मानसिक व्याधियों के विविध उपचार

March 1946

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यदि मन समस्त व्याधियों का जन्मदाता है, तो यही मन समस्त व्याधियों को दूर कर, अक्षय आनन्द एवं शान्ति देने वाला और विदग्ध हृदय पर अमृत की वर्षा करने वाला भी है। संसार की समस्त चिंताएँ, व्याधियाँ, दुःख, क्लेश, ताप, काम, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार नष्ट कर निर्विशेष आनन्द देने वाला और सुखमय स्वर्गीय जीवन देने वाला भी हमारा यही मन है। कुटिल मनोविकारों, मनोजनित रोगों, निकृष्ट भूमिकाओं से छुटकारा दिलाने वाला भी यही हमारा मन है। मन हमारा सबसे बड़ा सहायक है, मित्र है, चिकित्सक है परमेश्वर का वरदान है।

तुम्हारे अंतर्जगत में जो संघर्ष प्रस्तुत है, सब तकलीफ, चिंता, भय, व्यथा, क्लेश, यातना, रंज, शोक, क्षोभ, जो आन्तरिक शान्ति भंग कर रहे हैं, इन सब यातनाओं का मूल कारण यह है कि तुम मन की निम्न भूमिका में निवास करते हो। मानस प्रदेश की दो भूमिकाएँ हैं- एक उच्च, द्वितीय निम्न। आत्मा के निकट मन ही सर्वोच्च भूमिका है यहाँ अप्रतिम सामर्थ्यों का अखण्ड सद्भाव रहता है। मन की निम्न भूमिका में नीच से नीच अकल्याणकारी व्याधियाँ, रोग, शोक, कुत्सित मनोविकार, उपद्रव मचाया करते हैं। ये नीच मनोविकार उच्च विचारों की अपेक्षा अधिक गुरु एवं आकर्षक होते हैं। मानस प्रदेश की नीची भूमिका, में जाना या वास करना मानो अधिकाधिक व्याधियों के चंगुल में फँसते जाना है। मन के महल की सबसे निम्न भूमि बड़ी संकीर्ण, ऊबड़-खाबड़ एवं अंधकार आवृत है। इसमें विचरण करने वाले व्यक्तियों को अनेकानेक रोग, व्याधियाँ, संकट, मानसिक कष्ट, यंत्रणाएं, अभद्र विघ्नों का शिकार बनना पड़ता है और बड़ा परेशान अस्त-व्यस्त रहना पड़ता है। मन के विकास की निम्न भूमिकाओं में यदि तुमको अमावस्या की घनघोर काल रात्रि का अंधकार देखना है तो निःशंक उस अँधेरे प्रदेश में भ्रमण करते रहो परन्तु यदि तुम्हें कुछ भी स्वास्थ्य, सुख, शान्ति, आनन्द प्राप्त करने की इच्छा है तो किसी प्रकार उस भूमिका से उठ कर उच्च भूमिका की ओर उठने का प्रयत्न करो।

शंका, संदेह, ईर्ष्या, उत्साह-हीनता, निराशा इत्यादि मन की विभिन्न कुत्सित अवस्थाएँ हैं। परमेश्वर मानव शिशु के अन्तःकरण में इनका बीजारोपण नहीं करता प्रत्युत अपने कुकर्मों प्रतिकूलताओं, बड़ों के असत् व्यवहारों द्वारा ही हम इन विकारों को विकसित करते हैं। जो व्यक्ति किसी अज्ञात भय से थर-थर काँपता है, उसने जिस कायरता का विकास किया है, वह उसकी स्वयं की उत्पन्न की हुई अनिष्ट मनः स्थिति है।

