उद्बोधन

November 1946

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(श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, साहित्यरत्न)

आँखें खोल उर की, हटाके यह मोह-पट,

प्रेम-मूर्ति, होके, प्रेम-गीत, जब गाएगा।

लहरा रही है वसुधा पै सुधा-धारा मञ्जु,

पीके उसे तब तू अमर-पद पाएगा॥

राग गूँजता है कण-कण में रसीला यहाँ,

ब्रह्मानन्द-धारा बीच सुन के समाएगा।

जागेगी अखण्ड-ज्योति तेरे मनोमंदिर में,

विश्व अभिराम-धाम तेरा बन जाएगा॥

आँगन में प्राची के मनोरमा उषा समोद,

स्नेह-सरिता में जगती को नहलाती है।

वायु के हिलोर मन्द मधु को लुटाती हुई,

जीवन में एक नव राग भर जाती है॥

लाल-लाल गूँध के गुलाब अलकों में मञ्जु,

संध्या-सुन्दरी साहस शाँति सरसाती है।

बैठा क्यों व्यथित, देख कर करुणेश की ये,

करुणा सकल विश्व-बीच लहराती है॥

तेरे प्रिय बन्धु क्यों विलग तुझसे हैं पड़े,

टूटी हुई प्रेम की लड़ी को अब जोड़ तू।

वासना-विभावरी है बाँधे अलकों में तुझे,

ज्ञान की जगा के ज्योति, यह पाश तोड़ तू॥

स्वार्थ-साधना में दिन-रात रहता है रत,

जीवन को गरल बनाना अब छोड़ तू।

शाँतिमय नन्दन निकुँजों में विहार कर,

नारकीय पथ से मनुज! मुँह मोड़ तू॥

प्रेम की सुधा से सींच सूखे हृदय स्थल को,

घुनी क्यों रमाता है, लगाता भस्म अंगों में।

ज्योति जागती है परमेश की अनवरन,

आँखें खोल, देख तेरी जीवन-तरंगों में॥

कान खोल, वायु गुन-गुन गा रहा है कुछ,

तू तो है महान्ध! मस्त अपने मृदंगों में।

अंतस् में तेरे रस-धारा बहती अमन्द,

भटक रहा क्यों तू वनों में, गिरि-श्रृंगों में?

*समाप्त*


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