भावी माता की सुविधाओं की अवहेलना न की जाए

September 1996

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गर्भस्थ शिशु पर माँ के संस्कारों, विचारों और व्यवहार की छाप पड़ती है। इन विचारों और व्यवहार का स्वरूप मात्र गर्भवती नारी के व्यक्तित्व पर निर्भर नहीं करता। परिवार की परिस्थिति, परिवार के अन्य सदस्यों को उसके साथ व्यवहार आदि से कोई भी नारी अप्रभावित नहीं रह सकती। उसके खान पान में जो विशेष सावधानी आवश्यक है, वह मात्र उसके ही वश में नहीं है परिस्थितियां कैसी हैं, अन्य लोगों का व्यवहार कैसा है ? इस पर भी बहुत कुछ निर्भर रहता है।

अधिकाँश गर्भवती नवयुवती दुर्बल, पीले से चेहरे वाली दिखती हैं। यह उनकी मनःस्थिति का परिणाम नहीं। माँ बनने की मधुर कल्पना उनके अन्तस् को गुदगुदा रही होती है। भावी शिशु के मनोरम क्रियाकलापों की स्वप्निल झाँकी उसे पुलकित करती रहती है। ऐसी स्थिति में इस तेजहीनता का कारण उसकी मनःस्थिति नहीं, परिवार के लोगों का व्यवहार ही हो सकता है। गर्भ की अवधि एक महत्वपूर्ण कालखण्ड है। उस समय उसके लिए सात्विक, पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है। आहार संबंधी त्रुटि में जहाँ गर्भिणी की आदतें या जीभ के चटपटेपन की ललक कारण बनती है, वहीं परिवार के सदस्यों की उपेक्षा भी। पति और पवार प्रमुख का कर्तव्य है कि गर्भवती के समुचित आहार की व्यवस्था करें। दूध और घी परिवार के सभी सदस्यों को यदि सुलभ नहीं है तो गर्भवती गृहिणी स्वयं के लिए उसे लेने में निश्चय ही हिचकेगी, पसन्द नहीं करेगी। परिवार के अन्य छोटे बच्चों , देवरों एवं ननंदों को चुपके से खिला पिला सकती है अतः परिवार के बड़ों को या पति को ध्यानपूर्वक अपने सामने उसका संकोच मिटाते हुए, उसे ये पोषक पदार्थ देने चाहिए। उसे प्रेमपूर्वक समझाना चाहिए कि यह विशेष व्यवस्था उसके लिए थोड़े ही हैं, यह तो गर्भस्थ बच्चे के लिए है।

गर्भकाल में जी मिचलाने, बदल टूटने, सिर चकराने, घबराहट आदि की शिकायतें सामान्यतया हो जाती हैं। मुँह का स्वाद भी बिगड़ा बिगड़ा रहता है। इसी कारण महिलाएं मिट्टी, खड़िया आदि खाने की ओर झुकती हैं। उस समय उन्हें समझाकर ऐसे अभक्ष - भक्षण से विरत रखना चाहिए तथा उनके लिए हलके, सुपाच्य, पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए।

भावी जननी के लिए अधिक श्रम भी वर्जित है। कठोर तथा भारी वस्तुएं घर में उठाने की आवश्यकता पड़े तो उसे वे स्वयं न उठाने लगें इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। काम या क्रोध की उत्तेजना भी गर्भवती नारियों के लिए हानिकारक है। भावी शिशु के पिता को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। ऐसे में एक ओर तो उन्हें पत्नी के प्रति अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार पर विशेष ध्यान देना है, दूसरी ओर कामोत्तेजना से भी बचे रहना है। पति की अपेक्षा पत्नी के मन में सदैव हताशा उत्पन्न करती है। उसे यह लगने लगता है कि गर्भ के कारण उसका शरीर बेडौल हो जाने से अब वह उतनी सुन्दर नहीं रह गयी। इसी कारण उसके पति उसको उपेक्षा करने लगे हैं।

