दवा लेना जरूरी नहीं है

December 1948

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(पं. रामनरायण शर्मा)

इस संसार में करोड़ों प्राणी और जीव-जन्तु ऐसे हैं जो बिना दवा खाये ही अपने रोग मेट सकते हैं और अपनी जाति के खाने-योग्य भोजन खाकर निरोग रहते हैं। वे केवल निरोग ही नहीं रहते बल्कि अपने शरीर में उत्तम बल और शक्ति भी पैदा कर लेते हैं। इसलिए अपने को बुद्धिमान् समझने वाला और सृष्टि के सब प्राणियों से अपने को श्रेष्ठ मानने वाला मनुष्य यदि जन्म से यही समझता है कि औषधियों के खाये बिना रोग मिटते ही नहीं, तथा गोलियाँ, पाक या ताँबा आदि धातुओं की भस्म खाये बिना शरीर में शक्ति बढ़ती ही नहीं। तो यह बड़े ही खेद का विषय है। जहाँ किसी को कुछ शारीरिक व्याधि हुई अथवा ज्यों ही बीमार होकर खाट पर पड़ा, त्यों ही उसकी अवस्था देखने के प्रयोजन से आने वाले स्नेही तथा संबंधी लोग सबसे पहले यही प्रश्न किया करते हैं कि “कोई दवा दी जाती है या नहीं?” “किसकी दवा दी जाती जाती है?” “क्या दवा दी जाती है?” इत्यादि। केवल इतना ही नहीं, बल्कि जो दवा चलती होती है उससे यदि कुछ लाभ नहीं मालूम पड़ा हो तो सर्वज्ञ की नाईं कोई नई दवा भी बतलाने लगते हैं।

सर्वत्र मनुष्यों की ऐसी ही प्रवृत्ति देखने से मालूम होता है अधिकाँश व्यक्तियों की यही दृढ़ धारणा है कि औषधि खाये बिना रोग दूर ही नहीं होते। मंदाग्नि से, भारी परिश्रम से, चिन्ता से, दुराचार से अथवा ऐसी ही अन्य किसी कारण से जिन लोगों का शरीर निर्बल और क्षीण हो गया है, वे यही समझ लेते हैं कि कोई बल बढ़ाने वाली दवा खाये बिना ताकत नहीं आने की। लोगों के मन में दृढ़ता के साथ समाये हुए इस विचार के परिणाम में प्रतिदिन हजारों और लाखों नई नई दवाइयाँ निकलती हैं। सवेरा हुआ नहीं कि एक न एक नई दवा का विज्ञापन हाथ में आ ही जाता है। समाचार पत्र हाथ में लीजिए तो आगे, पीछे और बीच में दवाओं के विज्ञापन दृष्टि के सामने आ ही जाते हैं। घर में से बाहर निकलिए तो दरवाजे पर अथवा गली में, मकानों की दीवारों पर, मोटे मोटे अक्षरों में छपे हुए दवाओं के नोटिसों पर नजर पड़ ही जाती है। कोई नई पुस्तक लेकर देखिए तो उसमें भी ये ही विज्ञापन सर्वव्यापी ईश्वर की नाई मौजूद रहते हैं। और कहाँ तक कहा जाय, यदि आप कोई साहित्य संबंधी मासिक पत्र हाथ में लें, व्यवहार नीति आदि का उपदेश देने वाला कोई पत्र या पत्रिका पढ़ने बैठें, अथवा धर्म, तत्वज्ञान और वेदाँत जैसे गहन विषयों की आलोचना करने वाले मासिक पत्रों को हाथ में लें तो भी लज्जा-जनक शब्दों में लिखे हुए दवाओं के विज्ञापन दिखाई पड़े बिना न रहेंगे।

बात यह है कि आजकल पैसा पैदा करने के बहुत से मार्ग तो हो गये हैं बंद, इसलिए जहाँ-तहाँ से दस-पाँच वनस्पतियाँ इकट्ठी करके और उन्हें कूट-छानकर उनकी गोलियाँ तैयार करके भोले लोगों के हाथ बेचकर पैसा खींचने का धंधा अनेक लोग ले बैठे हैं। “बिना दवाओं के रोग दूर नहीं होते” ऐसा विश्वास करने वाले असंख्य प्रजाजन इन दवाई बेचने वालों से दवाइयाँ खरीदते और उनका घर भरते हैं। पिछले बीस पच्चीस वर्षों में हजारों दवायें आविष्कृत हो चुकी हैं और उनके विज्ञापन ऐसी ओजपूर्ण और सजीव भाषा में निकलते हैं कि उन्हें पढ़कर लोगों को यही विश्वास हो जाता है कि उनके सेवन से कोई न कोई लोकोत्तर लाभ प्राप्त हुए बिना न रहेगा। यदि इन दवाओं के सम्पूर्ण विज्ञापनों का संग्रह करके कोई व्यक्ति इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया में चला जाय और वहाँ के लोगों को इन विज्ञापनों का आशय समझावें तो वे लोग यही समझेंगे कि मृत्युलोक में इस समय रोगों का नाम निशान भी नहीं होगा, वहाँ के तमाम मनुष्य अत्यन्त हृष्ट−पुष्ट होंगे, वृद्धावस्था का वहाँ कुछ भी दुःख न होता होगा, अकालमृत्यु किसी की भी नहीं होती होगी, हैजा, प्लेग, आदि जनपद नाशिनी बीमारियाँ न होती होंगी, आरोग्य संबंधी नियमों के भंग करने पर भी किसी को कोई दुःख न होता होगा और रोगों का बिल्कुल भी भय न होने के कारण लोग इच्छानुसार भोग भोगते हुए मौज उड़ाते होंगे। परन्तु हम यह बात जानते हैं कि इतनी अधिक रामबाण दवाओं के निकलते हुए भी, मुहल्ले-2 तथा गली-गली में डाक्टरों और वैद्यों के रोगों को मार भगाने के लिए तैयार बैठे रहने पर भी, और लोगों के प्रत्येक वर्ष अपनी शक्ति के अनुसार सैकड़ों तथा हजारों रुपया खर्च करते रहने पर भी दिन दिन रोगों का त्रास बढ़ता ही जाता है। रोगों के अधिक वृद्धि पाने के कारण लोगों के शरीर निर्बल होते जाते हैं, शारीरिक शक्तियाँ क्षीण होती जाती हैं, और देश में निरंतर प्लेग, हैजा जैसी व्याधियों का प्रकोप बने रहने के कारण हजारों तथा लाखों नर नारी अकाल ही काल के त्रास होते जाते हैं।

