(श्री दौलतरामजी कटरहा बी. ए. दमोह)
वह धर्म जो संसार के कर्त्तव्य-कर्मों को त्याग करने का उपदेश देता है, जन साधारण का धर्म नहीं हो सकता। बौद्ध-धर्म अधिकतर संन्यासियों का धर्म था तथा स्वयं भगवान बुद्ध ने भी अनेकों शिष्यों को पराजित कर अपने धर्म में दीक्षित किया था। संसार को दुःख रूप और सारहीन बताकर संसार से दूर भागने का उपदेश करने वाली फिलॉसफी वाला यह धर्म साधारण जन समाज की आवश्यकताओं, आशाओं तथा आकाँक्षाओं की पूर्ति न कर सकता था, यही कारण है कि वह थोड़े से समय तक अपनी अलौकिक छटा और चमक-दमक दिखाकर उसका मूलरूप संसार से विलीन-प्रायः हो गया।
संसार के कर्त्तव्य-कर्मों को न त्यागने का अर्थ संसार से आसक्ति नहीं है। जीवन का अर्थ है विकास और अनुभव की प्राप्ति। संसार में रहकर जिन्होंने सत्य तथा अहिंसा आदि व्रतों का निर्वाह किया है उन्हीं के द्वारा इन गुणों की जीवन में व्यावहारिकता और साध्यता निष्पन्न हुई है उन्होंने ही यह सिद्ध कर दिखाया है कि जीवन में पूर्ण रूप से इन गुणों का निर्वाह करना सम्भव है। उन लोगों ने जो संसार को झंझट समझ बैठे थे, इन गुणों को व्यवहार में लाकर संसार के सामने आदर्श उपस्थित नहीं किया। इनकी व्यावहारिकता को सिद्ध करने वाले तो जनक, युधिष्ठिर, हरिश्चन्द्र और शिवि आदि राजर्षि थे। संसार में रहकर जीवन रूपी पहेली को किस तरह सुलझाना चाहिए यह हमें इन्हीं महानुभावों के अनुभवों से ज्ञात हो सकता है। कर्म-क्षेत्र से दूर कर शील और चरित्र का कोरा उपदेश करने वाले लोगों की बातें उतनी हृदय-ग्राहिणी नहीं हो सकतीं जितनी कि इनकी। वस्तुतः संसार-क्षेत्र में प्रवेश करने पर ही हम अपने अनुभवों और आध्यात्मिक सिद्धान्तों को व्यवहार में लाकर हृदयंगम कर सकते हैं। सिद्धान्तों का अन्यथा कोई व्यर्थ नहीं। संसार से भागने पर यह नहीं हो सकता। इसीलिए तो यह संसार व्यवहार-क्षेत्र, प्रयोग-क्षेत्र या कर्म क्षेत्र है। संसार से भागने का अर्थ है संसार से भयभीत होना।
भगवान शिव कामजयी हैं। वे गृहस्थ हैं और कामोद्दीपक वस्तुएं पास रहते हुए भी विकार-शून्य ही रहते हैं। वस्तुतः विषयों के समीप रहते हुए भी विकार-शून्य रहने वाला ही विषयों को जीतने वाला तथा जितेन्द्रिय है तथा धीर पुरुष वही है जिसका चित्त विकार का हेतु आलंबन विद्यमान रहते हुए भी विकृत नहीं होता। ऐसी धीरता गृहस्थ ही प्राप्त कर सकते हैं अतएव केवल गृहस्थ ही कामजयी तथा पूर्ण होने का दावा कर सकता है। गृहस्थ जीव से ही पूर्णता प्राप्त हो सकती है इसीलिए तो गृहस्थ धर्म सर्व श्रेष्ठ है और उसकी इतनी महिमा है।
जीवन की सफलता इसी में है कि हम जीवन को सर्वांग-पूर्ण बनाएं और उसका पूर्ण विकास करें। हमारे जीवन के चार पहलू हैं-आध्यात्मिक, मानसिक शारीरिक और साम्पत्तिक। इन चारों दिशाओं में उन्नति करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है और तभी हमारा विकास सर्वांगीण कहला सकता है। उस व्यक्ति का जीवन हमारे लिए आदर्श नहीं हो सकता जो कि एक महान विद्वान है किन्तु जिसका चरित्र सन्देहास्पद है या जिसकी शारीरिक सम्पत्ति अत्यन्त क्षीण है। इस पुरुष का जीवन तो एकाकी है और इसका मिलान तो हम उस चित्र से कर सकते हैं जिसमें सिर तो भारी भरकम बनाया गया हो किन्तु सारा शरीर काँटे जैसा हो। अतएव संसार त्यागने पर हमारा जीवन इसी चित्र जैसा होगा।
