पहले अपना सुधार करो

December 1948

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जो सिद्धान्त मनुष्य जाति को उन्नति की ओर ले चलने में सबसे उच्चतम हो, उसे धैर्य और आत्म त्याग की शिक्षा दे तथा उसको अपने सजातीयों के साथ इस प्रकार मिलने दें कि व्यक्ति विशेष के मत या बहुमत के प्राबल्य पर भरोसा करने की आवश्यकता न रहे वही मनुष्य के लिए उत्कृष्ट सिद्धान्त है।

यह सिद्धान्त धर्म का सिद्धान्त है। हमारा कर्तव्य है कि हम लोगों को विश्वास दिलावें कि वे सब एक ही ईश्वर की सन्तान हैं और इस संसार में एक ही ध्येय को पूरा करना उनका धर्म है। उनमें से प्रत्येक मनुष्य इस बात के लिए बाधित है कि वह अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जिन्दा रहे। जीवन का ध्येय कम या ज्यादा सम्पन्न होना नहीं बल्कि अपने को तथा दूसरों को सदाचारी बनाना है। अन्याय और अत्याचार जहाँ कहीं भी हों उनके विरुद्ध आन्दोलन करना एक मात्र अधिकार नहीं, धर्म है और वह भी ऐसा धर्म जिसकी उपेक्षा करना पाप है।

अपने अधिकारों की जानकारी कर लेना एक बड़ी और बहुत समय तक रहने वाली उन्नति के लिए पर्याप्त नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम किसी से अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए कह रहे हैं हमारा मतलब तो केवल इतना ही है कि ये अधिकार तब तक स्थायी नहीं रह सकते जब तक कि हम अपने धर्म का पालन न करें इसलिए अधिकारों को पाने से पहले हमें धर्मात्मा बनाना चाहिए। क्योंकि धर्मात्मा बनना चाहिए। क्योंकि धर्मात्मा बनना ही अधिकार पाने का आधार है। जब हम यह कहते हैं कि ऐश्वर्य और साँसारिक लाभों को जीवन का ध्येय बनाकर हम स्वार्थी लोगों को पैदा करते हैं तो इससे यह मतलब हर्गिज नहीं निकालना चाहिए कि कोई इसके लिए प्रयत्न न करे या इसके लिए प्रयत्न करना पाप है। हमारा मतलब तो इससे यही है कि जब साँसारिक फायदों को साधन न मानकर साध्य मान लिया जाता है तो इसका बड़ा भयंकर और अनिष्टकारी फल निकलता है।

जो समाज रोटी और मनोरंजक सामग्री पर संतोष कर लेता है वह एक अत्यन्त निकृष्ट कोटि का समाज बन जाता है और उसका परिणाम यह होता है कि उन्हें बड़ी दुर्दशा के साथ अशिक्षित शत्रुओं का दासत्व स्वीकार करना पड़ता है। सब जगह ही सामाजिक उन्नति के विरोधियों की यह नीति रही है कि लोगों को शारीरिक सुख और साँसारिक लाभों का लालच देकर उन्नति और परिवर्तन के विचारों से पीछे हटाया जावे। तब क्या यह ठीक है कि हम अपने ही हाथों से अपने विरोधियों की सहायता करें।

तुम्हारे लिए यह आवश्यक है कि तुम्हारी साँसारिक दशा सन्तोषजनक हो क्योंकि इसके बिना आत्मिक या मानसिक उन्नति नहीं हो सकती। साथ ही यह भी आवश्यक है कि कम परिश्रम करना पड़े जिससे कि हर एक आदमी प्रतिदिन कुछ घण्टे आत्मिक उन्नति के लिए लगा सके। यह भी आवश्यक है कि कम से कम तुम्हारे परिश्रम का मूल्य इतना तो हो कि तुम उसमें से कुछ बचाकर भविष्य की चिन्ता से मुक्ति पा सको और सबसे बढ़कर इस बात की आवश्यकता है कि तुम अपने अन्तःकरण को शुद्ध और पवित्र भावों से भर दो, यहाँ तक कि उन लोगों से भी कभी बदला लेने की इच्छा न करो जो तुम्हारे साथ अन्याय करते हैं। परन्तु ध्यान रखो कि जिन साधनों की तुम खोज कर रहे हो वे साधन हैं, ध्येय नहीं। इन साधनों का प्रयोग तुम अपना धर्म समझ कर करो न केवल अधिकार समझ कर। इनको सिर्फ इसी प्रयोजन से ग्रहण करो कि तुम इससे धर्मात्मा और सदाचारी बन जाओगे। यदि ऐसा न होगा तो तुम में और उन लोगों में क्या अन्तर रहेगा जिन्होंने तुम पर अन्याय किया है। अन्याय करने वाले तो सिर्फ इसीलिए अन्याय करते हैं कि उन्हें साँसारिक सुख, शासन और अधिकार चाहिए।

अपनी दशा सुधारना ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। अपने आपको सुधारने और सदाचारी बनाने से ही तुम अपने को उन्नत बना सकते हो। जब तक तुम केवल साँसारिक लाभों या किसी सामाजिक कार्य विशेष के लिए आगे बढ़ने का प्रयत्न करते रहोगे, तब तक तुममें से अनेकों छोटे-छोटे अन्यायी और अत्याचारी उत्पन्न होते रहेंगे। दुष्टभाव और स्वार्थ से जब तक तुम्हें मुक्ति नहीं मिलती तब तक सामाजिक व्यवस्था में होने वाले किसी भी परिवर्तन से तुम्हें लाभ नहीं होगा।

इसमें सन्देह नहीं कि उन लोगों को सुधारना भी बहुत आवश्यक है जो इस समय तुम्हें सता रहे हैं परन्तु इसमें तुम्हें तब तक सफलता नहीं मिल सकती जब तक कि तुम स्वयं अपना सुधार न कर लो।

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