हमारे भीतर एक अंतर्मन है, अचेतन मन है, हमारा अन्तर्ज्ञान इसी अचेतन मन द्वारा प्रकट होता है। इसी अंतर्मन में वे गुप्त सामर्थ्य भरे पड़े हैं जिनसे मानव का रक्षण अथवा भक्षण होता है। यदि हम प्रयत्न करें, तो इस अंतर्मन में से शंख घोंघे, पत्थरों के स्थान पर, यहीं से, बहुमूल्य मुक्ता मणि एकत्रित कर सकते हैं। अंतर्मन का जाग्रत सामर्थ्य हमारी संरक्षक सत्ता है। मानसिक व्याधियों के निराकरण की अद्भुत शक्ति, जीवन की विकट घटनाओं एवं प्रसंगों की रक्षा करने में अंतर्मन पूर्ण समर्थ है। मानसिक प्रक्रियाओं से जागृत की हुई अन्तःस्थित संरक्षक सत्ता हमारा कवच है, अमृत है। मानस चिकित्सक का कार्य मनुष्य के अंतर्मन में प्रस्तुत किन्तु सुषुप्त संरक्षक-सत्ता को जागरुक बनाना है। रोगी के मन का सामर्थ्य ही उसके लिए आरोग्य रूपी फल का देने वाला होता है। अनेक उपचारक दवाई, काढ़े, भस्म इत्यादि देकर रोग ठीक करते हैं किन्तु मानस-चिकित्सक मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा ऐसे शब्दों का उच्चारण करता है कि उनके श्रवण से रोगी के मन पर प्रभाव पड़ता है और उसी के फलस्वरूप अंतर्मन की संरक्षक सत्ता जागृत होती है। यही सत्ता रोग विनाशनी, परम कल्याणकारी औषधि है। अंतर्मन की आन्तरिक सामर्थ्य बढ़ाने से मानसिक बल प्राप्त होता है। इस सामर्थ्य द्वारा मनुष्य सुख सम्पत्ति, यश कीर्ति आदि सब कुछ प्राप्त कर सकता है। इस सामर्थ्य की सत्ता मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर पर ही नहीं, प्रत्युत परमात्मा ने मनुष्य को सुखी रखने के लिए इसकी सृष्टि अन्तःकरण में की है। इसमें महान उत्पादक बल निहित है।

निश्चय बल बढ़ाने से मानसिक सामर्थ्य की तृप्ति होती है। यही कार्य मानसोपचार कर को प्रारम्भ करना चाहिए। पूर्ण उत्साह एवं अदम्य आग्रह से निश्चयों को दृढ़ करो। अपने अन्तःकरण में मानसिक सामर्थ्यों का पूर्ण विकास करने का दृढ़ संकल्प करो।

“चाहे कैसे भी कठिन विघ्न मानसिक उन्नति में उपस्थित हों, मैं अपने आन्तरिक गुप्त सामर्थ्य को प्रकट करूंगा। मुझ में इच्छानुकूल संकल्प बल बढ़ाने का पूर्ण सामर्थ्य है। रोग, शोक, व्याधि का शमन करने का, गुप्त बल बढ़ाने का मैं पूर्ण दृढ़ संकल्प करता हूँ।” -इन निश्चयात्मक भावनाओं में निरन्तर रमण करो, इन्हें पान कर जाओ और संकल्पों, अपने शुभ निश्चयों को मज़बूत करो।

मस्तिष्क की शक्ति का विकास-

समस्त मानसिक सामर्थ्यों का मुख्य साधन मस्तिष्क है। मन और मस्तिष्क का घनिष्ठ सम्बन्ध है। रोग, शोक व्याधि, निराशा निर्बल मस्तिष्क के फल हैं। मस्तिष्क के सूक्ष्म अणुओं में कल्पनातीत बल वर्तमान है।

श्री दुर्गाशंकर जी नागर ने मानसिक सामर्थ्यों की अभिवृद्धि के निमित्त चार तत्त्वों की आवश्यकता बताई है- 1- उत्तम मस्तिष्क। 2- मन की शुद्धि और पोषण के लिए शक्ति संचय। 3- मनन शक्ति का उपयोग। मस्तिष्क को उन्नत करने के लिए उसके सूक्ष्म अणुओं की संख्या में अभिवृद्धि करना आवश्यक है। मस्तिष्क के किसी भाग में रक्त की गति तीव्रता से संचार करने से वह भाग परिपुष्ट होता है, उसकी शक्ति विकसित होती है किन्तु दुष्ट मनोविकारों अभद्र शंकाओं एवं निराशा के वशीभूत होकर उन ज्ञान-तन्तुओं की स्वाभाविक शक्ति के विकास का मार्ग बन्द हो जाता है। घृणा, द्वेष, क्रोध चिड़चिड़ाहट, कुढ़ने से मस्तिष्क के महाशक्तिशाली अणु संकुचित होकर क्षीण हो जाते हैं। अनेक सूक्ष्म अणु बिल्कुल विनष्ट होकर गायब हो जाते हैं। अतः इनके प्रभाव से मस्तिष्क में नाना प्रकार के विकार प्रारम्भ होते हैं और अनेक व्याधियाँ प्रकट होती हैं। दुराचार व दुष्ट व्यसन से अधिक बल क्षीण होता है और मनुष्य रोग ग्रस्त बनता है।

