मनोविश्लेषण द्वारा रोग-निवारण

March 1946

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नवीन मनोविज्ञान का सन्देश है कि रोगी कि चिकित्सा मन में संचित विषैले एवं दूषित संस्कारों (ढ्ढद्वश्चह्द्गह्यह्यद्बशठ्ठह्य) से करो। रोग की जो जड़ें अव्यक्त मन में मानसिक भावना ग्रन्थियों के रूप में विनिर्मित हो गई हैं, उन्हीं का उन्मूलन करने से चिर स्थायी आन्तरिक शान्ति की आशा की जा सकती है।

मनोविश्लेषण (क्कह्यब्ष्द्धश-्नठ्ठड्डद्यब्ह्यद्बह्य) हमें बताता है कि रोगी के मन की जाँच करो। उसमें वर्षों के संचित अप्रिय कटु संस्कारों को ढूँढ़ो, कुचली हुई आशाएं, मनोरथ, दलित वासनाएँ, ईर्ष्या, द्वेष, अत्याचार दूषित कल्पना, अभद्र विश्वासों, रूढ़ियों चिरकाल के एकत्रित अवरुद्ध विचारों, हसरतों, अरमानों, को छाँट-छाँट कर देखो भालों और मालूम करो कि रोग उत्पन्न करने वाला, उपद्रवी संस्कार कौन सा है? मनोविश्लेषण क्रिया एक प्रकार की रेचन-क्रिया है। जैसे रेचक द्वारा सब संचित मल बाहर फेंक दिया जाता है, वैसे ही मन के रेचन द्वारा आन्तरिक स्थिति का ज्ञान किया जाता है। मनोविश्लेषण से मानसिक व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। किन्तु मनोविज्ञान का पहला प्रश्न यही रहता है-क्या तुमने अपने रोग को भली-भाँति देख समझ कर परख लिया है। वह कहता है कि चिकित्सा से पूर्व जब तक तुम रोगी के अव्यक्त मन में प्रस्तुत चिर संचित वासनाओं, दलित मनोवृत्तियों से भली-भाँति परिचित न हो जाओ, तब तक अन्य कुछ भी औषधि का प्रयोग न करो। रोगी के मन का सम्यक् अध्ययन किए बिना, उसके पेट में दवाई उड़ेलना ऐसा ही है जैसे बिना दिशा साधे हुए तीर फेंकना।

मानसोपचारक मन का विश्लेषण करता है किन्तु मन अन्य वस्तुओं की तरह बाहर से पर निकाल कर नहीं रखा जा सकता। वस्तुतः वह रोगी को अपनी आत्मीयता के अन्दर ले लेता है तथा उससे निर्भय रूप से गुप्त से गुप्त बातें करता है। वह मन के सात पर्दों के पीछे से भी छुपी हुई इच्छा को ढूँढ़ निकालना चाहता है। अतः जब तक वह मर्म भेदा, तीव्र दृष्ट वाला न बने, तब तक उसका कार्य नहीं चल सकता। मनोवैज्ञानिक रोगी को व्याधि के लक्षणों को समझाता है। इसी समय वह रोगी से अपने पूर्व जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को स्मृति पटल पर लाने को कहता है वह उससे अपनी गुप्त से गुप्त बातें करने को उत्साहित करता रहता है। मनोविश्लेषण में रोगी को बोलने, बातें करने, अपने विगत कटु अनुभव सविस्तार सुनाने, अपने दृष्टिकोण को समझाने की पूरी-पूरी आजादी दी जाती है।

मानसोपचारक बात-बात में रोगी के मर्मस्थल को टटोलता, समझता, पूछता रहता है। उसके प्रश्न बड़े तीखे और दूर तक खोजने वाले मर्म भेदी होते हैं। वह रोगी को संदेह नहीं होने देता। अन्यथा रोगी कदापि अपना दिल उपचारक के सामने न खोलेगा। अतएव चिकित्सक को बड़े कौशल (ञ्जड्डष्ह्लद्धह्वद्यद्यब्) से काम लेना पड़ता है। वह रोगी को विश्वास दिलाता जाता है कि उसके गुप्त रहस्यों को किसी पर प्रकट न होने देगा।

कौन सी बात छिपाई गई हैं?

