आधुनिक मनोविज्ञान की रोग निवारक रीतियाँ

March 1946

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संकेत तथा आत्म संकेत—

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों-मेस्मर जेने, फ्रायड एडलट, जुँग, क्यू ने आत्मसंकेतोपचार पर अत्यधिक जोर दिया है। इन महोदयों के हाथ में मानसोपचार अब वैज्ञानिक तथ्य हो चुका है। फ्राँस के सुप्रसिद्ध डॉक्टर एमिली क्यू साहब ने वर्षों के अनुसंधान के पश्चात जिस प्रणाली का उद्घाटन किया है, वह सर्वमान्य है तथा लाखों व्यक्ति उससे लाभ उठा रहे हैं। ब्रुक्म महोदय ने एमिली साहब का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है। अतः उनके अनुभवों तथा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का निष्कर्ष हम यहाँ उपस्थित करेंगे।

मानसोपचार सूचना (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठह्य) तथा आत्मसूचना (्नह्वह्लश-स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठह्य) इन दो मार्गों द्वारा किया जाता है। इसमें आत्मसूचना का स्थान अधिक ऊंचा है। आत्मसूचना का प्रभाव भी अधिक तीव्र तथा चिरस्थायी होता है।

क्यू साहब के उपचार की प्रणाली-

सर्व प्रथम क्यू साहब एक मध्यम वयस्क पतले-दुबले मनुष्य की ओर अभिमुख होते हैं। इसे स्नायु दौर्बल्य (हृद्गह्क्शह्वह्यठ्ठद्गह्यह्य) का भयंकर रोग हो गया है। बड़ी कठिनाई से यह चल फिर सकता है तिस पर भी इसके हाथ पाँव बुरी तरह काँपते रहते हैं। क्यू साहब के निर्देश से वह छड़ी के सहारे से बड़ी कठिनाई से उठ कर चार छः कदम चला, फिर भी उसके घुटने मुड़े हुए थे और वह पैर जमीन से घिसटता जाता है। क्यू साहब कहते हैं कि तुम अच्छे हो चले हो। तुमने अपने गुप्त मन में निर्बलता, निराशा, भय आदि भाव भर रखे थे, जिससे तुम्हारी यह दशा हो चली थी। अब तुमने इनके विपरीत शुद्ध भावों का भरना आज ही से आरम्भ कर दिया है, इससे तुम शीघ्र ही अच्छे हो जाओगे। जिस शक्ति ने तुम्हें रोगी बना दिया था, वही तुम्हें अच्छा भी कर सकती है। तुम्हें उसका उपयोग मालूम नहीं था। इन संकेतों का आश्चर्यजनक प्रभाव हुआ और उस व्यक्ति के मुड़े हुए घुटने पुनः कार्य करने लगे।

जिस दिन का उक्त वर्णन है, उसी दिन क्यू साहब के पास मंज्जातन्तु की निर्बलता (हृद्गह्क्शह्वह्यठ्ठद्गह्यह्य) के रोग से पीड़ित एक लड़की भी आई थी। उस दिन उसका तृतीय दिन था। वह 10 दिन से घर पर संकेतों का अभ्यास कर रही थी। उसने मुस्करा कर कहा कि उसे बहुत कुछ लाभ हुआ है। उसकी बातें सुन कर रोगियों में नवजीवन विश्वास, तथा श्रद्धा का संचार हो उठा। पैरिस के तीन मनुष्य आये थे जो बिना लकड़ी की सहायता के नहीं चल सकते थे। उसके साथ एक सुनार भी आया था जिसका दाहिना हाथ 10 वर्षों से कन्धों के ऊपर नहीं उठता था। इन सबको क्यू साहब ने संकेत (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठह्य) देकर अंतर्मन की शक्ति को उत्तेजित कर रोग मुक्त किया।

इसके अनन्तर क्यू साहब ने रोगियों को आत्म-चिकित्सा का सिद्धान्त समझाया और थोड़े से रोगियों को लेकर नहीं सप्रमाण सिद्ध करके भी दिखा दिया। संक्षेप में उन्होंने कहा - (1) प्रत्येक भावना जिसके चिंतन से ही हमारा मन पूर्ण रूप से निमग्न हो जाता है-हमारे शारीरिक, भौतिक अथवा मानसिक स्थिति में तद्रूप परिवर्तन अवश्य उत्पन्न कर देता है। (2) उस भावना को दूर करने के लिए जितना ही हम ऊपरी मन से प्रयत्न करते हैं, उतनी ही दृढ़ता से उसकी और जड़ जमती हैं।