विकसित करने के नियम तथा विधि-

डॉक्टर नागर जी ने बड़ी खोज के पश्चात् मस्तिष्क के गुप्त सामर्थ्यों को विकसित करने के लिए निम्न नियम निर्धारित किए हैं-

जब जब निराशा, उत्तेजना, भय, क्रोध, उद्वेग या अन्य विकार प्रकट होकर, तुम्हें अस्त व्यस्त करें, उसी समय जिन अंग का सामर्थ्य उच्च व विशुद्ध हो रहा है और दृढ़ संकल्प करो कि अब अनिष्टकारी वृत्ति का मन पर अधिकार न होगा। अन्तर में गहरे उतर कर तीव्र इच्छा करो कि पूर्ण शरीर विशुद्ध हो रहा है। अधम विकार का आवेग अन्तःकरण में नहीं उठ सकता। रात्रि में सोते समय यही भावना मन में आरुढ़ करके सो जाओ कि सम्पूर्ण शरीर विशुद्ध हो रहा है और समस्त शक्तियाँ अन्तर प्रदेश में आकर्षित होकर एकत्रित हो रही हैं।

मस्तिष्क का मध्यबिन्दु दोनों कानों के बीच के मध्य भाग का स्थान है। इस स्थान पर कम से कम दस मिनट अंतर्दृष्टि स्थिर करनी चाहिए व साथ-साथ यह भी दृढ़ चिन्तन करना चाहिए कि अणुओं की तेजी से वृद्धि हो रही है एवं समस्त शरीर के अणु रोग विहीन होकर परम विशुद्ध हो रहे हैं। हम व्यर्थ उत्तेजित करने वाली वृत्ति के कभी वशीभूत न होंगे। हम ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध पर पूर्ण संयम करेंगे। हमारे मस्तिष्क का निर्माण विशुद्ध रीति से हो रहा है। एकाग्रता के समय मन को अत्यन्त शान्त एवं समाधान की स्थिति में रखो और संकल्प युक्त करो। एकाग्रता के समय मन में पूर्ण श्रद्धा रखो। अभ्यास के समय जितनी श्रद्धा रखोगे, उतना ही उत्तम फल व परिणाम होगा श्रद्धा सामर्थ्य को जाग्रत करती है। एकाग्रता के समय शुभ संकेत (स्ह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठह्य) करना आवश्यक है। “रोगों से मुक्त करने वाला सामर्थ्य बढ़ रहा है” -इस भावना पर दृढ़ रखने से मस्तिष्क में एक सूक्ष्म प्रकाश उदित होता है। यही अन्तिम स्थिति है।

नवीन अंतर्मन का निर्माण—

मन में जो विचार या भावनाएँ दृढ़ता से चलते हैं उसी भावना या विचारों के अनुसार मस्तिष्क के नवीन अणुओं की रचना होती है। प्रत्येक नवीन विचार एक मानसिक मार्ग बनाता है। बारम्बार उसी विचार की पुनरावृत्ति उस मानसिक पथ को और भी चौड़ा बनाते हैं। दृढ़ चिंतन से नवीन अंतर्मन के जगत की सृष्टि होती है।

रोगी मनुष्य में रोग, व्याधि एवं निरुपयोगी स्थूल विचारों से जकड़े रहने की आदत पड़ गई है। वे नाना प्रकार की दुश्चिन्ताओं में बरबस अपने मन को लगाये रहते हैं, अन्तःकरण को शान्त अवस्था में नहीं आने देते। उसे निम्न स्थिति से उठने नहीं देते। मनुष्य की समस्त व्याधियाँ अन्तः करण की नीच स्थिति के कारण हैं। रोगी व्यक्ति यदि अपनी तुच्छ, अधम, क्षुद्र स्थिति का बदल कर उच्च स्थिति में प्रवेश करे, तो वह अपने रोग-निवारक आन्तरिक सामर्थ्य को जाग्रत कर सकता है।