गर्भवती माँ की संवेदना इस समय अत्यधिक तीक्ष्ण रहती है। ऐसे समय पति की आत्मीयता उसे शक्ति और स्फूर्ति देती है पति को इस अवधि में पत्नी से प्रसन्नतादायक वार्तालाप के लिए अवश्य समय निकालना चाहिए। परिवार के अन्य सदस्यों विशेषकर सास, ननद, जेठानी, देवरानी का व्यवहार कोमल, प्रेमपूर्ण होना आवश्यक है। इसमें भी पति की ही प्रमुख भूमिका रहती है, क्योंकि घर के लोग उसका रुख देखकर ही व्यवहार करते हैं। पति का प्रेम गर्भवती नारी के लिए विश्व का सर्वोत्तम टॉनिक है। उसके आन्तरिक स्नेह सलिल से सींचकर पत्नी का मन हरा भरा हो जाता है और वह छोटे मोटे अभावों को फिर कुछ भी नहीं गिनती। इससे गर्भस्थ बालक पर भी इन छोटी मोटी कमियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ने पाता।

अधिकाँश भारतीय परिवारों में यह रिवाज है कि प्रथम प्रसव मायके में हो। उसका आधार मात्र इतना ही है कि वहाँ गर्भवती अपने कष्ट अपनी माँ से निःसंकोच कह सकेगी और माँ भी उस हेतु दौड़ धूप करेगी। परंतु अब यह प्रथा समाप्त कर देने योग्य ही है प्रथम तो, मायके में यदि भाई भाभी की चलती हुई, तो भावी जननी को संकोच और दबाव ही झेलना पड़ता है। दूसरे यह प्रथा इसलिए भी त्याज्य है कि यह ससुराल पक्ष की दायित्व से कतराने की प्रवृत्ति है। हाँ, जहाँ लड़की के माता पिता समर्थ सम्पन्न हों और उनका तथा गर्भवती का, दोनों का मन यही हो कि प्रथम प्रसव मायके में ही हो, तो वहाँ भेजने में कोई आपत्ति नहीं। पर एक प्रथा के रूप में इसे नहीं माना जाना चाहिए।

भावी माता को जहाँ तक हो सके घर के अन्य कामों से छुट्टी दे देनी चाहिए। वह भावी शिशु के लिए ही कपड़े , टोपी, नैपकीन, मोजा, गिलाफ, गुदड़ी आदि सीने बुनने का काम करती रहे। इससे उसके मन में होने वाले बच्चे के प्रति उत्सुकता एवं ममता का भाव प्रगाढ़ होगा। साथ ही उसके मन में अनावश्यक आशंकाएं न पैदा हों, इसका ध्यान रखा जाए। मिलने जुलने आने वाली अनेक महिलाएं प्रसव पीड़ा का अतिरंजित वर्णन कर गर्भवती नवयुवती को व्यर्थ ही डराती हैं। इसका प्रसव के समय प्रतिकूल परिणाम होता है। भयभीत नारी प्रसवकाल में शरीर में तनाव पैदा कर लेती है, जिससे उसका कष्ट बढ़ जाता है। यदि उसके मन में उत्साह हो तो प्रसव क्रिया सुगमता से, बिना किसी कष्ट के सम्पन्न हो जाती है।

गर्भवती नारी के कमरे की साज सज्जा पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ताकि लेटते, उठते उसके मानस पटल पर सद्विचार व श्रेष्ठ मानस प्रतिभाएं कौंधती रहें। महामानवों, देवदूतों, राष्ट्रभक्तों, वीरों-वीराँगनाओं के चित्र ओजस्वी, उत्कृष्ट विचार पैदा करते हैं। श्रेष्ठ भावों से युक्त आदर्श वाक्यपट भी कमरे में टाँगें जा सकते हैं। सिनेमा के हीरो-हीरोइन के अश्लील भाव-भंगिमाओं अथवा मार धाड़ की मुद्रा वाले चित्र न रखे जाएं तो बेहतर है अन्यथा इन्हें देखकर किसी समय चित्त दूषित हुआ या सस्ती कल्पनाएं उभरीं तो इसका दुष्परिणाम गर्भस्थ शिशु पर अवश्यंभावी है।

कमरे में स्वच्छ वायु एवं सूर्य का प्रकाश भी आता हो। आक्सीजन की पर्याप्त मात्रा गर्भकाल में मिलती रहनी अति आवश्यक है अन्यथा शरीर के दूषण की सफाई में प्राणवायु उतनी समर्थ न हो सकेगी। इसका भ्रूण एवं गर्भवती दोनों पर गलत प्रभाव पड़ेगा।

