बसंत

March 1946

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(लेखक-श्री आरसी प्रसाद सिंह जी)

मैंने बसन्त के पुष्पों से पूछा-”तुम कितने हो सुँदर?”

वे बोले- “हाँ, तुमने पाया है विधि से सुन्दरता का वर!

हम उपवन में खिलते प्रतिदिन, प्रतिक्षण हँसते ही रहते हैं,

हम झड़ जाते, मुरझा जाते, पर यह न किसी से कहते हैं!”

मैंने बसन्त के तरुओं से पूछा-”तुम कितने हो शीतल?”

वे बोले -”हाँ, इसमें आये हैं नूतन वे पल्लव कोमल!

रस मिट्टी का लेकर, देते हम फूल और फल मधुर पके,

यह सघन हमारी छाया है, रुक जाते राही जहाँ थके!”

मैंने बसन्त की लतिका से पूछा- “तुम कितनी हो कोमल?”

वह बोली- “हाँ, बढ़ती जाती मैं अपने पथ पर हूँ प्रतिपल!

संबल का ज्ञान नहीं मुझको, निज दुर्बलता का ध्यान नहीं!

मैंने सीखा है झुकना बस, मुझमें छवि का अभिमान नहीं!”

मैंने बसन्त मलयानिल से पूछा- “तुम कितने हो निर्मल?”

वह बोला- “मैं वितरण करता अग-जग में कुसुमों का परिमल!

मैं कुञ्ज-कुञ्ज का सौरभ ले, घर-घर में सबको दे आता,

सुख-सुषमा-शीतलता देकर, जग की दुख-ज्वाला ले आता!”

मैंने बसंत के विहँगों से पूछा- “तुम कितने हो चंचल?”

वे बोले-”हम गाते रहते आनन्द-गीत प्रतिक्षण प्रतिपल!

वन-उपवन में भरते रहते अपना कल-गान, विकल कूजन,

हममें नवजीवन का स्वर है, हममें है भरा नवल यौवन!

जिनमें जीवन है, यौवन है, वे मस्ती से इठलाते ही,

चाँदनी उतरती भूतल पर मधुकर-गण वन में गाते ही!

कह लेते ही मन की बातें, अपना संसार बसाते ही,

बल्लरियाँ चढ़ जाती ऊपर, तरु का अवलंबन पाते ही!

फूलों की दुनिया भी पल-भर, मधु ऋतु का वैभव भी नश्वर,

फिर भी न जगत में जीवन का, मधु का प्रवाह रुकता क्षण-भर!

मैंने उसे दुनिया को देखा, वन-वन में छाया था बसन्त,

फिर एक बार भू को देखा, ‘हा-हा’-रब मुखरित था दिगंत!

-किशोर।

*समाप्त*


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