संसार के त्याग का अर्थ है उसका सदुपयोग और तज्जन्य अनुभवों की जीवन में न्यूनता। एक संन्यासी का जीवन जिसने कभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया पूर्ण नहीं है और वह हमारे लिये पूर्णतया अनुकरणीय नहीं हो सकता। उसे साँसारिक अनुभव नहीं, जीवन का उसका अनुभव अपूर्ण है, एकाँगी है, एकदेशीय है, भले ही वह एक प्रख्यात संन्यासी ही क्यों न हो वह अतिवादी है और सम्भव है कि उसके अनेकों विचार संतुलित न हों।
सफल जीवन का अर्थ है अनेकों विरोधाभासों का समन्वय, संतुलन और सामंजस्य। जिसे सुख और दुख दोनों का ज्ञान है, जो जीवन की सब अवस्थाओं में से होकर गुजरा है, जिसका अनुभव सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक है वही हमारे लिये आदर्श हो सकता है। भगवान ईसा को गृहस्थी का अनुभव नहीं हुआ था और न उन्हें भगवान बुद्ध की न ही कभी इस बात का ज्ञान हुआ कि अपने प्राण प्रिय परिजनों के मोह को त्यागना कितना कठिन होता है। भगवान बुद्ध को भी ऐसे दुष्ट और हत्यारे लोगों के बीच में धर्म-प्रचार करने का अनुभव नहीं हुआ था जैसा कि महात्मा ईसा और पैगम्बर मुहम्मद साहिब को। सुकरात जैसे महात्मा को जेंटिपी जैसी कुर्कशा स्त्री के साथ समस्त जीवन यापन करने में जो विशेष अनुभव हुआ वह भगवान राम को नहीं हुआ। अतएव हम देखते हैं कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो सब परिस्थितियों में से होकर नहीं गुजर सकता और न उसे जीवन का सर्वांगीण अनुभव ही हो सकता है। ऐसी दशा में केवल एक ही मनुष्य के जीवन को पूर्ण समझ बैठना, उसी एक की वाणी को ही, उसी एक की रची पुस्तक को ही, मान्य विश्वसनीय या रमणीक मानना, उसी एक को ही आदर्श मान बैठना कितनी भारी भूल होगी और क्या हमने कभी सोचा है कि यही भूल हमारे साम्प्रदायिक झगड़ों के मूल में विद्यमान रही है।
प्राचीन काल के हिन्दुओं ने अपने जीवन को चार भागों में बाँट लिया था। यह बड़ी बुद्धिमत्ता का बात थी। उन्हें जीवन की सभी परिस्थितियों और पहलुओं का ज्ञान हो जाता था और इस तरह वे अपने जीवन और अनुभव को पूर्ण बनाया करते थे संसार में रहते हुए संसार से विरक्त रहने की कल्पना ऐसे ही लोगों को ही सकती थी।
भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में स्थान-स्थान पर कर्मयोग की शिक्षा दी है। उन्होंने हमें वासनाओं के शमन करने का आदेश दिया है। वासनाओं को त्यागे बिना संसार को त्यागने की बात उन्होंने कभी नहीं कही। उनकी यह उक्ति कि “जो पुरुष मन से भोगों का चिन्तन करता है तथा इन्द्रियों को उनमें बलात् रोकता है, मिथ्याचारी कहलाता है,” इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य है। भगवान का आदेश है कि हम तब तक कर्म करते रहें जब तक कि हमारी वासनाएं परिमार्जित नहीं हो जाती और हम तब तक संसार को छोड़ने की बात न सोचें जब तक कि हमें भक्तिभाव का आधिक्य ही एतदर्थ प्रेरित तथा बाध्य नहीं करता।
संन्यासी कहता है कि संसार को छोड़ो, गृहस्थ कहता है गृहस्थी में ही बने रहो दोनों अपने अपने दृष्टि-कोण से बात करते हैं, दोनों अपना-अपना अनुभव सामने रखते हैं। अतएव न तो पूर्णतया यह सच है न वह। बेचारे छः जन्मांधों में से प्रत्येक ने हाथी को भिन्न-भिन्न आकर का बताया था। इसीलिए प्रश्न का सुलझाव यही है कि हम समन्वय की नीति का या मध्य मार्ग का अनुकरण करें। संन्यासी का तात्पर्य वासना-त्याग से है और गृहस्थ का गृहस्थ-धर्म पालन से। अतएव हमारे जीवन का लक्ष्य वासनाओं का त्याग है संसार का नहीं। हमें अपने प्रियजनों का मोह त्यागना है न कि प्रियजनों को ही। हमें भोजन को नहीं त्यागना है बल्कि त्यागना है स्वाद-सुख को, उसमें सुख की कल्पना भावना को। वस्तु को मत त्यागो, त्यागो उसकी आसक्ति को।