परिश्रम न करने का अर्थ यह भी नहीं कि गर्भकाल में छुई-मुई बनकर चाहे जब लेटे रहा जाय, इससे तो स्वास्थ्य नष्ट होगा। स्वयं की स्थिती को असामान्य मानकर गर्भवती सारे दिन लेटे-लेटे ही न बिताने लगे, इसकी सतर्कता रखी जानी चाहिए। उसका चलना-फिरना बहुत आवश्यक है। हाँ, अधिक भार न उठाना चाहिए। विशेषकर गर्भ के प्रथम तीन मास में वह अधिक बोझ न उठाए, इसका ध्यान रखा जाय, अन्यथा रक्तस्राव की सम्भावना रहती है।

वह अधिक थके भी नहीं । जब थकान प्रतीत हो, विश्राम कर ले। थकान की स्थिति में चारपाई पर आराम से लेटकर पैरों के नीचे गद्दी या तकिया रख देने से अधिक आराम मिल जाता है। गर्भिणी महिला को आठ-नौ घण्टे दिन में विश्राम अवश्य कर लेना चाहिए। अधिक थकान से निद्रा-नाश की शिकायत पैदा हो जाती है।

सायंकालीन भोजन के उपरान्त थोड़ा-सा टहल लेने से नींद अच्छी लगती है। तला-भुना, दुष्पाच्य भोजन कदापि न ग्रहण किया जाय। हलका भोजन ही गहरी नींद लाता है। गहरी नींद गर्भिणी व भ्रूण दोनों के स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है।

पाश्चात्य देशों में गर्भवती महिलाओं को पूर्व प्रसव व्यायाम की विशेष विधियों के प्रशिक्षण का प्रचलन है। इन व्यायाम, अभ्यासों से पेडू कूल्हे, पैरों आदि की माँसपेशियाँ पुष्ट होती है। रीढ़ व जोड़ों में लचीलापन बढ़ता है। सामान्य भारतीय गृहिणी यदि घर के काम करती रहे, तो पर्याप्त व्यायाम हो जाता है। दही मथने, चक्की चलाने जैसे कामों से उन्हीं व्यायामों का परिणाम प्राप्त होता है, जो पाश्चात्य देशों में प्रचलित है। प्रातः काल टहलने से भी गर्भिणी को विशेष लाभ होता है। इस समय शरीर की स्वच्छता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। भली-भाँति स्नान करना आवश्यक है। आलस्यवश ऐसा न करने से हानि होती है। त्वचा की सफाई से शरीर में स्फूर्ति भी बनी रहती है।

गर्भवती महिलाओं को ऊँची एड़ी वाले जूते पहनने का लोभ कदापि नहीं करना चाहिए। इससे गर्दन, पीठ व पेट की मांसपेशियां पर खिंचाव होगा। मेरुदण्ड भी प्रभावित होगा। प्रातःकाल सूर्य-प्रकाश के सेवन से विटामिन-डी प्राप्त होगा। इससे भ्रूण के अस्थि निर्माण के लिए आवश्यक पोषण प्राप्त होगा। साथ ही सूर्य प्रकाश से शरीर में सामर्थ्य की वृद्धि होती है।

परिवार के आत्मीयजनों का कर्तव्य है कि भावी माता के मन में अनावश्यक चिन्ता न पैदा करें। उसकी श्रेष्ठ व हितकर इच्छाओं की पूर्ति का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। प्रसन्नता, सन्तोष और उत्साह का वातावरण उसके चारों ओर रहें। परन्तु यह सम्भव तभी है जब परिवार में शालीनता और कोमलता संस्कार के रूप में विद्यमान हो।

