पत्नी गुरु बनी

September 1996

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द्वार के सामने निकलती पशुओं की कतार को देखकर वह चिल्लाया - उट् उट्। भीतर से पति की वाणी सुनकर गृहिणी निकली। उसके कानों में ये शब्द बरबस प्रवेश पा गए। व्याकरण की महापण्डिता, दर्शन की मर्मज्ञा नागरी और देवभाषा की यह विचित्र खिचड़ी देखकर सन्न रह गयी। आज विवाह हुए आठवाँ दिन था। यद्यपि इस एक सप्ताह में बहुत कुछ उजागर हो चुका था मालुम पड़ने लगा था कि जिसे परम विद्वान बताकर दाम्पत्य बन्धन में बाँधा गया था, वह परम मूर्ख है। आज ऊंट को संस्कृत में बोलने के दाम्भिक प्रयास ने अनुमान पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी।

उफ ! इतना बड़ा छल ! ऐसा धोखा ! वह व्यथित हो गयीं व्यथा को पीने के प्रयास में उसने निचले होंठ के दाहिने सिरे को दाँतों से दबाया। ओह ! नारी कितना सहेगी तू ? कितनी घुटन है तेरे भाग्य में ? कब तक गीला होता रहेगा तेरा आँचल आंसुओं की निर्झरिणी से। सोचते सोचते उसे ख्याल आया कि वह उन्हें भोजन हेतु बुलाने आयी थी। चिन्तन को एक ओर झटककर उसने पति के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा, “आर्य भोजन तैयार है।”

“अच्छा।” कहकर वह चल पड़ा। भोजन करते समय तक दोनों निःशब्द रहे। हाथ धुलवाने के पश्चात् गृहिणी ने ही पहल की - “स्वामी”।

“कहो” स्वर में अधिकार था। “यदि आप आज्ञा दे तो मैं आपकी ज्ञानवृद्धि में सहायक बन सकती हूँ।” “तुम ज्ञान वृद्धि में “ ? आश्चर्य से पुरुष ने आंखें उसकी ओर उठाई।” स्वर को अत्यधिक विनम्र बनाते हुए उसने कहा, “अज्ञान अपने सहज रूप में उतना अधिक खतरनाक नहीं होता, जितना कि तब जब कि व ज्ञान का छद्म आवरण ओढ़ लेता है।”

“तो ........ तो मैं अज्ञानी हूँ।” अटकते हुए शब्दों में भेद खुल जाने की सकपकाहट झलक रही थी।

“नहीं नहीं आप अज्ञानी नहीं हैं।” स्वर को सम्मानसूचक बनाते हुए वह बोली, “पर ज्ञान अनन्त है और मैं चाहती हूँ कि आप में ज्ञान के प्रति अभीप्सा जगे। फिर आयु से इसका कोई बन्धन भी नहीं। अपने यहाँ आर्य परम्परा में तो वानप्रस्थ और संन्यास में भी विद्या प्राप्ति का विधान है। कितने ही ऋषियों ने, आप्त पुरुषों ने जीवन का एक दीर्घ खण्ड बीत जाने के बाद पारंगतता प्राप्त की।

“सो तो ठीक है पर .............।”

पति की मानसिकता में परिवर्तन को लक्ष्य कर उसका उल्लासपूर्ण स्वर फूटा - “मैं आपकी सहायिका बनूँगी।”

“तुम मेरी शिक्षिका बनोगी ? पत्नी और गुरु।” कहकर वह ही - हो - ही करके हंस पड़ा। हंसी में मूर्खता और दम्भ के सिवा और क्या था ?

