क से परे हैं प्रत्युत इसलिये कि वह मूल (Basis) है जहाँ से तर्क पैदा होते हैं। वह महान ब्रह्म, जिसके अन्दर सारा जगत विद्यमान है, सबके हृदयों में छिपा है। जो कुछ भी है सब ब्रह्मा ही है अथवा मैं भी ब्रह्म हूँ, ब्रह्म का हूँ और ब्रह्म मेरा है। मैं स्वयं ब्रह्म हूँ। जिस तरह एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब अगणित कुओं में पड़ता है और हर कुएं में अलग अलग सूर्य दीखता है परन्तु वास्तव में सूर्य एक ही है, उसी तरह एक ही ब्रह्म (महान आत्मा) अनगिनत व्यक्तित्वों में प्रतिबिंबित होकर अनेकों दीखता है परन्तु वास्तव में मूल में ही और वास्तव में एक ही ब्रह्म है, यह पृथकत्व या मित्रता जो दीखती है वह सच है और हमारी भूल है। हम सब अपने अपने व्यक्तित्व को दृढ़ता पूर्वक पकड़े हुए हैं अथवा अपने अपने व्यक्तित्व को छोड़कर यदि आत्मलीन होने का प्रयास हम करें तो अपने आत्मा तक जो कि ब्रह्म के साथ एक है पहुँच जायं।

हमारे लिये उस ब्रह्म के होने का सबसे बढ़कर सबूत हमारी आत्माएं हैं। जिस ब्रह्म के अन्दर सारा ब्रह्माँड है वह ब्रह्म हम सबके अन्दर आत्मा के रूप में छिपा है। जब हम अपने व्यक्तित्व को छोड़कर अपने आत्मा तक पहुँच जाते हैं तब ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेते हैं। हम अपने व्यक्तित्व में अपने को भूले हुये हैं।

न देखने पर भी उस ईश्वर के तरफ, उस ब्रह्म की तरफ, हमारा जो खिंचाव है वह उसी एकरूपता के कारण है। अपने आत्मा में लीन होना उस ब्रह्म में लीन होना है तथा उस ब्रह्म में लीन होना अपने आत्मा में लीन होना है क्योंकि हम और ब्रह्म तो एक है। वह ब्रह्म आत्मा के इस महायात्रा से लौट कर पहुँचने का केन्द्र है, परमधाम है। उस केन्द्र तक पहुँचने के लिये बार बार उस ब्रह्म को प्रेम के साथ याद करना चाहिये। बाहर से मुड़कर उस ब्रह्म में लीन होने का प्रयास करना चाहिये।

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