क्यू साहब दो प्रकार के संकेत (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठ) रखते थे। सब रोगियों के लिए एक तो सामान्य सूचनाएँ (त्रद्गठ्ठद्गह्ड्डद्य स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठ) इनके पश्चात वे प्रत्येक रोगी को क्रमशः उसके रोगानु कूल विशेष (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठ) सूचनाएँ देकर उपचार करते थे। उनकी प्रणाली आत्म-सूचनाओं की है। वे समस्त रोगों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की सूचनाएँ देकर रोगियों को भला चंगा कर देते थे। उन सूचनाओं से रोगियों का सोया हुआ विश्वास, अपनी शक्तियों के प्रति श्रद्धा, जागृत हो जाती है और वे भले चंगे हो जाते हैं।

श्री उमादत्त जी पाँडे ने, आत्मसंकेतोपचार को निम्न भागों में विभाजित किया है। 1-स्वेच्छिक, 2-अनैच्छिक, 3-स्वेच्छिक अनैच्छिक। अपने आपको इष्ट कार्य, बात या वस्तु के लिए अधिकार पूर्वक हिदायत देना आत्म संकेत है। हमारे इन संकेतों का प्रभाव सीधा गुप्त मन पर पड़ता है। इन संकेतों द्वारा अद्भुत प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और व्यक्तित्व का पुनर्निर्माण होता है। संकेतों से स्वभाव तक में परिवर्तन हो सकता है, भूत, प्रेत का भय भगाया जा सकता है। श्री उमादत्त जी अपने अनुभवों द्वारा निम्न निष्कर्षों पर पहुँचते हैं-

1. जब तक हमारा मन किसी सूचना (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठ) को पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर लेता, तब तक वह वास्तविक रूप धारण नहीं कर सकता। संकेत स्वीकार हो जाना चाहिए।

2. प्रत्येक भावना जो हमारे मन में आती है, उसको यदि अन्तर की अचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है, तो वह हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। स्वेच्छित आत्म संकेत इसी रीति का नाम है।

3. संक्षेप में, आत्म-संकेतोपचार में केवल दो ही बातें होती हैं। (अ) भावनाओं को रोगी के मन में प्रविष्ट कराना तथा (ब) आन्तर की अचेतन वृत्ति का उन्हें ग्रहण करके (्नष्ष्द्गश्चह्ल) वास्तविक रूप धारण करना। ये दोनों बातें अचेतन मन द्वारा ही सम्पन्न होती हैं।

मानसोपचारक की सफलता का रहस्य यही है कि वह अपने संकेतों को अंतस् की अचेतन वृत्ति द्वारा ग्रहण (्नष्ष्द्गश्चह्ल) करा दे। यदि हम ग्रहण कराना सीख लें (जो दीर्घ कालीन अभ्यास द्वारा प्राप्त होगा) तो हमने पूरा मार्ग तय कर लिया। आत्म सूचनाओं में विश्वास, उनको सच्चाई प्रबलता वृत्ति का उसमें पूर्ण स्थिर हो जाने पर ही अंतस् की अचेतन वृत्ति उन्हें ग्रहण करती है। बाह्य भावना का तिरस्कार या ग्रहण अन्तःकरण की प्रवृत्ति पर निर्भर है। यदि सूचनाओं में संशय रहा तो रोगी मनुष्य से स्वास्थ्य की भावना को कैसे ग्रहण कराया जा सकता है? अतः सूचना देते समय सब प्रकार के संशय निकाल कर पूर्ण विश्वास में जबरदस्ती चेतन विरोधी तक वितर्कों के विपरीत अपनी इष्ट भावना को अंतस् की अचेतन वृत्तियों द्वारा ग्रहण करा देना चाहिए।

