(तुलसी कृत रामायण से)
दो.- लछमन देखहुँ मोरगन, नाचत वारिद पेख।
ग्रही विरति रत हरष जस, विष्णु भगत कहँ देख॥
घन घमण्ड गरजत चहुँ ओरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रही घन माहीं।
खल की प्रीत यथा थिर नाहीं॥
बरसहिं जलद भूमि नियराये।
यथा नवहिं बुध विद्या पाये॥
बून्द अघात सहैं गिरि कैसे।
खल के वचन संत सहँ जैसे॥
छुद्र नदी भरि चलि उतराई।
जस थोरे धन खल बौराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जिमि जीवहि माया लपटानी॥
सिमिटि सिमिटि जल भरैं तलावा।
जिमि सद्गुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जल निधि में जाई।
होहि अचल जिमि जिव हरि पाई॥
दो.- हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड प्रवाद ते, लुप्त होंइ सद्ग्रन्थ॥
दादुर धुनि चहुँ दिशा सुहाई।
वेद पढ़हिं जनु वटु समुदाई॥
नव पल्लव भये विटप अनेका।
साधक मन जस मिले विवेका॥
अर्क जवास पात विनु भयउ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहु मिलहिं नहिं धूरी।
करइ क्रोध जिमि धर्महि दूरी॥
ससि सम्पन्न सोह महि कैसी।
उपकारी की संपति जैसी॥
दो.- कबहुँ दिवस महँ निविड़तम, कबहुँक प्रकट पतंग।
विनसइ उपजइ ज्ञान जिमि, पाई कुसंग सुसंग॥