अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य को अपनी काम वासना की पूर्ति का समुचित अवसर समाज में उपलब्ध नहीं होता। इस अतृप्ति के फलस्वरूप, मुख्यतः देर से विवाह करने पर या आजन्म ब्रह्मचारी रहने से पुरुषों में मानसिक नपुँसकता एवं स्त्रियों में मानसिक बाँझपन की उत्पत्ति होती है। एक आयु ऐसी आती है, जिस पर विवाह होकर वासना की भूख शान्त होना इस हाड़ माँस के प्राणी के लिए अनिवार्य और प्राकृतिक है। प्रकृति इस इच्छा की तृप्ति चाहती है तथा विभिन्न रूपों में प्रेम की भूख मिटाने का उपक्रम करती है।
मानसिक नपुँसकता के कारण पुरुष वीतराग हो जाता है। साधारण मनोरंजन में भी भाग नहीं लेता। स्त्रियों को घृणा तथा अनादर की दृष्टि से निरखता है, उनके संपर्क में नहीं आना चाहता, कभी-कभी उनसे लड़ता झगड़ता गुस्सा होता है। प्रायः सन्तान निरोध के प्रयोग करने वाले व्यक्ति भी इस रोग के शिकार बन कर अतृप्त रहा करते हैं। उनका वासनामय जगत अत्यन्त अशान्त रहता है। स्त्रियाँ संन्यासिनी सी, दुःखी, असंतुष्ट एवं अतृप्त बनी रहती हैं। अपने पति के चरित्र पर सन्देह करने वाली स्त्री ईर्ष्या से ऐसी जलती हैं कि हिस्टीरिया की शिकार बन जाती है। ऐसे रोगी प्रायः बात-बात पर शक करते हैं। पुरुष अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह कर पागल से बन जाते हैं। रति के बिना अर्थात् वासना की पूर्ति के अभाव में प्रीति भी भयानक मानसिक रोग का कारण बनती है।
वासना को रोकिये मत, उसे निकलने बहने का प्राकृतिक मार्ग दीजिए। समाज की रीति नीति मर्यादा को दृष्टि में रख कर वासना की पूर्ति करना अनेक मानसिक रोगों से बचना है। पति पत्नि को एक दूसरे के चरित्र पर भूल कर भी सन्देह न करना चाहिए। अधिक दिन तक अविवाहित रहना, सन्तान निग्रह के उपायों की शरण लेना, साधुत्व का स्वाँग करना, आदर्श (ढ्ढस्रद्गड्डद्य) की दुनिया में रँगे रहना, ब्रह्मचर्य व्रत का नाटक करना मानसिक विकारों को न्योता देना है। प्रेम की पूर्ति, दाम्पत्य प्रेम की तीनों अंगों (रति या वासनामय प्रेम, प्रीति (निस्वार्थ प्रेम के प्रसार) में होना चाहिए। प्रेम की प्रत्येक अवस्था क्रमशः एक दूसरे के पश्चात प्राकृतिक रूप से पार किया जाना मनोविज्ञान को दृष्टि से अनिवार्य है। काम वासना की पूर्ति होनी चाहिए। जब आप उस वासना का शोध कर प्रेम की अन्तिम अवस्था में पहुँच जाएँगे, तभी आत्मा का समुचित प्रसार हो सकेगा। दाम्पत्य प्रेम का प्रसार प्राकृतिक है। विषय भोग का सहवास आत्म प्रसार की प्रथम अवस्था है। इस स्टेज को पार करने के पश्चात ही मानसिक शक्ति का विकास हो सकता है। रति, प्रीति और प्रेम प्रसार का चरम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है। अतएव, अपने प्रेममय जीवन में बड़े सावधान रहें।
मनोभावों को कुचलिए नहीं। दलित मनोभाव सदैव प्रकाशन में लगे रहेंगे। प्रतिक्रिया स्वरूप या तो आप विक्षिप्त हो जाएँगे अथवा किसी अन्य मानसिक व्याधि के पंजे में पड़ेंगे। कभी कभी स्त्रियाँ कामवासना के दमन के कारण विक्षिप्त बन जाती हैं। ऐसी अवस्था में रेचन विधि का प्रयोग कीजिए।
रेचन विधि क्या हैं?
रेचन विधि छुपी हुई काम वासना को चेतना के समक्ष लाने की मनोवैज्ञानिक विधि है, जब चेतना के सन्मुख कोई गुप्त वृत्ति, दलित मनोभाव, वासना इत्यादि लाया जाता है तो वह इच्छाशक्ति के अधिकार में आ जाता है और फिर व्यक्त मन (ष्टशठ्ठह्यष्द्बशह्वह्य द्वद्बठ्ठस्र) के द्वारा निराकरण किया जा सकता है। दलित मनोभाव का चेतना के समक्ष प्रकाशन होने से विक्षिप्तता दूर हो जाती है। मानसिक जगत किसी भी भावना को कैद में नहीं रखना चाहता। वह तो पूर्ण मुक्ति तादात्म्य समस्वरता (॥ड्डह्द्वशठ्ठब्) चाहता है। अतएव स्थायी लाभ के लिए हमें चाहिए कि उस दलित मनोभाव से मित्रता करें और अपना कठोर दृष्टिकोण बदल दें उससे समन्वय कर लें। जब तक प्रत्येक कुचली हुई वासना चेतन और अचेतन मन से सामंजस्य स्थापित नहीं कर लेती, सम्पूर्ण रेचन नहीं हो सकता न मानसिक व्यथा का अंत ही हो सकता है। हेडफील्ड साहब के अनुसार किसी वासना के दमन का ज्ञान कर लेना, उसे ठीक तरह समझ लेना भी मनोवैज्ञानिक प्रकाशन है। इससे भी सामंजस्य स्थापित हो सकता है।