आत्म संकेत का प्रयोग-

आत्म संकेत (्नह्वह्लश-स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठह्य) में रोगी स्वयं अपने आपको संकेत देता है। वह दूसरों के संकेत न लेकर संकेत स्वयं बनाता, उच्चारण करता और उन्हें अन्तस की अचेतन वृत्ति द्वारा ग्रहण कराता है। वह अपनी श्रद्धा तथा विश्वास को उत्तेजित कराता है वह जिन संकेतों का उच्चारण करता है, कालान्तर में वे ही उसके स्वभाव के अंग विशेष बन जाते हैं और वह रोग मुक्त हो जाता है। इस विधि से पूर्ण लाभ उठाने के लिए हमारी प्रसिद्ध पुस्तक “महान जागरण” पढ़िये।

आत्म पोषण (स्द्गद्यद्ध-ड्डह्यह्यद्गह्ह्लद्बशठ्ठ)-

हम शरीर नहीं, वरन् आत्मा हैं। हममें ईश्वरीय सत्ता है, यही हमारा परम पवित्र स्थान है, यही पूर्ण स्वास्थ्य, शान्ति, सुख का अक्षय भंडार है। यदि हम प्रत्येक कामना को, विचार को, मनोभावों को इस अन्तरात्मा की दैवी शक्ति का पूर्ण आज्ञाकारी बना दें तो हम पूर्ण स्वस्थ रह सकते हैं। जब मनुष्य उच्च सत्ता-अन्तरात्मा-की शरण लेता है, निरन्तर उसी में रमण करता है, तो उसकी सब चिंता, व्याधि दूर होती हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य की श्रद्धा अपनी पवित्र आत्मा, निर्विकार आत्मा में दृढ़ होता जाती है, ज्यों-ज्यों वह पराशक्ति से तदाकार करता जाता है त्यों त्यों उच्च मनः भूमिका में प्रविष्ट होता जाता है।

सदाग्रह का तर्क (क्कद्गह्ह्यह्व)-

बीमार में रोग-निवारक सामर्थ्य दृढ़ करने के लिए कुछ चिकित्सक उसे तर्क वितर्क (स्नड्डष्ह्लह्य ड्डठ्ठस्र ड्डह्द्दह्वद्वद्गठ्ठह्लह्य) द्वारा फुसलाते हैं। इस मानसिक क्रिया में उपचारक को अनेक दलीलें पेश करनी पड़ती हैं, कायदे कानून से मन को स्वास्थ्य एवं बल की दिशा में झुकाना पड़ता है। इसे मानसिक तर्क कह सकते हैं।

मन किसी बात को यों ही स्वीकार नहीं कर लेना चाहता। अंतर्मन यह चाहता है कि आप उसके सामने दलीलें पेश करें हर बात को समझावें, कायदे-कानूनों का उल्लेख करें, तब वह अपनी दूषित बातों को त्याग कर नवीन मार्ग ग्रहण कर सकता है।

मान लिया कि आप उद्वेग से पीड़ित हैं और ठीक होने के लिए मानसिक तर्क की प्रणाली का अनुसरण करना चाहते हैं। आप इस प्रकार दलीलें दीजिए-

“मैं जान गया हूँ कि मन चंचलता ने मुझे कितना नचाया है। आज मेरे मन की आँखें खुल गई हैं। जीवन निर्माण की कला में दृढ़ता की कितनी आवश्यकता है-यह मेरी समझ में आ गया है। आज तक कोई भी व्यक्ति क्षण-क्षण उद्विग्न होकर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सका है। मुझ में आत्माग्नि प्रज्वलित हो गई है। बड़े-बड़े प्रलोभन, पाप, भय और सन्देह दृढ़ता के सन्मुख दूर हो जाते हैं।”

अनेक प्रकार की युक्तियाँ देकर मन की प्रवृत्ति रोग, शोक, दोष, आधि-व्याधि संताप, आतुरता, खिन्नता उद्विग्नता से मोड़ दो। उसके समक्ष ऐसी ऐसी दलीलें पेश करो कि वह शान्त होकर दुःख, चिंताएँ, शोक, संताप, पश्चाताप, निराशा से हट कर मंगलमय भविष्य, स्वास्थ्य, बल, माधुर्य, अखण्ड आनन्द में लीन हो जाय, ईश्वरीय मार्ग पर आरुढ़ हो जाय। अपने भीतर के गुप्त प्रदेश में, जहाँ, सर्वत्र निर्मलता, पवित्रता, शुद्धता, कल्याण, पूर्ण शान्ति है-प्रवेश कर जाय। एक बार आत्मनिष्ठ का, आत्मा में रमण करने का आनन्द चखने के पश्चात वहाँ से हटने का नाम न लेगा। मन बड़ा नटखट है। जब तक इस शैतान को खूब न समझाओ, तब तक सदाग्रह पर न आयेगा।

