मानव-जीवन

July 1944

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(रचयिता-श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी; टेढ़ा-उन्नाव)

दिन होली, रात दीवाली हो!

जीवन-पथ के शीतलच्छाय तरुओं का करता उन्मूलन,

अपने ही हाथों से तूने बोए हैं काँटों के ये बन,

अपनी आँखों से उठा अरे! अब अहंकार का अवगुण्ठन;

जड़ मानव! तेरे जीवन की मधुभरी छलकती प्याली हो!

दिन होली, रात दीवाली हो!

यह विश्व बने मधुबन तेरा बन घन जा तू इसका बनमाली,

कर सेचन प्रेम-सुधा से तू, छा जाए सुन्दर हरियाली,

तब मनोदेश से हट जाए छलना की घोर घटा काली;

हँसती, झुकती उल्लासभरी तरु-तरु की डाली-डाली हो!

दिन होली, रात दीवाली हो।

अंगार धधकते तब उरके सौरभमय सुमन-समान बनें,

आँखों से आँसू अधरों पर अब मन्द-मन्द मुसकान बनें,

वेदना भरे ये तेरे स्वर कोयल के मधुमय गान बनें;

तम के अंचल में मुसकाती सुन्दरी उषा की लाली हो!

दिन होली, रात दीवाली हो!


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