पति के इस कथन को सुनकर उसके मन में उत्साह का ज्वार जैसे चन्द्र पर लगते ग्रहण को देख थम गया। वह सोचने लगी आह ! पुरुष का दम्भ। नारी नीची है, जो जन्म देती है वह नीची है, जो पालती है वह नीची हैं जिसने पुरुष को बोलना चलना, तौर तरीके सिखाए वह नीची है और पुरुष क्यों ऊंचा है ? क्यों करता है, सृष्टि के इस आदि गुरु की अवहेलना ? क्योंकि उसे भोगी होने का अहंकार है। नारी की सृजन शक्ति की मानता और गरिमा से अनभिज्ञ है।

क्या सोचने लगी ? पति ने पूछा। अपने को सम्हालते हुए उसने कहा, “कुछ खास नहीं। फिर कहने से लाभ भी क्या ? “

“नहीं कहो तो ?” स्वर में आग्रह था।

सुनकर एक बार फिर समझाने का प्रयास करते हुए कहा - “हम लोग विवाहित है। दाम्पत्य की गरिमा परस्पर के दुःख सुख, हानि लाभ, वैभव-सुविधाएं, धन - यश को मिल जुलकर उपयोग करने में है। पति पत्नी में से कोई अकेला सुख लूटे, दूसरा व्यथा को धारा में पड़ा सिसकता रहे, क्या यह उचित है ?”

“नहीं तो।” पति कुछ समझने का प्रयास करते हुए बोला।

“तो आप इससे सहमत है। कि दाम्पत्य की सफलता का रहस्य स्नेह की उस संवहन प्रक्रिया में है जिसके द्वारा एक के गुणों की उर्जस्विता दूसरे को प्राप्त होती है। दूसरे का विवेक पहले के दोषों का निष्कासन, परिमार्जन करता है।”

“ठीक कहती हो।” नारों की उन्नत गरिमा के सामने पुरुष का दम्भ घुटने टेक रहा था।

“तो फिर विद्या भी धन है, शक्ति है, ऊर्जा है, जीवन का सौंदर्य है। क्यों न हम इसका मिल बाँट कर उपयोग करें ?”

“हाँ यह सही है।”

“तब आपको मेरे सहायिका बनने में क्या आपत्ति है ?”

“कुछ नहीं।” स्वर ढीला था। शायद नारी की सृजन शक्ति के सामने पुरुष का अहं पराजित हो चुका था।

“तो शुभस्यशीध्रं।” और वह पढ़ाने लगी अपने पति को। पहला पाठ अक्षर ज्ञान से शुरू हुआ। प्रारंभ में कुछ अरुचि थी, पर प्रेम के माधुर्य के सामने इसकी कड़वाहट नहीं ठहरी। क्रमशः व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष आदि छहों वेदाँग, षड्दर्शन, ज्ञान की सरिता उमड़ती जा रही थी। दूसरे के अन्तर की अभीप्सा का महासागर उसे निःसंकोच धारण कर रहा था।

वर्षों के अनवरत प्रयास के पश्चात् पति अब विद्वान हो गया था। ज्ञान की गरिमा के साथ वह नतमस्तक था, उस सृजनशिल्पी के सामने, जो नारी के रूप में उसके सामने खड़ी थी।

सरस्वती की अनवरत उपासना उसके अन्तर में कवित्व की अनुपमेय शक्ति के रूप में प्रस्फुटित हो उठी थी। वह कभी का मूढ़ अब महाकवि हो गया। देश देशान्तर सभी उसे आश्चर्य से देखते, सराहते और शिक्षण लेने का प्रयास करते। वह सभी से एक ही स्वानुभूत तथ्य कहता, “पहचानो, नारी की गरिमा, उस कुशल शिल्पी की सृजनशक्ति, जो आदि से अब तक मनुष्य को पशुता से मुक्त कर सुसंस्कारों की निधि सौंपती आयी है।”

महाराज विक्रमादित्य ने उन्हें अपने दरबार में रखा। अब व विद्वत कुलरत्न थे। दाम्पत्य का रहस्य सूत्र उन्हें वह सब कुछ दे रहा था, जो एक सच्चे इनसान को प्राप्त होना चाहिए। स्वयं के जीवन से लोकजीवन को दिशा देने वाले ये दंपत्ति थे महाविदुषी विद्योत्तमा और कविकुल चूड़ामणि कालिदास। जिनका जीवन दीप अभी भी हमारे अधूरे पड़े परिवार निर्माण के कार्य को पूरा करने के लिए मार्गदर्शन कर रहा है।


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