दुःख से, व्याधि से, समस्त मानसिक कष्टों से मुक्ति का केवल एक उपाय है-अपने अन्तःकरण की स्थिति को उच्च बनाओ शुभ विचार, सद्संकल्प, शुभ कल्पना, जीवन के आनन्दमय पहलू पर स्थित हो जाओ। अपने अन्तर में उतरो और निर्विकार, निरोग, अक्षय, अमर आत्मा के मंगलमय दर्शन करो और दुःख की दूषित कल्पना को भस्मीभूत कर दो। रोग के प्रति अभिमुखता, व्याधि का चिंतन हमें बीमार बनाती है, उसकी विस्मृति एवं अपने अद्भुत सामर्थ्यों की कल्पना, चिंतन विश्वास रोग का नाश करती है। अपने अन्तःकरण की निर्विकारता, शुद्धता, उत्कृष्टता में श्रद्धा उत्पन्न करो और दूषित संस्कारों को बाहर फेंक दो। अपने आपको पवित्रता का केन्द्र बनाये रहो। दृढ़ता से कहो- “मलीन दुश्चिन्ताओं! तुम्हारे लिए मेरे मन मन्दिर में कोई स्थान नहीं है, तुम कैसे प्रविष्ट हो सकते हो, मैं अपनी शुद्धता एवं पवित्रता से तुम्हें क्षण भर में क्षार-क्षार कर दूँगा।”

स्वयं रोगी के मन की अर्द्ध चैतन्य, चैतन्य एवं अति चैतन्य शक्तियाँ ही गलत मार्ग पर चल कर व्याधि उत्पन्न करती हैं, उन्हें इच्छाओं, भावनाओं, संकेतों को स्वास्थ्य एवं दीर्घायु के सही रास्ते पर चलाने से वे ही आवश्यक परिवर्तन कर रोग निवारण कर देती हैं। शरीर के विभिन्न अवयव मन के कल-पुर्जे हैं। मन ही एक स्वसत्तात्मक तत्व है जो उन अदृश्य शक्तियों और विचार लहरों (ञ्जद्धशह्वद्दद्धह्ल ष्ह्वह्ह्द्गठ्ठह्ल) को संचालित करता है जिससे प्रायः समस्त मानसिक व्याधियाँ विनष्ट हो जाती हैं। आज के मनोविज्ञान शास्त्री एवं मानसोपचारक मेस्मर, जेने, फ्रायड, एडलट एवं जुँग इत्यादि की सम्मति में मानसिक व्याधियों का उपचार केवल रोगी को अपने भौतिक अस्तित्व का विस्मरण कराकर प्रेरणाओं द्वारा उच्च मानसिक और आध्यात्मिक तल पर ला खड़ा करना है। वे कहते हैं कि रोगी, चिंतन एवं मानसिक संतुलन के सच्चे रूप से अनभिज्ञ हैं, उसका मन एक ऐसा ड्राइवर है जिसे शरीर रूपी मशीन के सूक्ष्म पुर्जों का ठीक ज्ञान नहीं। मानसिक उपचारक रोगी को मानसिक संचालन का यथार्थ मार्ग सिखाता है।

मानसोपचारक रोगी के मन में यह बात अच्छी तरह बैठा देता है कि वह निर्विकार विशुद्ध आत्मा है। रोग, ईर्ष्या, व्याधि से उसका कोई सम्बन्ध नहीं, रोग स्वयं कोई भावात्मक सत्ता नहीं है। वह मन के कल पुर्जों को ठीक तरह न चलाने के कारण उत्पन्न हुआ मल है। रोग का कारण अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञता है। वह हमारे मानसिक एवं आध्यात्मिक धरातल पर जो कुछ हो रहा है, उसका प्रभाव मात्र है। यह गड़बड़, यह मलीनता अन्तःकरण में आ जमी है। पवित्र विचार पवित्र वाणी तथा पवित्रा चरण से इसे धोया जा सकता है। संक्षेप में मानसोपचारक अन्तःकरण का अज्ञान दूर करके रोगी के मन में यह विचार दृढ़ कर देता है कि वह अनन्त शक्तियों का भंडार है, उसे कोई भी रोग क्यों न हो, वह अवश्य नीरोग होने जा रहा है क्योंकि प्रकृतितः रोग-निवारक शक्ति उसमें प्रकट हो रही है। अपनी समस्त मानसिक शक्तियों को उसे इस तथ्य पर एकाग्र करने का संकेत दिया जाता है कि- “वह अच्छा हो रहा है, क्रमशः स्वास्थ्य और शक्ति खींच रहा है, शान्ति उसके अन्तर में प्रवेश कर रही है समस्त अन्तःकरण पवित्र, न्याययुक्त, और शुद्ध बन रहा है। उसका चित्त उद्वेग रहित, शुद्ध, एवं स्वच्छ है। उसके हृदय के भीतर ऐक्य और शान्ति विद्यमान है, उसे नित्य नवीन और विशुद्ध अन्तःकरण की प्राप्ति हो रही है। उसके अन्तरंग में शान्ति है। वह समस्त अवस्थाओं में परम शान्त है।”

