जब जब शरीर में गर्मी बढ़ती है तब तब देखा जाता है कि शरीर का पोषण होना बन्द हो जाता है और जीवनी शक्ति घटने लगती है। गर्मी की वृद्धि शरीर के अन्दर बढ़े हुए विष का सूचक है। विष की वृद्धि का कारण अप्राकृतिक जीवन है। जीवन के साथ खान-पान, आहार-विहार का सम्बन्ध है। आज का मानव खान-पान और आहार-विहार की स्वाभाविकता को छोड़ता जा रहा है और उसी अस्वाभाविकता के कारण शरीर में गर्मी की वृद्धि होती है। अस्वाभाविकता में पोषित होने के कारण बढ़ी हुई गर्मी को सहन करने की शक्ति शरीर में रह नहीं जाती, ऐसी अवस्था में या तो अनेकों रोगों का सामना करना पड़ता है या मृत्यु की तैयारी करनी पड़ती है।
जीवन का आरंभ यदि स्वाभाविकता से हुआ हो, शरीर का प्रत्येक ऋतु के साथ स्वाभाविक संपर्क हो, न अधिक गर्मी से उसमें तपन को स्थान मिले और न अधिक सरदी से शीत को-समशीतोष्ण की अवस्था में यदि जीवन का निर्माण हो तो फिर न शोक होगा न रोग और फिर मृत्यु की वेदना भी उसे नहीं सहनी पड़ेंगी।
अस्वाभाविक जीवन की विस्तृत व्याख्या की तो आवश्यकता नहीं है, पर बिना सामान्य चर्चा किये उसकी वास्तविकता भी न समझी जायेगी। गरम पानी से स्नान और शरीर को कपड़ों से ढंक कर रखने की आदत कर सम्बन्ध स्वाभाविक जीवन से नहीं है। बरफ का उपयोग, या खस की टठ्ठियों का उपयोग भी स्वाभाविक जीवन में नहीं गिना जा सकता। भोजन का सम्बन्ध जीवन रक्षण से है न कि स्वाद से। स्वाद का आश्रय लेने पर ऐसी अनेकों चीजों का प्रयोग करना पड़ता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर को हानि पहुँचाती हैं और मन की शान्ति को भी खो देती हैं इनमें से मसालों का नाम सर्वोपरि लिया जा सकता है। चाय, काफी और कोको भी उसमें गिने जा सकते हैं। ये सारी की सारी चीजें शरीर में अनावश्यक गरमी की वृद्धि करती हैं जिसका परिणाम या तो आमाशय को भोगना पड़ता है या हृदय और मस्तिष्क को। बात तन्तुओं पर तो इनका बड़ा घातक असर होते देखा गया है। आमाशय, हृदय, मस्तिष्क और वाततन्तु ये सब मिलाकर ही तो मनुष्य को एक गतिवान मशीन बनाते हैं। मशीन के एक भी पुरजे में विकार आ जाय या अपने काम में शिथिल पड़ जाय तो सारा शरीर बेकार हो जाता है।
विकारी और शिथिल यंत्र को ठीक करने के लिए उसकी बढ़ी हुई ऊष्मा कम करने की आवश्यकता होती है और सरदी ही ऐसा उपयुक्त तत्व है जो कि मानव के जीवन और यंत्रों को सन्तुलित एवं कार्यकारी बनाता है गर्मी बढ़ाने वाले आहार विहार का परित्याग और शीतोपचार द्वारा मनुष्य फिर से स्वाभाविक स्थिति प्राप्त कर सकता है। गरमी कम हो जाने के कारण रोगी भारी शान्ति प्राप्त करता है शरीर विकार शून्य हो जाता है।
यह बतलाने की तो आवश्यकता है ही नहीं कि बढ़ी हुई गर्मी शरीर में बढ़े हुए मल या चिप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। सरदी इस मल को बाहर निकालती है इसीलिए शीतोपचार द्वारा बेचैनी का दूर होना स्वाभाविक है।
