कर्मयोग के मार्ग की श्रेष्ठता

November 1946

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(पं.- दीनानाथ भार्गव ‘दिनेश’)

कर्मयोग के मार्ग की श्रेष्ठता यही है कि इसमें लड़ते-2 मृत्यु से लड़ जाने पर स्वर्ग निश्चित हो जाता है और विजय प्राप्त कर लेने पर संसार का राज्य मिलता है।

संसार कायर पुरुषों के रहने का स्थान नहीं है। विजयी ही इसके सुखों का उपभोग कर सकते हैं। विजयी पुरुष ही सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होकर संसार का शासन करते हैं। हिन्दूधर्म शास्त्रों में कहीं भी कायरता और ग्लानि पूर्ण दीन हीन जीवन को स्थान नहीं दिया गया है पर आश्चर्य तो यह है कि आज हिन्दुओं ने ही आत्म सम्मान के मान का मस्तिष्क झुका दिया है।

पृथ्वी का राज्य पाने के लिए पृथ्वी के सुख का त्याग, शान्ति, क्षमा, मैत्री और करुणा के मिथ्या भावों ने भारतीयों के गौरवपूर्ण मुकुट की मणि को कान्तिहीन कर दिया है। योगी अरविन्द के शब्दों में गीता में वर्णित मार्ग को त्याग कर, उससे दूर शान्तिमय आश्रम में पहाड़ की गुफा में या निर्जन स्थान में गीता पथ के पथिक भगवान का दर्शन लाभ नहीं करते। वे तो बीच मार्ग में ही कर्म के कोलाहल में (युद्ध में) इस स्वर्गीय दीप्ति से जगत को आलोकित करते हैं।

विश्व भाषण-संग्राम क्षेत्र है, कौरवों तथा पाण्डवों की वृहत सेना का मध्य काल है, शस्त्र प्रहार हो रहा है, जो कर्त्तव्य कर्म में लगे हुए हैं, वे इधर-उधर विचलित नहीं होते। विजयी होकर ऐसे पुरुष ही संसार के सुख को भोगने के अधिकारी हैं। विकारी भावों में संसार विकारी हो सकता है परन्तु हमारे शास्त्र तो कहते हैं- ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’-वीर ही पृथ्वी का राज्य भोगते हैं। भारत वर्ष की स्त्रियाँ धर्म राज तक से कहने का सामर्थ्य रखती थीं-

“पराक्रम के आश्रय में रहने वाली समृद्धियाँ विषाद के साथ कभी नहीं रहतीं।”


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