दवाइयों से रोग उस समय तो दब जाता है, परन्तु उनके खाने से शरीर की शक्ति बहुत कुछ नष्ट हो जाती है जिससे कि शरीर में नये नये रोग घर कर लेते हैं। संसार में आज तक जितनी भी मुख्य लड़ाइयाँ हुई हैं उन सबमें जितने जितने मनुष्य मारे गये हैं उनसे कहीं अधिक व्यक्ति इन नई दवाइयों के कारण मरे हैं। इसलिए उचित यही है कि जब कोई रोग आकर गला दबा ले, तब उस रोग की दवा करने के बदले उन कारणों को दूर करना चाहिए। जिनसे वह उत्पन्न हुआ हो, और ऐसा कोई कुदरती उपाय करना चाहिए जिससे किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। रोगों के मूल कारण को नष्ट न करके रोगों को दबा देने के लिए औषधि देने की आजकल की प्रणाली कुछ इस तरह की है, जैसे किसी स्थान में बड़ी बुरी दुर्गंध आती हो और वहाँ दुर्गंध पैदा करने वाले कारणों को दूर न करके उस दुर्गंध को दबाने के लिए लोभान और अगर आदि की खुशबूदार धूप दी जाय। इसमें संदेह नहीं कि लोभान और अगर आदि की धूप से थोड़े समय के लिए दुर्गंध दब सकती है, परन्तु उस दुर्गंध का मूल कारण दूर नहीं होता, और लोभान तथा अगर की धूप न रहने पर दुर्गंध फिर जोर के साथ उठने लगती है। बुखार आने पर ‘एस्पिरीन’ अथवा ‘एंटी पायरीन’ नामक दवाओं के खाने से बुखार तुरंत उतर जाता है, पर आप क्या यह समझते हैं कि वह बुखार बिल्कुल चला गया? नहीं, वह केवल उसी समय के लिए दब गया। जिस कारण से बुखार आया था वह कारण अभी तक बना हुआ है, उसका नाश नहीं हुआ। इसलिए शरीर की पीड़ा भी बिल्कुल नष्ट नहीं हुई। समय पर फिर उठ आवेगी। ऐसी दशा में रोगों को केवल थोड़े समय के लिए दवा देने की अपेक्षा उनका मूल कारण नष्ट करना कहीं श्रेष्ठ है।

रोगों का शरीर में प्रकट होना कुछ प्राकृतिक नियम नहीं है। बल्कि आरोग्य संबंधी नियमों का पालन न करने के कारण शरीर में जो जहर संचित हो जाता है उस जहर को बाहर निकालने का प्रयत्न जब प्रकृति करती है तभी शरीर में रोग प्रकट होते हैं। अतएव रोग अहित करने वाला शत्रु नहीं है, बल्कि हित करने वाला मित्र है। इसलिए रोगों को दवा देने के लिये दवा खाने का प्रयत्न ऐसा है जैसे शरीर के भीतर से निकलने वाले जहर को रोककर शरीर ही में जमा रखना। घर में यदि फन फैलाए हुए भयंकर साँप बैठा हो तो बुद्धिमानी यही है कि उस साँप को पकड़ कर घर से बाहर निकाल कर कहाँ छोड़ दिया जाय। साँप को बाहर न निकाल कर उसके ऊपर डला ढक देने से अथवा उसके बिल को मिट्टी आदि से बंद कर देने से सर्प का भय बिल्कुल नहीं मिट सकता। साँप जब घर ही में है तो वह किसी न किसी दूसरे रास्ते से बाहर निकल सकता है और प्राणों का भय उपस्थित कर सकता है। इसी प्रकार आजकल जितनी दवाइयाँ चल पड़ी हैं वे शरीर के अन्दर रोग रूपी साँप को केवल दवा देने मात्र का ही काम करती हैं। साँप को घर में से बिलकुल निकाल देने की उनमें शक्ति नहीं है। इसलिए इन दवाइयों का खाना रोग मेटने का उत्तम उपाय नहीं है।

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