धर्म बनाम सांप्रदायिकता

November 1946

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धर्म का रूप प्रेम है और अधर्म का रूप है द्वेष। मानव-समाज में शान्ति, सद्भावना और भ्रातृत्व को अक्षुण बनाए रखना ही धर्म का ध्येय है। जो लोग सांप्रदायिकता के चक्कर में पड़ कर इसके विपरीत उपदेश करते हैं परस्पर दुर्भावना और वैमनत्य फैलाते हैं वे संसार में धर्म की सेवा नहीं, प्रत्युत पाप को पुष्ट करते हैं। सच पूछिए तो मानव मात्र के लिए धर्म एक ही है। जितने मुख उतने धर्म-यह साम्प्रदायिकता का ही परिणाम है। आज धर्म के नाम पर जैसी धाँधली मची हुई है, उसे देख कर मानव समाज का एक वर्ग धर्म का अस्तित्व ही मिटाने पर तुल गया है। उसकी धारणा यह है कि यदि धर्म से मानवी प्रेम, एकता और बन्धुत्व के बदले परस्पर द्वेष-दुर्भाव और लड़ाई-झगड़े होते हैं तो उसका जितना शीघ्र लोप हो जाये मनुष्य समाज के लिए उतना ही कल्याणकारक होगा। वास्तव में धर्म वह चीज है, जो आत्मा को परमात्मा का बोध कराती है। किन्तु आज संसार की विचित्र दशा है। धर्म के नाम पर अनेक सम्प्रदाय बन गए हैं, एक सम्प्रदाय अपने को दूसरे सभी सम्प्रदायों से श्रेष्ठ समझता है और अपने अनुयायियों को यह शिक्षा देता है कि उसके द्वारा ही ईश्वर और मोक्ष की प्राप्ति होगी और अन्य सम्प्रदाय वाले नरक में जायगा। इसलिए तो स्व. मौलाना मुहम्मद अली जैसे विद्वान तक का विचार था कि नीच से नीच मुसलमान भी महात्मा गाँधी से श्रेष्ठ है। इस प्रकार की संकुचित साम्प्रदायिक भावना से ही परस्पर संघर्ष होता रहता है।

लोग यह नहीं देखते कि किस मनुष्य का चरित्र कितना ऊंचा है। उसने साधना द्वारा कितनी आत्मोन्नति कर ली है, प्रत्युत साम्प्रदायिकता की दूरबीन चढ़ा कर वे अपने अपने मजहबी ट्रेड मार्क ही सर्वोपरि कहने में बद्धपरिकर रहते हैं। कभी-कभी उसका वीभत्स रूप देख कर सहसा हृदय से यह उद्गार निकल पड़ता है कि यदि यही धर्म है तो अधर्म की परिभाषा क्या होगी।

साम्प्रदायिकता के इस गर्हित रूप को देख कर हमारे देश के कुछ विवेकशील नव युवकों को धर्म से घृणा हो रही है। और वे उसका हस्ती मिटाने पर तुल गये हों इसमें विण्मय की बात ही क्या है? पुरातन काल में जहाँ वृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह घी, विद्या, सत्य और अबोध को जीवन में घटाना ही धर्म समझा जाता था वहाँ आज नाना प्रकार के सम्प्रदायों की सृष्टि हो जाने के कारण अशान्ति, कलह, उपद्रव और पारस्परिक विग्रह ही मजहबी दीवानों को धर्म बना हुआ है। संसार में ऐसे कौन से कुकृत्य है, जो धर्म के नाम पर नहीं हुए। यूरोप की साम्प्रदायिकता का इतिहास खूनी घटनाओं से रंगा हुआ है। जब वहाँ पर आडम्बर और अन्ध विश्वास के विरुद्ध कुछ विवेकशील व्यक्तियों ने विरोध की आवाज उठाई तो उनको जीते जी आग में इस नृशंसता से जलाया गया जिसका वर्णन पढ़ कर रोम-रोम काँप उठता है। इस बीसवीं सदी में भी कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में एक ऐसी घटना घटी थी, जिसे सुन कर सारी दुनिया दंग रह गई। कुरान शरीफ पर अविश्वास करने के कारण दो आदमियों का आधा शरीर जमीन में गाड़ दिया गया और फिर जो कोई उस रास्ते गुजरता उन अधगड़े व्यक्तियों पर पत्थर मारते मारते जाना सवाब समझता था। इस प्रकार उनके शरीर पर पत्थरों का ढेर लग गया। इस नृशंसता की महात्मा गाँधी ने बड़ी आलोचना की थी। मजहब के नाम पर इस नृशंस कृत्य को मानवी नहीं दानवी बताया था।