जब-जब मन व्यग्र हो उठे, या तुम्हें ऐसा प्रतीत हो कि रोग तथा व्याधि में लीन होता जा रहा है, तब-तब आप अपने आन्तरिक विश्वास को जाग्रत कीजिए। यह संकेत दीजिए-

“मेरी शक्तियाँ वैसा ही कार्य करेंगी, जैसा मैं उन्हें आज्ञा दूँगा। वे स्वभावतः उन्हीं वस्तुओं को उत्पन्न करेंगी, जिनकी चाह मैं उनसे करता हूँ। मेरी शक्तियों! मैं तुमसे बल माँगता हूँ। तुम मुझे बल दे रही हो, मुझे शक्तिशाली बना रही हो। सफलता के परमाणुओं को आकर्षित कर रही हो। तुम्हारे ही कारण मेरी स्वाभाविक प्रवृत्ति विजय की ओर झुकी हुई रहती है।”

जितना ही आप उचित तर्क उपस्थित करेंगे, उतना ही मन की अचेतन वृत्ति आपकी सूचनाओं को ग्रहण करेगी। मन को बार-बार समझाओ। अपनी विद्वता उसकी वृत्ति ठीक रास्ते पर लाने में व्यय होनी चाहिए। रोग से मुक्त होने के लिए आपके मन तथा सद्बुद्धि में सामंजस्य स्थापित होना अनिवार्य है।

स्वीकृतियाँ तथा अस्वीकृतियाँ -

आपके संकेतों के दो रूप हो सकते हैं- आप कह सकते हैं “मैं रोगी नहीं हूँ” तथा “मैं रोग मुक्त हूँ” इन दोनों का अर्थ एक ही है किन्तु इन दोनों पुकार के संकेतों का दो प्रकार प्रयोग होना चाहिए। पहले आप तमाम व्याधियों को अस्वीकृत कर दीजिए। अयोग्य मकान को तोड़ फोड़ कर ही, नई इमारत खड़ी की जा सकती है। युग-युग के संकलित झूठे विध्वंसकारी विश्वासों, कल्पनाओं, दूषित संस्कारों को निकाल कर ही, नए सिरे से अंतर्मन का निर्माण हो सकता है।

आप अमंगल, रोग, शोक, व्याधि का अपने ऊपर प्रभाव अस्वीकार कर दीजिए। उसकी शक्ति को न मानिये। यदि आप उसकी वास्तविकता अस्वीकार कर दें और अपने ऊपर उसके प्रभाव को पड़ता हुआ न मानें, तो आपके ऊपर उसकी शक्ति न रह जायगी, रोग स्वयं भाग खड़ा होगा।

अस्वीकृतियों की यह रीति है-आप कहिए मेरी आत्मा मेरी शुद्ध बुद्धि किसी भी रूप में रोग व्याधि को स्वीकार नहीं करती क्योंकि उनकी सत्ता नहीं, अतः उनकी शक्ति भी नहीं हो सकती। मेरे ऊपर आधि-व्याधि का जादू नहीं चल सकता। मैं उसे हृदय से मन से अपने आन्तरिक स्तर से अस्वीकार करता हूँ। मैं नहीं मानता कि मैं रोगी हूँ, मैं अस्वीकार करता हूँ कि मैं कमजोर हूँ। मेरे ऊपर आधि-व्याधि का किसी भी रूप में अधिकार नहीं है।

