व्याध को शाप

July 1944

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विपत्ति मनुष्य पर आया ही करती है। परमात्मा ने इसे मनुष्य की वीरता की परीक्षा लेने के लिये उत्पन्न किया है। लड़ाई झगड़े में आवेश के वशीभूत होकर बहुत से योद्धा कट मरते हैं पर पीछे नहीं हटते किन्तु वीरता की सच्ची परीक्षा आपत्ति के समय होती है, जब कि उसे अकेले ही युद्ध करना पड़ता है और कोई संगी साथी नज़र नहीं आता। राजा नल जुए में हार कर वनवास कर रहे थे तो आपत्तियों के पहाड़ उनके सामने आने लगे, आज एक कष्ट था तो कल दूसरा। योद्धा नल इस परीक्षा में सफल न हो सके, कष्ट और कठिनाइयों से भयभीत हुई बुद्धि किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई। रानी दमयन्ती को अकेली सोती हुई छोड़कर नल रात्रि के निविड़ अन्धकार में कहीं अन्यत्र दूर देश को चले गये।

प्रातःकाल दमयन्ती सोकर उठी तो उन्होंने उस भयानक जंगल में अपने को बिलकुल अकेला पाया। आगे का मार्ग वे जानती न थीं, भोजन व्यवस्था का, आत्म रक्षा का भी कुछ प्रबंध उनके पास न था। पुष्पों के पालने में पली हुई और राज महलों में हाथों पर रहने वाली राजकुमारी के लिए यह दशा बड़ी ही दुखदायक थी। ऐसी विचित्र स्थिति में अपने को पाकर रानी की आँखों में आँसू बरसने लगे। वे ईश्वर से प्रार्थना करने लगीं कि हे नाथ! मेरी रक्षा करो। सच्ची प्रार्थना कहीं ठुकराई थोड़ी ही जाती है। उसके हृदय में दैवी किरण प्रस्फुटित हुई, साहस की एक ज्योति चमकी, उसी के प्रकाश में इस कठिन वन में से बाहर निकलने का रानी ने प्रयत्न आरम्भ कर दिया।

घासपात खाती हुई, नदी नालों में तृषा शान्त करती हुई, वृक्षों के नीचे रात्रियाँ व्यतीत करती हुई रानी दमयन्ती उस वन को पार करने के लिये यात्रा करती जाती थी। एक दिन एक बड़ा भारी अजगर रास्ते में दिखाई पड़ा। यह सर्प इतना विशाल, विकराल और विषधर था कि रानी को सहज में निगल सकता था। यह भूखा अजगर रानी को देखते ही शिकार प्राप्ति की प्रसन्नता में जीभ से होंठ चाटता हुआ दमयंती की ओर लपका। रानी का धैर्य टूटने लगा वह एक करुणा भरी चीख से भगवान को पुकारती हुई चिल्लाई।

एक व्याध शिकार खेलने के लिये उसी वन में आया हुआ था। चीख सुनकर वह लाभ की आशा से उसी ओर दौड़ा। देखते ही उसके बाछें खिल गई। एक तीर में दो शिकार थे। अजगर का बढ़िया चमड़ा, उसकी मस्तक मणि तथा सुन्दर स्त्री। वधिक को अधिक सोच विचार करने की जरूरत न थी। उसका हाथ सीधा तरकस पर गया। दूसरे क्षण एक सनसनाता हुआ तीर अजगर की गरदन में जा घुसा। मृत्यु निश्चित थी, सर्प को कुछ ही क्षण में प्राण त्याग देने के लिये बाध्य होना पड़ा।

रानी ने एक ठण्डी साँस ली, उसने अनुभव किया कि ईश्वर ने उसे बचा दिया। व्याध वृक्षावलियों को चीरता हुआ शिकार के पास आया, सर्प मरा हुआ पड़ा था। चमड़ा और मणि के लिये उसे निश्चिन्तता थी, उसे कुछ क्षण बाद निकाल लिया जाएगा, अभी तो उसे उस सुरसुन्दरी को अपनाना था। वह धीरे धीरे रानी के पास पहुँचा और कपटमयी मधुर वाणी में रानी को तरह तरह से ललचाने फुसलाने लगा। उसके वार्तालाप का साराँश क्या है यह समझने में रानी को देर न लगी। उन्हें प्रतीत हो गया कि व्याध सतीत्व का अपहरण करना चाहता है।

धर्म की सगी पुत्रियाँ, इस भूतल पर अग्नि की पवित्रता का साक्षात प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतिमाएं महिलाएं ही हैं। यह नारकीय विश्व सती साध्वी देवियों के ही पुण्य प्रताप से ठहरा हुआ है अन्यथा माता वसुन्धरा इतने भार से व्याकुल होकर कब की रसातल चली गई होती। दमयंती जैसी सती पर वधिक की बातों का क्या प्रभाव हो सकता था? उसने कहा-”पुत्र! तू कैसे अनर्थकारक वचन बोलता है, ऐसा कहना तेरे योग्य नहीं। धर्म को समझ, अधर्म में बुद्धि मत डाल।”

व्याध रानी के निर्भीक वचनों से सहम तो गया किन्तु उसकी पुरानी क्रूर भावना दबी न। जिसने निरंतर अपनी बुद्धि को दुष्कर्मों में लिप्त रखा है वह अपनी विवेक बुद्धि को खोकर निर्लज्जतापूर्वक कर्म कुकर्म करने पर उतारू हो जाता है। व्याध बलपूर्वक रानी का सतीत्व हरण करने के लिये तत्पर हो गया।

स्थिति बड़ी पेचीदा थी। परन्तु धर्म तो अमूल्य वस्तु है, वह तो प्राण देकर भी रक्षा करने योग्य है, रानी इस मर्म को समझती थी। वह अकेली थी तो भी सत्य उसके साथ था, सत्य का बल दस सहस्र हाथियों के बराबर होता है, उसका मुकाबला करने की शक्ति बड़े से बड़े अत्याचारी में नहीं होती। रानी का धर्म तेज उबल पड़ा। वधिक जब आक्रमण करने पर तुल ही गया तो रानी ने अपनी सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक शक्ति के साथ उससे युद्ध किया और सत्य की दैवी सत्ता के कारण उसे मार गिराया। व्याध अपने कुकर्म का फल पाने के लिये सर्प की तरह भूमि पर लोटने लगा।

महाभारत साक्षी है कि दमयंती के श्राप से व्याध मुँह कुचले हुए सर्प की गति को प्राप्त हुआ। आज भी धर्म की साक्षात् प्रतिमाएं-बहिनें और पुत्रियाँ-अपने आत्म तेज के साथ गुण्डों और कुकर्मियों का साहस पूर्वक मुकाबला करें तो उन दुष्टों को भी सर्प गति ही प्राप्त करनी पड़ेगी चाहे वे देखने में आसुरी बल से कितने ही बलवान् प्रतीत क्यों न होते हों।


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