अब संसार के विवेकशील पुरुष यह समझने लगे हैं कि धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है और शरीर का सम्बन्ध समाज से और इसलिए वे देश और समाजहित के कार्यों में धर्म का दखल देना उचित नहीं समझते। हमारे पड़ोस जापान में भी इसी नीति का अवलम्बन किया जाता है। एक ही परिवार में एक भाई बौद्ध है तो दूसरा कन्फ्युशन, तीसरा ईसाई है तो चौथा नास्तिक किन्तु इससे उनकी राष्ट्रीयता और पारम्परिक प्रेम में कोई अन्तर नहीं आता। मुस्तफा कमाल अतातुक ने तो टर्की का रूप ही बदल दिया, खिलाफत का जनाजा निकला और यह घोषणा कर दी कि राज्य से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है इसका परिणाम यह हुआ कि जो टर्की यूरोप का मरीज समझा जाता था, आज वही अपने शौर्य, साहस और शक्ति से संसार को विस्मय में डाल रहा है। मिश्र, ईरान, ईराक और चीन की अवस्था भी बिल्कुल बदल चुकी है। वहाँ भी राष्ट्रवाद के समक्ष धर्म को गौण माना जाता है। अमानुल्ला ने अफगानिस्तान को भी नए साँचे में ढालने का प्रयत्न किया था, किन्तु विदेशियों के दलालों ने मदान्धों को उकसा कर उसकी मुराद पूरी न होने दी। इस प्रकार इस समय विश्व का नक्शा ही बदल गया है। हर देश और राष्ट्र जमाने की दौड़ में सबसे आगे रहना चाहता है, किन्तु हमारा अभागा देश अटल चट्टान की नाई अपने पुराने स्थान से जरा हिलना डुलना नहीं चाहता। दासत्व ने उसे नितान्त अकर्मण्य और चेतना रहित बन दिया है। प्रायः यह देखने में आता है कि पराधीन राष्ट्रों में ही मजहबी मामलों में ज्यादा दिलचस्पी ली जाती है। विदेशी शासक राज्यतन्त्र का संचालन करते हैं, इसलिए दास प्रजा प्रायः धर्म के नाम पर तर्क और वितर्क और लड़ाई-झगड़े करने में ही मशगूल रहती है।

हम धर्म के नाम पर धर्म-द्रोह का कटु फल काफी मात्रा में चख चुके हैं और अब भी चख रहे हैं। इसने हमें सहिष्णुता के स्वर्गीय सरोवर से निकाल कर नरक की नाली में नहलाया है, कल्याण पथ से हटाकर कुमार्ग का पथिक बना दिया है स्वाधीनता के स्वर्ग से धकेल कर गुलामी के गर्त में गिराया है, सद्भाव की सुगन्धि के बदले द्वेष की दुर्गन्ध में बोर दिया है, सौहार्द की सुधा छुड़ा कर वैर-विरोध का विष पिलाया है। हम अपनी सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कारण दुनिया में बुरी तरह से बदनाम हो रहे हैं। विश्व की प्रजा हमें नफरत की निगाह से देखती है और सोचती है कि हम सदा गुलाम रहने योग्य हैं। अब भी समय है, सजग हो जाना चाहिये, धर्म के असली रूप को पहचानना चाहिए। धर्म का यह धन्धा नहीं है कि वह मानव समाज में फूट और बैर फैलावें, वह तो स्नेह, सद्भावना, सहनशीलता, सौहार्द और सात्विक सिद्धान्तों का स्रोत है, वह मानव जीवन को उच्च और पवित्र बनाने का साधन है। जब हम धर्म के विशुद्ध रूप को जान कर तदनुकूल जीवन व्यतीत करने का संकल्प कर लेंगे और संकुचित साँप्रदायिकता को त्याग कर मनुष्य का मूल्य उसके आचरण से आकेंगे, तभी हम राष्ट्रीय भावनाओं को पुष्ट कर सकेंगे, जातीय जीवन की ज्योति जगमगा सकेंगे ध्यान रहे कि गुलाम प्रजा का कोई धर्म नहीं होता। धर्म और दासता में उतना ही अन्तर है जितना कि परमात्मा और पिशाच में। परमात्मा हमारे देश को सच्चे धर्म से ओत-प्रोत कर दे, यही मेरी कामना है।


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