इस प्रकार हम अमंगल की सत्ता को अपने ऊपर अस्वीकार करके मन के अयोग्य संस्कारों को विध्वंस करते हैं। किन्तु अमंगल का अस्वीकार करना सिर्फ आधा काम है। नव सृजन के निमित्त आप कुछ संस्कार स्वीकार भी कीजिए। इन संस्कारों पर आप अपने स्वास्थ्य, शान्ति, आनन्द का सुन्दर महत्व निर्माण कर सकते हैं। आप स्वीकार कीजिए कि आप परम शक्तिशाली आत्मा हैं। आपके अन्दर सब कुछ परम मंगलमय शुद्ध, पवित्र, ही है। आप स्वीकार कीजिए कि आप पूर्ण स्वस्थ नीरोग, प्रफुल्ल हैं, परमात्मा के राजकुमार हैं, आपकी शक्तियाँ अनेक इन्द्रवज्रों से बढ़ी-चढ़ी हैं। आप अपने को अनन्त जीवन मानिये, स्वाधीन, स्वतंत्र, परम विशुद्ध स्वीकार कीजिए। आप प्रतिदिन सायंकाल अथवा प्रातःकाल शान्त चित्त होकर एकान्त स्थान में नेत्र मूँद कर बैठ जाओ और सब प्रकार के विचार हटा कर निम्न स्वीकृतियाँ (्नह्यह्यद्गह्ह्लद्बशठ्ठह्य) दोः-

“मैं निर्लप आत्मा हूँ। मैं शरीर के रोग, शोक, आधि-व्याधि, क्लेश, अहंकार, ईर्ष्या, काम क्रोध से ऊपर उठा हुआ तेजःपुंज हूँ। मैं अपने निर्विकार शुद्ध स्वरूप में स्थिर रहता हूँ। मैं स्वास्थ्य स्वरूप आत्मा के ध्यान में निरत रहता हूँ। मेरे भीतर शक्ति का सागर उद्वेलित हो रहा है। मैं पवित्र आत्मा में ही रहता, चलता-फिरता और निज अस्तित्व रखता हूँ।

आपकी इन स्वीकृतियों में श्रद्धा हो। विश्वास भरा हो। एक-एक शब्द में आपका अखण्ड अचल विश्वास हो। जैसे-जैसे ये स्वीकृतियाँ अंतर्मन में बैठती जायेंगी वैसे-वैसे तुम बलिष्ठ और नीरोग होते जाओगे। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में स्वीकृति की शताँश बलशालिनी कोई औषधि नहीं है। एक ज्ञानवान श्रद्धावान, आत्म-विश्वासी पुरुष की जानकर की हुई (ढ्ढठ्ठह्लद्गठ्ठह्लद्बठ्ठड्डद्य) स्वीकृति अविरोध्य है। उसका प्रभाव अनेक झगड़ों के होते हुए भी आन्तरिक तह तक होता है।

वासनाओं की समुन्नति एवं परिष्कार -

अस्वाभाविक रूप से रोकी हुई वासनाएँ निरंकुश होकर व्याधियाँ उत्पन्न करती हैं। आप वासना (क्कड्डह्यह्यद्बशठ्ठ) को अतृप्तावस्था में दबा नहीं सकते। दलित वासना, अतृप्त पिपासा, दुराचार में परिणित होकर मनस्ताप उत्पन्न करेगी। वासना का कभी नाश नहीं होगा। जब तक हम पशु हैं तब तक वासनाएँ भी हमारे साथ हैं। कितने ही व्यक्ति अविवाहित रहने का प्रण कर डालते हैं या साँसारिक विराग धारण कर अपनी इच्छाओं, वासनाओं को बुरी तरह कुचलते हैं। वासना के मार्ग में रुकावट डालना अत्यन्त अप्राकृतिक कार्य है।

उचित यह है कि निर्णय करके वासना का मार्ग किसी दूसरी दिशा में मोड़ दें। उसे परिमार्जित करें। उसमें से गन्दगी निकाल दें। वासनाओं के परिष्कार का मार्ग नैतिक दृष्टि से उत्तम है। इससे आन्तरिक संघर्ष नष्ट होता है। मनुष्य को आन्तरिक क्लेशों से बचने के लिए अपनी प्रकृति में अपनी आत्मीयता में अपने आप में स्थिर होना चाहिए।

