परमात्मा की श्रेष्ठ साधना

July 1944

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(पं. नन्दकिशोरजी उपाध्याय, खँडवा)

जब हम साँस लेते हैं तो वायु को ग्रहण करने और छोड़ने के साथ साथ “सोऽहम्” शब्द होता है। यह शब्द सोते जागते हर घड़ी होता रहता है। ध्यान देने पर हमारी सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय इसे आसानी से सुन सकती है। यह ईश्वरीय वाणी है। अन्तः करण में बैठा हुआ परमात्मा हर घड़ी हमें यह उपदेश दिया करता है कि इस शरीर के अन्तराल में बैठा हुआ जो आत्मा है-”वह मैं हूँ” सोऽहम्।

जब हम कोई बुरा कार्य करने को तैयार होते हैं तो उसके विरोध में अन्दर से एक आवाज आती है कि यह कार्य उचित है या अनुचित, इसे करना चाहिये या न करना चाहिये। यदि वह कार्य अच्छा होता है तो ईश्वर हमें प्रसन्नता, प्रोत्साहन और साहस प्रदान करते हुए अपनी स्वीकृति प्रदान करता है। यदि वह कार्य बुरा होता है तो भय, आशंका, धड़कन, झिझक, लज्जा आदि के साथ परमात्मा उस काम को करने से रोकता है।

ईश्वर को ढूँढ़ने के लिये दूर जाने की जरूरत नहीं है। सबसे निकट स्थान जहाँ ईश्वर का अत्यन्त स्पष्ट दर्शन हो सकता है-अपना हृदय है हृदय को टटोलते ही परमेश्वर की झाँकी मिलती है। ईश्वर को प्रसन्न करने का एक ही मार्ग है वह यह कि उसके आदेशों का पालन करते हुए अपने आचार और विचारों को पवित्र बनाया जाए। उलझन भरे साम्प्रदायिक कर्मकाण्डों के चक्कर में फँसने की अपेक्षा आत्म निरीक्षण करना और सच्चरित्र बनना परमात्मा को प्राप्त करने की श्रेष्ठ साधना है।


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