विशेषज्ञ को यही ढूँढ़ना पड़ता है। छुपी हुई भावना ग्रन्थि (ष्टशद्वश्चद्यद्गफ्) को ढूँढ़ निकालना ही इस चिकित्सा की आधार शिला है वह विभिन्न प्रश्न समूह द्वारा यह देखना चाहता है कि अव्यक्त प्रदेश में कौन सी बात छुपी है, कौन सी घटना को रोगी छिपाने का प्रयत्न कर रहा है। बात कहते-कहते कहाँ पर आकर रोगी आनाकानी करता या रुक जाता है, किस विषय पर बहस नहीं करना चाहता। उपचारक को अव्यक्त प्रदेश में विनिर्मित संस्कारों, वासनाओं, स्थितियों, अरुचिकर प्रसंगों, खिन्नता उत्पन्न करने वाली बातों या व्यक्तियों का पूरा चिट्ठा बनाना होता है। अतः वह पुनः-पुनः अनिच्छा से जानने वाले विचारों को दुहरा कर रोगी के मन की जाँच करता है। अपनी राम कहानी तथा अनुभव स्मृति-पटल पर लाते लाते रोगी के मन से प्रसुप्त संस्कार निकल आता है।

चित्त विश्लेषक इन भावना ग्रन्थियों को सुलझा कर ही रोग की जड़ दूर करते हैं। इन भावना ग्रन्थियों का कारण ही ढूँढ़ निकालना कठिन है। पुराने अनुभव याद कराने से जब प्रसुप्त संस्कार निकल आता है तो वह मानसिक ग्रन्थि खुल जाती है।

एक विश्लेषण का उदाहरण —

कुछ वर्ष पूर्व डॉक्टर दुर्गाशंकर जी नागर के पास एक रोगी सज्जन आये, उनके बाएँ हाथ की मुट्ठी बँधी हुई रहती थी और कभी-कभी दो, तीन घंटे के बाद वे ऐसी चेष्टा करते थे मानो किसी को बड़े रोष में मुक्का मारने वाले हैं। इस चेष्टा से वे बड़े परेशान थे। आफिस में उनको इस चेष्टा का दौरा उठ जाता था तो वे बड़े क्लान्त होते थे। मनोविश्लेषण में उनसे अपने जीवन की विशेष-विशेष घटनाओं को स्मृति-पटल पर लाने को कहा गया, अनेक प्रश्न पूछे गए।

कई वर्ष पूर्व की एक घटना का बिजली का सा प्रचारण उनके दिमाग में आया और वे कहने लगे कि- “एक मित्र ने मेरा बड़ा अपमान किया था। उसका मुँह तक देखना नहीं चाहता था। उसकी स्मृति आते ही मेरा शरीर जकड़ जाता था। उसके प्रति विद्वेष की भावना से मेरे मन में उसको तोड़ने की इच्छा बनी रहती थी। मेरे बाएँ हाथ की मुट्ठी बँध जाती थी और उसके मानसिक चित्र पर मैं प्रहार करने लगता था। यह घटना तो मस्तिष्क के किसी कोष्ठ में विस्मृति के गर्त में चली गई। घटना का भाव तक न रहा किन्तु आठ मास बाद बाएँ हाथ की मुट्ठी बँधी रहने लगी और किसी को मुक्का मारने की भावना सताने लगी।

यह घटना अव्यक्त से व्यक्त मन पर आते ही उनकी आदत कम होती गई। नित्यप्रति नियमित रूप से ध्यान के समय, उन्होंने, अपने अपमान करने वाले विपक्षी के प्रति प्रेम और क्षमा भावना से हृदय के उद्वेग को पूरा कर दिया, जिसको वर्षों से दबा कर रखा था। अन्तःकरण के अन्तःस्थल भाग से विरोधी भावना हटते ही कसी मुट्ठी बाँध कर प्रहार करने की कुचेष्टा कुछ दिनों में ही स्वयं बन्द हो गई और वर्षों से जिस रोग से वे पीड़ित थे, उससे मुक्त हो गए। यह मनोविश्लेषण की महिमा है।

