पुष्पाँजलि

November 1946

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(जगद्गुरु आचार्य पीत्पधिपति श्री राघवाचार्य जी)

भक्ति शास्त्र का आदेश है कि केवल प्राकृतिक पुष्पों को भगवान के चरणों में समर्पित कर देने से भगवान प्रसन्न नहीं हो जाते। बाह्य आराधना के अतिरिक्त भक्त को भगवान की अंतरंग आराधना भी करनी पड़ेगी। इस आराधना की पूर्ति तभी होती है जब निम्न लिखित आठ पुष्पों की पुष्पाँजलि भगवान को समर्पित की जाती है-

अहिंसा प्रथम पुष्पं पुष्पमिन्द्रियनिग्रहः।

सर्वभूत दया पुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः॥

ज्ञान पुष्पं तपः पुष्पं ध्यानं पुष्पं तथैव च।

सत्यमष्टविधं पुष्प विष्णोः प्रीतिकरंभवेत्॥

अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, सब प्राणियों पर दया, क्षमा, ज्ञान, तप, ध्यान और सत्य-ये आठ पुष्प भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं। अतएव भक्त का कर्त्तव्य है कि आठ पुष्पों के द्वारा भगवान की नित्य आराधना करे।

पहला पुष्प अहिंसा है। भक्त को अहिंसक बनना होगा। उसे किसी की हिंसा न करनी चाहिए और सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके शरीर से ही नहीं प्रत्युत वाणी और मन से भी किसी को कष्ट न पहुँचे।

दूसरा पुष्प है इन्द्रिय निग्रह। इन्द्रियाँ ही आत्मा को संसार के बन्धन में फँसाकर श्रेय के मार्ग से डिगा देती है। भक्त यदि इन इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में नहीं रखता तो भगवान से प्रेम करने के स्थान पर नश्वर और असत् पदार्थों से प्रेम करने लगेगा। इसलिए भक्त को अपनी इन्द्रियों का दमन करना चाहिये।

तीसरा पुष्प है सर्वभूत दया। भक्त का कोई शत्रु नहीं होता। वह सारे जगत को ‘सीय राम मय’ देखा करता है। उसे सर्वत्र अपने प्रभु की झाँकी दिखाई देती है। भक्त का हृदय शान्त होता है। जब वह किसी को अशान्त देखता है तो तुरन्त शान्ति का उपाय बता देता है। यह उसकी दया है। किसी भी दीन अथवा दुःख को देखकर उसको दया आ जाती है और वह उस व्यक्ति के लिये भगवान से प्रार्थना करता है।

चौथा पुष्प है क्षमा। यदि कोई व्यक्ति को दुःख दे तो भी वह उस अपराधी के अहित की कामना नहीं करता। वह उसके अपराध क्षमा कर देता है और भगवान से भी इसकी प्रार्थना करता है।

पाँचवाँ पुष्प है ज्ञान। जिसके द्वारा भक्त भगवान को जान पाता है। संसार के लोग समझते हैं कि वह भगवान के अतिरिक्त और किसी को नहीं मानता। किन्तु वास्तव में वह भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी को जानता ही नहीं।

छठा पुष्प है तपस्या। भक्त अपने जीवन को तपाता है। उसकी तपस्या भगवान के प्रसन्न करने के लिए होती है। वह तपस्या को अपना कर्त्तव्य समझकर तपस्या के द्वारा भगवान की आराधना करता है।

सातवां पुष्प है ध्यान। भक्त भगवान का निरन्तर ध्यान करता है और किसी का चिन्तन उसे रुचिकर नहीं होता। अन्य किसी का ध्यान करने को उसके पास समय ही नहीं होता।

आठवाँ पुष्प है सत्य। भक्त के जीवन में सर्वत्र सत्य का ही प्रकाश दिखाई देता है। असत्यता का भाव उसमें तनिक भी नहीं रहता।

अहिंसा आदि इन आठ गुणों को अपना लेना ही इन पुष्पों को भगवान के समर्पित करना है। प्रत्येक भगवद्-भक्त का कर्त्तव्य है कि वह इन आठ गुणों को अपनावें और अपनाकर इस पुष्पाँजलि को भगवान को समर्पित करें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118