जिस क्षण रोगी का विश्वास अन्तरात्मा की कष्ट निवारक शक्ति में जम जाता है, उसी क्षण से वह रोग व्याधि मुक्त होने लगता है। जितना ही वह हृदय के गुप्त भंडार को जागृत, उत्तेजित करता है, उतना ही सामर्थ्यवान बनता जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति की गुप्त शक्ति का भंडार आत्मश्रद्धा है। रोगी की आत्मश्रद्धा जाग्रत होकर उसे यह भान कराती है, पूर्ण विश्वास दिला देती है कि- “तुम चेतन महोदधि में रमण करने वाली महान निर्विकार आत्मा हो। अभयादि चेतन तत्व तुम्हारे अन्दर, बाहर भीतर-सर्वत्र भरापूरा है। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप स्वयं नीरोग के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। तुम्हें केवल अन्तःस्थित परम आरोग्य का अनुभव करना है जितना ही तुम आरोग्य-विश्वास प्राप्त करोगे, उतना ही वह तुम्हारे बाह्य रूप पर, शरीर पर, अंग-प्रत्यंगों पर प्रत्यक्ष हो जायगा। तुम अनुभव करोगे कि तुम नीरोग हो, सर्वथा रोग मुक्त हो, स्वास्थ्य और पूर्ण बलिष्ठ हो। तुम पूर्ण स्वास्थ्य, शक्ति, बल, वीर्य के भंडार हो।”

आध्यात्म चिंतन से रोग-मुक्ति -

अशुभ विचारों से कैसे व्याधि मय फल होते हैं, यह रोगी नहीं जानते। वस्तुतः वे मन के विषय में बिल्कुल निश्चिन्त रहते हैं और भाँति-भाँति के दूषित विचार-कीटाणुओं की ओर किंचित भी दृष्टिपात नहीं करते। विचार कीटाणु अशुभ विचारों के परिणाम हैं-ऐसा समझते हुए भी रोगी उस ओर प्रयत्नशील नहीं होता। दूषित विचारों को वार्हिगत नहीं करता। फिर व्याधि कैसे जाय?

स्मरण रखिए, नेत्र में पड़ी हुई मिट्टी न निकालने से केवल नेत्र ही क्षीण होते हैं किन्तु मन का मैल न निकालने से आजन्म असाध्य रोगों का शिकार बनना पड़ता है। जीवित ही मुर्दे की भाँति काल यापन करना पड़ता है। वस्तुतः विचार-प्रक्षालन में सुस्ती करना स्वयं अपनी मृत्यु को पुकारना है। यमदूतों को आमंत्रित करना है।

व्याधियों का प्रधान कारण दूषित विचार ही हैं। तुम चाहे कुछ भी दिखाई देते हो, चाहे जैसी मानसिक वेदना से पीड़ित हो, क्लान्त हो और शारीरिक एवं व्यवहारिक आदि कारण कोई भी न दिखाई देता हो, डॉक्टर नब्ज़, मुँह, ताप देख कर कह दे कि आप ठीक हैं किन्तु इन सबका मूल कारण आन्तरिक कष्ट रह सकता है। इससे मुक्ति पाने के हेतु निश्चय पूर्वक उपाय करना चाहते हो, तो अयोग्य अभद्र, दूषित विचार करना छोड़ कर, शुभ विचार करना अविलम्ब आरम्भ कर दो।