बीमारी की हालत में पथ्य और संयम की परवाह किये बिना बीमार औषधियों का सेवन करना आरंभ कर देता है। औषधियाँ रोग को तो दूर नहीं करतीं लेकिन रोग के प्रभाव से शारीरिक यंत्रों को मूर्च्छित कर देती हैं जिससे रोग का ज्ञान नहीं होता पर शरीर भीतर ही भीतर खोखला होता जाता है, जीवनी शक्ति क्रमशः घटती जाती है और तब कभी भी एक साथ विस्फोट हो जाने की संभावना रहती है। इसलिए औषधि उपचार को छोड़कर प्राकृतिक उपचार की ओर ध्यान देने की अत्यन्त आवश्यकता है। प्राकृतिक उपचार न सिर्फ रोग को दूर करता है बल्कि शरीर से रोग का प्रवेश ही न हो इसके लिए भी उसे उपयुक्त बना देता है।
प्राकृतिक उपचारों में मिट्टी और पानी के उपचार प्रमुख हैं। ये दोनों ही शीतोपचार कहलाते हैं। इन उपचारों की एक मात्र मंशा मनुष्य को प्राकृतिक बनाने की है। प्रकृति ने जो जो चीज मनुष्य को दी हैं मनुष्य उसको विकृत बनाये बिना ही उपयोग करे और उसका रस ले। विकृत बनाकर उपयोग करने पर तो वह विकारों को निमन्त्रण देता ही है।
लेकिन बीमार के लिए सरदी अहितकारी है ऐसा समझने वालों की संख्या अधिक है। आमतौर से सभी यह जानते हैं कि शीतकाल मनुष्य की पाचन शक्ति को बढ़ा देता है। जिस प्रकार पाचन शक्ति के लिए शीतकाल जीवन देता है उसी प्रकार शीतोपचार मानव जीवन के लिए शान्ति दाता है।
मिट्टी और पानी की तरह हवा भी मनुष्य को प्रकृति की देन है। जो रोगी खुली हवा का उपयोग करते हैं, वे जानते हैं कि उन्हें कितनी आसानी से शान्ति मिल जाती है। क्यों कि हवा भी श्वास-प्रश्वास द्वारा शरीर गत मल को बाहर निकाल कर रोग को दूर कर देता है। पानी की भीगी चादरें उड़ाकर अनेक लोगों के बुखार को दूर किया गया है, मिट्टी की पट्टी लगा कर अनेकों की बेचैनी भगाई गई है। ये सब क्या है? सभी प्राकृतिक उपचार, सभी अन्दर की अनावश्यक गर्मी के शत्रु।
शरीर में सहने की शक्ति महान है, जैसी इसकी आदत डाल दी जायगी, पड़ जायगी। अस्वाभाविक आदत पड़ जाने से जीवन भी अस्वाभाविक हो जाता है और ऐसे लोग प्रायः रोग के घर बने रहते हैं इसलिए रोग से बचने का उपाय ही है स्वाभाविक जीवन बिताना।
स्वाभाविकता की पहचान यही है कि जिसके बिना भी जीवन बना रह सकता है उस वस्तु का उपयोग न हो, स्वाद के लिए कोई वस्तु न खाई जाय और दिखावे के लिए कुछ न पहना जावे। जिन्दा रहने और जीवनी शक्ति को बनाये रखने की ही दृष्टि से जीवन के प्रत्येक व्यवहार को करना चाहिए। जैसे-2 मानव इस पर मनन करता जायेगा, वैसे वैसे ही उसका जीवन स्वाभाविक और प्रकृति के अनुकूल बनता जायगा। उसकी सहन शक्ति बढ़ती जायेगी। मन में शक्ति रहेगी और सरदी के साथ प्रेम करना आरंभ हो जायगा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सरदी उसे हर हालत में उपयोगी दिखाई देगी।
चिन्ता, निराशा और ग्लानि शरीर के लिए लहर है। आशा, हिम्मत, उल्लास और प्रफुल्लता में संजीवन शक्ति है।
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