आप अपनी वासनाओं का मार्ग भक्ति के रूप में खोल सकते हैं। छोटे-छोटे जानवरों, पक्षियों, फूल, पेड़ बेल इत्यादि के अध्ययन मनन में, कला के विभिन्न रूप जैसे चित्रकारी, संगीत, काव्य लेखन, पच्चीकारी, नृत्य, परोपकारी, पूजन, धर्म प्रसार, उपदेश इत्यादि के अनेक भागों में आप अपनी कुत्सित वासनाओं की कल्मष धो सकते हैं। किसी ललित कला को लेकर अपना सब कुछ उसमें उड़ेल दीजिए।

परिष्कार के लिए लोक संग्रह का कार्य परम पुनीत है। हम जो कुछ भी करें, उसी में लिप्त न रह कर उन्हें भगवान के अर्पित करें। प्रत्येक कार्य को भगवान का समझ कर ही करें। अपने आप को भगवान के हाथ का एक औजार मात्र समझें। हम जो कुछ करते हैं-वहीं कराता है, ऐसी भावना बड़ी परिष्कारणी है।

निष्काम मन से परोपकार, जनता की सेवा में प्रवृत्त हो जाइये। निष्काम कर्म के आचरण से मन में किसी प्रकार का स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष, प्रलोभन नहीं रह जाता। सुकर्म करने वाला मनुष्य विविध इच्छाओं से वशीभूत होकर अनेक प्रमादों में फँसता है किन्तु निष्काम कर्म करने वाले का दिव्य हेतु केवल परमात्म तत्व की प्राप्ति ही रहती है। वस्तुतः वह सिद्धि-असिद्धि, दुःख, क्लेश में भी एक सा बना रहता है साँसारिक कामनाओं में लिप्त न रहने के कारण उसे दुष्ट मनोविकार अधिक नहीं सताते। इस विषय में श्री गीता जी का वचन स्तुत्य है-

“समत्व बुद्धि वाला मनुष्य पुण्य तथा पाप को इसी लोक में त्याग देता है। अर्थात् उनमें लिप्त नहीं होता। अतः समत्व बुद्धि योग के लिए आवश्यक है। यह समत्व बुद्धि रूप योग ही कर्मों में चतुरता हैं अर्थात् कर्म बन्धन से छूटने का उपाय है” (गीता 2/49)

वासनाओं की यह समुन्नति (स्ह्वड्ढद्यद्बद्वड्डह्लद्बशठ्ठ) ही मानसिक रोगों से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम मार्ग है। यह मार्ग प्राकृतिक भी है। इससे विरोधी भावों की उत्पत्ति की किंचित भी आशंका नहीं। इस प्रकार वासनाओं के निरोध से चाह नहीं बनी रहती और न वासना को अवरुद्ध होकर अनियंत्रित विकृत मार्ग से फूट कर उलझन उत्पन्न करने की आवश्यकता रहती है।

इसी प्रकार दूषित मनोवृत्ति को अपने स्थान से हटा कर नवीन वृत्ति (ष्ठद्बह्यश्चद्यड्डष्द्गद्वद्गठ्ठह्ल) भी अच्छा उपाय है। इसमें अन्य सब बातों को भूल कर केवल एक ही में दत्त-चित्त हो जाना पड़ता है। हमारी समझ में परमार्थ का मार्ग अनुसरण करना सर्वोत्तम उपाय है। धर्म बुद्धि एवं मैत्री भावना के आभास से व्याधियाँ उत्पन्न ही नहीं होती।

अतः जब कोई मूल प्रवृत्ति प्रकट होना चाहे तो लोक मर्यादा की रक्षा करते हुए उसे प्रकाशित होने और तृप्त होने का अवसर प्रदान करना चाहिए। दबाने की अपेक्षा उसे प्रकट करने के परिमार्जित रूप सोचने चाहिए। ऐसा करने से हम प्रकृति के साथ अन्याय न करेंगे और हमारा अव्यक्त मन, व्यक्त मन से सामंजस्य प्राप्त कर लेगा। संगीत वासनाओं की शोध करता है। अनेक व्यक्ति बालकों को पढ़ाने लिखाने में उनके साथ हँसने खेलने में, लोरी देने में, पूजा पाठ, टहलने, फुलवारी आदि से वासनाओं का शोध करते हैं। यह मार्ग नीति धर्म के अनुकूल हैं इन सभी से वासनाओं का शोध करना चाहिए।


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