जहाँ सब प्रकार के सन्देहों, भ्रमों, शंकाओं का अभाव है, उसी स्वच्छ प्रदेश में प्रवेश करो। ऐसा प्रदेश हमारी अन्तरात्मा है। वहाँ प्रवेश करने पर भ्रान्ति रहित वास्तविक सत्य स्वरूप आत्मा का अनुभव होता है। रोग व्याधि मूलतः नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य को अपने निर्विकार स्वरूप का बोध होता है। आत्मा के शुद्ध विचार में निमग्न रहना, परमात्मा का ध्यान, चिन्तन, मानस पूजा करना इस प्रदेश में पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है। अपने मन में, दूसरों में भी अशुभ न देखना प्रत्युत अन्तर बाह्य सुख, शान्ति, ऐश्वर्य, और सब प्रकार की आरोग्य पूर्ण स्वास्थ्य का ही दर्शन करना भ्रान्ति के विक्षेप से मुक्ति पाने तथा शीलता प्रकट करने वाली समाधान वृत्ति का उदय करने का साधन है। यह वृत्ति एकाग्रता पर अवलम्बित है। एकाग्रता की वृद्धि से मन और बुद्धि आत्मस्वरूप में लीन हो जाते हैं।

प्रिय पाठ्य, दुःख का चिन्तन छोड़ो, आज से सत्य, शुभ, सुख, स्वास्थ्य का ही चिंतन करो। दूसरों के साथ वाणी या मन से भी अशुभ बात न करो, या दूसरों की अशुभ की बात न सुनो। केवल भलाई, सब की भलाई, स्वास्थ्य, दीर्घायु का विचार, सब से आत्मभाव का दर्शन, उत्तमता का दर्शन ही तत्व चिंतन है। तत्व चिंतन से मनुष्य समस्त दुःख एवं क्लेशों से मुक्त हो जाता है। तत्व चिंतन एकाग्रता से होता है। यों ही निर्द्वन्द्व मन लेकर माला फेरने से कुछ न होगा। जागृत अवस्था में प्रत्येक व्यवहार करते समय, मन के प्रत्येक विचार, वाणी के प्रत्येक व्यापार, शरीर की प्रत्येक क्रिया को तत्व मय कर देने का प्रतीक ही आध्यात्म चिंतन है।

परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है। मेरे अणु-अणु में उदित हो रहा है। मुझ में अमित बल स्वास्थ्य का संचार कर रहा है। मैं उसी आत्म-तत्व में रमण करता हूँ-केवल यही विचार स्वर्णाक्षरों में स्मृति पटल पर लिख कर यदि मन के सन्मुख रखा जावे, और उसे पुनः-पुनः देखा जावे, तो आधि-व्याधि विनाशक तत्व की वृद्धि होती है। आत्मा के साथ हमारा अभेद सम्बन्ध है। जो कुछ है, सब परमात्मा का है। जो परमात्मा का है, वह सब हमारा ही है। उस दैवी तत्व से हमारी एकता है। हमारे अभेद सम्बन्ध को अज्ञान के कारण हमने मर्यादित कर दिया है। उसे विशृंखल कर स्वास्थ्य, बल, प्रेम, शान्ति आदि हम प्राप्त कर सकते हैं।

मर्यादा के कारण ही मनुष्य को कहना पड़ता है कि- “हे प्रभु हमारा दुःख मिटा दो। रोग से निवारण कर दो” इत्यादि। यह व्यर्थ की मर्यादा तोड़ डालने पर आरोग्य, सुख, शान्ति एवं स्वास्थ्य स्वभावतः ही ईश्वर हम को प्रदान करेगा। उसके निमित्त दीन बन कर प्रार्थना नहीं करनी पड़ेगी। परमेश्वर हमको सुख नहीं प्रदान करना चाहता- यह मान लेना भारी भूल है। ईश्वर तो परम कृपालु है, निरन्तर प्रेमस्वरूप है। उनमें निरन्तर सर्व कल्याण का अटूट भंडार है किन्तु खेद, महा खेद। हम स्वयं ही सुख लेने को तत्पर नहीं हैं। अमर्यादा परमात्मा में एक होकर हम सर्वत्र सुख नहीं देखते, स्वास्थ्य का दृढ़ चिंतन नहीं करते। अतः सर्वव्यापी ईश्वर हमें व्याधि देते हैं।

हमें चाहिए कि हम उस निर्विकार दैवी सत्ता से अधिकाधिक सम्बन्ध जोड़ें। उसके समीप जाने का प्रयत्न करें। जो परमात्मा की ओर शीघ्रता से दौड़ता हुआ जाता है, सुख, स्वास्थ्य, शक्ति, उसकी ओर भागे चले आते हैं।


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