महाभारत के द्रोणपर्व में वर्णन है कि अर्जुन की अनुपस्थिति में अन्य किसी पाण्डव द्वारा चक्रव्यूह भेदन न जानने के कारण, उस दिन के युद्ध में चक्रव्यूह को भेद सकने की समस्या आ खड़ी हो गयी, क्योंकि आचार्य द्रोण ने जान-बूझकर उस दिन चक्रव्यूह रचा था. किन्तु अभिमन्यु ने इस कठिन व्यूह को भेदने की बात कही। युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर कि “तुमने यह कहाँ सीखा ?” अभिमन्यु ने बताया कि जब वह गर्भ में था, तभी एक दिन उसकी माता सुभद्रा की पीड़ा तीव्र हुई। उपचार से भी आराम न होने पर अर्जुन ने सुभद्रा का मन बहलाने के लिए रोचक शैली में चक्रव्यूह भेदन की कला सुनाना प्रारम्भ किया। शेष सब गोपनीय रहस्य तो अर्जुन सूना गए, किन्तु अन्तिम सातवें द्वार के बेधन की विधि बताना बाकी रह गया, तभी सुभद्रा को नींद आ गयी और अर्जुन चुप हो गए। अभिमन्यु ने कहा कि ध्यान से सुनने के कारण मुझे वह सब स्मरण है, किन्तु अन्तिम द्वार का बेधन न बताए जाने के कारण उसकी विधि नहीं जानता। इस कथा से यह तो स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय तत्वदर्शी यह जानते थे कि माता के विचारों, वह जो सुनती है, समझती, देखती और विचार करती है, उस सबका गर्भस्थ शिशु पर संस्कार अंकित होता है।

महान सेनापति नेपोलियन के बारे में यह बताया जाता है कि जब वह गर्भ में था, तब फ्राँसीसी क्रान्ति के समय युद्ध की स्थितियों में नैपोलियन की माँ को प्राण रक्षा के लिए एक निर्जन पहाड़ी में जाना पड़ा। दूर चारों और सैनिकों के पदचाप गूँजते थे, तलवारों की झनझनाहट, बन्दूक की गोलियों की सनसनाहट और तोपों की गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती थी। वह महिला इन्हीं ध्वनियों को सुनती, दृश्य भी देखती व उसी संदर्भ में उसका चिन्तन क्रम भी चलता रहता। गर्भस्थ शिशु पर इसका प्रभाव पड़ा और बड़े होने पर युद्धभूमि उसका सर्वाधिक प्रिय स्थान बन गयी। वह सदा सैनिकों के साथ मोर्चे पर रहता तथा उसके ही तम्बू के पास आ -आकर शत्रु की तोपों से छूटे गोले गिरते रहते। नेपोलियन अविचलित अपने कार्य में संलग्न रहता। इस निर्भयता और रणप्रियता में गर्भ अवधि की घटनाओं का भी प्रभाव निश्चित ही था।

इससे स्पष्ट हैं कि गर्भवती के परिवेश का अत्यधिक महत्व है। यह परिवेश प्रफुल्लता, प्रेरणा और प्रोत्साहन देने वाला हो। पराक्रम, साहस, सात्विकता और सच्चरित्र के भावों का संचार करे। ऐसी व्यवस्था करना घर के जिम्मेदार लोगों का कर्तव्य है। यदि अर्जुन सुभद्रा को वह अनूठा रणकौशल न समझाते तो अभिमन्यु में चक्रव्यूह भेदन को जन्मजात सामर्थ्य कहाँ से होती ? अतः गर्भवती पत्नी से न केवल घरेलू व्यवस्था सम्बन्धी परामर्श करते रहना और प्रेमपूर्ण व्यवहार रखना पति का कर्तव्य है, अपितु उससे उत्कृष्ट आदर्शोन्मुख चर्चाएं करना भी पति एवं पारिवारिक जनों के लिए वाँछित है। पत्नी की भावभरी संवेदनाओं को श्रेष्ठता की दिशा देते रहना गर्भकाल में पति का विशेष कर्तव्य है। भावों माँ का चिन्तन स्तर परिष्कृत नहीं है तो इसमें भावी पिता का, भावी दादा-दादी, भावी बुआ-चाची आदि का दोष कम नहीं आंका जाएगा ।

इस प्रकार भावी जननी के समुचित आहार, स्वच्छ निवास स्थल, सौम्य मनः-स्थिति, प्रगतिशील चिन्तनक्रम और समुचित श्रम तथा विश्राम की व्यवस्था जुटाना, पति एवं परिवार के आत्मीयजनों का कर्तव्य है। ऐसा करने की पात्रता व शक्ति अर्जित किए बिना, एक नवागन्तुक सुकुमार अतिथि को आमन्त्रित करना अनुचित और अपराधपूर्ण कृत्य है।


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