प्रत्येक बेढंगे व्यवहार, गाली गलौच, कुत्सित आदतें, सनक, विशेष प्रकार की भावना ग्रन्थियों के कारण उत्पन्न होती हैं और मनुष्य इन बुरी आदतों को छोड़ना चाहते हुए भी इन से मुक्त नहीं हो पाता। कुछ बालकों में क्लिपेटोमेनिया अर्थात् छोटी-छोटी चीजें चुराने की आदत होती हैं। ऐसी आदतें बालक पर अत्याचार करने से नहीं छूटती ये तो उस व्यक्ति का मनोविश्लेषण करने तथा भावना ग्रन्थि के विपरीत सद्गुणों को प्रविष्ट कराने से छूटती हैं। इसी प्रकार डींग मारने, झूठ बोलने, बकवास करने, लड़ाई झगड़ा करने, क्रोधित होने की आदतें भावना ग्रंथियों के खोलने से दूर होती हैं। प्रत्येक बुरी आदत से सम्बद्ध ग्रन्थि को खोलना ही चिकित्सा है।

हेडफील्ड साहब का मत—

बुरी आदतों का उन्मूलन करने के लिए उससे संयुक्त विकृत संवेग का विनष्ट होना अथवा मानसिक गाँठ का खुल जाना अति आवश्यक है। इस विषय पर हेडफील्ड साहब का मत है- “मानसिक चिकित्सा में जब उसी भावना ग्रन्थि को पूर्णतः नष्ट कर दिया जाता है, तत्सम्बन्धी कुत्सित आदत भी उसी भाँति दूर हो जाती है जिस प्रकार विद्युत का आलोक बिजली के प्रवाह की धारा तोड़ देने पर समाप्त हो जाता है। यदि आदत न हटे, तो यह समझना चाहिए कि मानसिक ग्रन्थि अभी तक विद्यमान है।” हेडफील्ड साहब का मत बड़े महत्व का है। उससे विदित होता है कि मानसिक चिकित्सा में ग्रन्थि की खोज के लिए अनेक सप्ताह अथवा महीने लगे किन्तु एक बार मानसिक जड़ को खोज लेने पर उसका निराकरण होने पर बुरी आदत या रोग व्याधि समूल दूर हो जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण धार्मिक परिवर्तनों में स्पष्ट देखा जाता है। बड़ा से बड़ा पापी भी एक आकस्मिक परिवर्तन से पुण्यात्मा बन जाता है। और यकायक अपनी गर्हित आदतों को ऐसा त्याग देता है जैसे उसमें वे प्रस्तुत ही न थीं। यह नियम शारीरिक आदतों, कष्टों की अनुभूति, तथा अकारण भय आदि के लिए भी लागू होता है। सेंट पाल एवं महर्षि बाल्मीकि के उदाहरण उक्त मनोवैज्ञानिक नियम के ज्वलंत उदाहरण हैं।

व्यक्त तथा अव्यक्त का सामंजस्य—

मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का मूल अभिप्राय मन के व्यक्त (ष्टशठ्ठह्यष्द्बशह्वह्य) तथा अव्यक्त (ठ्ठष्शठ्ठह्यद्गद्बशह्वह्य) भागों में सामंजस्य (॥शह्द्वशठ्ठब्) करा देना है। इस मेल के लिए महीनों तक प्रयत्न चलता है। अन्त में रोगी की मानसिक ग्रंथि मिल जाती है और फिर उस ग्रन्थि के विपरीत प्रेम, दया, मैत्री, कृपा, की भावनाओं के अनगिनत संकेत दिये जाते हैं। “मेरा कोई शत्रु नहीं है। साँसारिक बाधाएँ, दुःख, अज्ञान, भय, जड़ता, दीनता, मुझे तंग नहीं कर सकते। मेरा मन मलीन नहीं रहता मेरे हृदय में विश्व प्रेम, मातृभाव, दैवी सम्पदा का भंडार खुल गया है। मैं आरोग्यता स्वास्थ्य, प्रेम, सुख, शान्ति की लहरें ही मित्र शत्रु सबके लिए भेजता हूँ। विश्व के समस्त प्राणी सुखी हों, अभय हों, फले, फूले। संसार में मेरा कोई द्वेषी नहीं। सब मुझसे प्रेम करते हैं।” ऐसी अनेक सुख शान्ति, मैत्री भाव की प्रेरणाएँ देकर रोगी के मन को पुनः अपनी प्राकृतिक स्थिति में कर दिया जाता है। जितने ही शुद्ध अन्तःकरण से बारम्बार संकेतों की पुनरावृत्ति की जाती है, उतना ही स्थायी लाभ होता है। शुद्ध स्वास्थ्य की भावनाएँ मन में जमने से मन भावनाओं जैसा ही रूप ग्रहण कर लेता है। वह तद्रूप बन जाता है। यह मन का कायाकल्प है।

पागलपन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा निवारण

(ले0-डाँ. विश्वमित्र जी वर्मा, मानस चिकित्सक)

पागलपन विविधि लक्षण-

पागलपन अन्य शारीरिक रोगों की तरह कोई प्रधान रोग नहीं है, इसके लक्षण अनेक हैं, कारण भी अनेक हैं तथा तज्जनित मानसिक एवं व्यवहारिक क्रियाएँ भी अनेकानेक हैं।

स्व+स्थ अर्थात् एकाग्र, आत्मनिष्ठ अपने मार्ग पर लगा हुआ मन ही दुरुस्त है किंचित भी इस अवस्था के विपरीत विचलित अथवा विकृत होते पर वह पागल, भ्रान्त कहलाने योग्य है।

पागलपन में मन की ऐसी अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति न तो पूर्णतः स्वस्थ मन वाला होता है न वह अस्त-व्यस्त ही होता है। वह दोनों अवस्थाओं के मध्य की स्थिति है। थोड़े समय के लिए त्रिशंकु की भाँति अधर में, न बाहर न भीतर, न सोवा हुआ, न जगा हुआ रहता है मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं में कोई अचानक स्फुरण अथवा विचारों में अकस्मात अज्ञात प्रेरणा होने से कुछ समय के लिए एक “अर्द्धनिद्रित जागृत” सी अवस्था होती है कि वह स्वयं कुछ विचार नहीं कर सकता परन्तु कुछ का कुछ करने लगता है और नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ अथवा क्यों कर रहा हूँ। वह अपने आपे में नहीं रहता, न उसे होश होता है, न बेहोशी। वह कुछ बतला नहीं सकता कि मुझे क्या हो गया, क्यों कर हो गया, कब हो गया?

यदि हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पागलपन, भ्रम, सनकीपन आदि अनेक प्रकार की गड़बड़ी का कारण ढूंढ़ें तो पता लगेगा कि मनुष्य के मस्तिष्क के किन्हीं केन्द्रों अथवा भिन्न-भिन्न भागों में कमजोरी आ आने से अथवा समुचित भोजन, संयम, व संसार से वीतराग होने का बनावटी अभ्यास की न्यूनाधिकता से, परिपक्वता न आने से मनुष्य के विचारों की वृत्ति बातचीत व्यवहार का ढंग, आदर्श, अपेक्षाकृत बेढंगे, अनोखे, अनुचित एवं असंगत जान पड़ते हैं। ऐसा व्यक्ति यथार्थ रीति से बातचीत या कार्य नहीं कर सकता अतः मूर्ख (या पागल) कहा जाता है। यह विकृति दो प्रकार की होती है-स्वाभाविक कमजोरी, दूसरी जान बूझ कर।

स्वभाविक अथवा जन्म से ही कमजोर दिमाग वाला व्यक्ति तो क्षीण है ही, कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं जो कुछ बातचीत तो ठीक कर लेते हैं, परन्तु पढ़ लिख नहीं सकते, याद नहीं रख सकते, हिसाब नहीं लगा सकते। कुछ इस अवस्था से ऊँचे उठ जाते हैं तो उनमें धारणा शक्ति नहीं आती, वे ज्ञान वृद्धि नहीं कर पाते अर्थ उपार्जन नहीं कर सकते, सफल नागरिक नहीं बन सकते। ये भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक न्यूनताएँ मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रिया केन्द्रों की समुचित परिपक्वता न होने के कारण होती है।

दूसरे पागल वे हैं जिनका मन पहले तो ठीक था किन्तु स्वयं अपने विचारों, अथवा अनुभव के विरोधी आघातों से क्रमशः मानसिक क्षीणता एवं वक्रता को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार मनुष्य ‘सठिया’ जाता है, वही अवस्था कुछ युवकों में मानसिक ह्रास से आती है। इस श्रेणी में कुछ विद्वान भी हैं जो युवावस्था में ही इस पागलपन का प्रदर्शन करने लगते हैं। विचारों की विकृति, भावनाओं व अनुभव तथा प्रसुप्त वासनाओं के विद्रोह से आन्तरिक संघर्ष (ष्टशठ्ठद्धद्यद्बष्ह्ल) होता है। इसकी कई श्रेणियाँ हैं- उत्तेजना, निराशा, अन्य मनस्कता, शून्य मनस्कता। ये सब पागलपन की विभिन्न अवस्थाएं हैं। रोगी स्वयं वासना की उत्तेजना का प्रतिरोध करने में, तर्क वितर्क, नीति विवेक का विचार कर स्वयं अपने आप मन को अव्यवस्थित कर देते हैं।

एक प्रकार से पागलपन वासना का संघर्ष ही कहना चाहिए। शरीर वासना का पिंड है। अनेक प्रकार की वासनाएँ अवस्थानुसार समयानुकूल पात्र और साधन मिलने पर फौरन उत्तेजित हो जाती हैं और फूट पड़ने के लिए भागना चाहती है। वासना की तीव्र उत्तेजना से मन की व्यवस्था बदल जाती है और स्थिर अवस्था में जैसे विचार थे अब भिन्न हो जाते हैं और न्याय तथा तर्क युक्त न रह कर मन अपने वासना के अनुकूल झुक जाता है। स्थिर अवस्था में मन के भाव निष्पक्ष थे परन्तु वासना की गति होने पर विचारों में वासना के प्रति पक्षपात होने लगता है। अन्य विषयों पर विचार अथवा कार्य करते हुए भी मनुष्य की भावना आकर उसी पर केन्द्रित हो जाती है। वह समझता है कि ऐसा ही ठीक है। पक्षपात भी वासना का ही एक अंग है। वासना के विरुद्ध मन में कोई विचार नहीं आता। वासना के आवरण में अनेक धोखे लगते रहते हैं। मनोवैज्ञानिक भाषा में, वासना के आवरण में अपने आपको धोखा देना है। यह धोखा दो प्रकार से होता है-धारणा तथा तर्क से। मनुष्य अपने आप कितना भी तर्क करे, वह वासना के आवरण में ही रहता है। वस्तुतः वासना की उत्तेजना तर्क-वितर्क और सिद्धान्तों की आड़ लेकर उसे प्रकट न होने देने तथा अपनी वासना तथा आदर्श चरित्र में परस्पर संघर्ष के कारण ही मन अव्यवस्थित होकर पागलपन ही भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ अपने विचित्र लक्षणों सहित प्रकट होती है।

भिन्न-भिन्न प्रकार का पागलपन एक प्रकार का आवेश होता है। मन अपनी स्वस्थ स्थिर अवस्था से भटक कर अस्थिर होकर आवेश में आ जाता है। उदासीनता अथवा अन्यमनस्कता भी पागलपन के ‘आवेश’ हैं। पागल व्यक्ति अपने अनुकूल ‘आवेश’ में ही लहराया करते हैं। वासना की उत्तेजना अथवा किसी भाव या अनुभव के प्रभाव या आघात से उसके मन को उन्माद सा हो जाता है और वह जाग्रत अवस्था में स्वप्न देखते हुए व्यवहार करता है।

प्रकृति के विरुद्ध आदर्श, सिद्धान्त, भय, लज्जा, संकोच, उच्छृंखता, उद्दंडता आदि से उत्पन्न आवेश, वासना, आचरण पागलपन के लक्षण हैं। जबरदस्ती रोका हुआ पानी का बहाव जब बाँध तोड़ कर अनियंत्रित रूप से बह निकलता है तब बड़े-बड़े उपद्रव करता है। उसी प्रकार अस्वाभाविक रूप से रोकी हुई वासनाएँ निरंकुश होकर मनुष्य को पागल बना देती हैं। आत्म संघर्ष और दमन द्वारा वासनाओं की निवृत्ति का प्रयत्न अप्राकृतिक है। शरीर के रहते शरीर की प्रवृत्ति और तन्निहित वासना नहीं छूट सकती। निरोध से सुख-बुद्धि नहीं मिटती, चाह बनी रहती है और अवसर पाकर अनियंत्रित विकृत मार्ग से फूट कर पागलपन उत्पन्न करती है।

पागलपन से मुक्ति के उपाय -

यदि मनुष्य स्थिर चित्त से अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल आवरण करता रहे, तो विरोधी भाव न उत्पन्न हों। विरोधी भाव न उत्पन्न होने से, उसमें आत्म-संघर्ष और वासना-दमन आदि प्रयत्न न होंगे, और इनसे भ्रम या पागलपन, व्यथा, या अन्य दुःखद आवेश न होंगे।

प्रकृति विरुद्ध जाने से अनेक प्रकार के विलक्षण अनुभव उत्पन्न होते हैं। अतः ऐसे पागलपन से बचने के लिए मनुष्य को अपनी प्रकृति में अपने आप में स्थिर होना चाहिए अन्यथा सारा संसार पागल है। स्थिर चित्त वाले का आचरण कैसा होता है और होना चाहिए- यह जानने के लिए आदर्शवादी, त्यागी, वैरागी, साधु, नेता या एकान्तवासी योगी बनने की आवश्यकता नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण जी तक ने मनुष्य को अपनी प्रकृति और स्थिर मार्ग से च्युत होकर एकाँगी जीवन धारण करने का उपदेश नहीं दिया। उन्होंने बताया कि मन को अपने आप में स्थिर रख कर अन्य कुछ भी विचार न करो। इन्द्रियाँ तो अपना कार्य करने के लिए हैं। ऐसा जो व्यवहार करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। समत्व योगी इन्द्रिय संयम के लिए हठ नहीं करता। इन्द्रियाँ और उसके विषय आत्मा की अपना प्रकृति हैं। अतः आत्म संघर्ष और दमन द्वारा वासनाओं की निवृत्ति का प्रयत्न अप्राकृतिक है। जो आदर्श की आड़ लेकर ऐसी अप्राकृतिक तपस्या करते हैं, वह उनका पाखंड और दम्भ है क्योंकि इस प्रकार के निरोध से सुख की तृष्णा नहीं मिटी, चाह बनी रहती है और अवसर पाकर फूट निकलती है अतः इन्द्रिय निग्रह के लिए न तो कष्ट करना चाहिए न संयम के मद में प्रकृति के विरुद्ध हो जाना चाहिए। प्रकृति के विरुद्ध आचरण नैतिक तथा शारीरिक दृष्टि दोनों से ही बुरा है।

अनेक मार्गी धाराओं के कारण उत्पन्न हुई मानसिक अवस्था के लिए जप करने का साधन विशेष लाभदायक है। किसी भी इष्ट मंत्र का जप करने से मन में स्थिरता तथा विचारों में एकाग्रता आती है। जप का साधन बिल्कुल मानसिक है। नेत्र मूँद कर जप करना चाहिए जिससे आँखें और मस्तिष्क शान्त रहते हैं और मन अन्तर्मुखी होता है। जप की अधिक संख्या अल्पकाल में पूर्ण कर लेने की जल्दबाजी अनुचित है। अतः कई बार थोड़े-थोड़े समय लगा कर थोड़ा जप करें और संख्या पर ध्यान न दें। इस प्रकार सामयिक अल्प अभ्यास से स्थिरता प्राप्त होते ही एकाग्रता का मार्ग खुल जायगा।


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